समाज

सी. वी. रमन के छात्र थे कुमाऊं विश्वविद्यालय के पहले कुलपति प्रो. डी. डी. पन्त

यह वाकया उस जमाने का है, जब देश को आजादी मिली ही थी. हिमालय के दूर-दराज गांव के अत्यंत विपन्न परिवार का एक छात्र नोबेल विजेता और महान भौतिकविद सर सी.वी. रमन की प्रयोगशाला (रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट, बेंगलूर) में अपना शोधकार्य समेट रहा था. घर की माली हालत बेहद खराब थी. रमन साहब ने उसे भारतीय मौसम विभाग की शानदार नौकरी कर लेने का सुझाव दिया. गांधी को अपना आदर्श मानने वाले छात्र को निर्देशक का प्रस्ताव कुछ जंचा नहीं. बोले – “मैं आपकी तरह शिक्षक बनना चाहता हूं.” रमन साहब हंस पड़े, उन्होंने कहा – “तब तुम जीवन भर गरीब और उपेक्षित ही रहोगे.”
(Tribute to Prof D.D. Pant)

रमन साहब की बात सचमुच सही साबित हुई. हजारों छात्रों के लिए सफलता की राह तैयार करने वाले प्रो. देवी दत्त पन्त अपने जीवन की संध्या में लगभग गुमनाम और उपेक्षित रहे. बीती सदी के पांचवें दशक में जब नैनीताल में डीएसबी कालेज की स्थापना हुई तो प्रो. पन्त भौतिकविज्ञान विभाग का अध्यक्ष पद संभालने आगरा कालेज से यहां पहुंचे. वह स्पेक्ट्रोस्कोपी के आदमी थे और उन्होंने यहां फोटोफिजिक्स लैब की बुनियाद डाली. जाने-माने भौतिकशास्त्री और इप्टा (इंडियन फिजिक्स टीचर्स ऐसोसिएशन) के संस्थापक डी.पी. खण्डेलवाल उनके पहले शोधछात्र बने. उस जमाने में शोध को आर्थिक मदद देने वाली संस्थाएं नहीं थीं. दूसरे विश्वयुद्ध के टूटे-फूटे उपकरण कबाडि़यों के पास मिल जाया करते थे और पन्त साहब अपने मतलब के पुर्जे वहां जाकर जुटा लेते थे.

कबाड़ के जुगाड़ से लैब का पहला टाइम डोमेन स्पेक्ट्रोमीटर तैयार हुआ. इस उपकरण की मदद से पन्त और खण्डेलवाल की जोड़ी ने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण शोधकार्य किया. यूरेनियम के लवणों की स्पेक्ट्रोस्कोपी पर हुए इस शोध ने देश-विदेश में धूम मचाई. इस विषय पर लिखी गई अब तक की सबसे चर्चित पुस्तक (फोटोकैमिस्ट्री ऑफ यूरेनाइल कंपाउंड्स, ले. राबिनोविच एवं बैडफोर्ड) में पन्त और खण्डेलवाल के काम का दर्जनों बार उल्लेख हुआ है. शोध की चर्चा अफवाहों की शक्ल में वैज्ञानिक बिरादरी से बाहर पहुंची. आज भी जिक्र छिड़ने पर पुराने लोग बताते हैं- प्रो. पन्त ने तब एक नई किरण की खोज की थी, जिसे `पन्त रे´ नाम दिया गया. इस मान्यता को युरेनियम लवणों पर उनके शोध का लोकfप्रय तर्जुमा कहना ठीक होगा.कुछ समय बाद प्रो. पन्त डीएसबी कालेज के प्रिंसिपल बना दिए गए. उनके कार्यकाल को डीएसबी का स्वर्णयुग माना जाता है. न केवल कालेज के पठन-पाठन का स्तर नई ऊंचाइयों तक पहुंचा बल्कि प्रो. पन्त की पहल पर छात्रों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए अलग से कक्षाएं लगने लगीं. एक बेहद पिछड़े पहाड़ी इलाके के लिए इस पहल का खास अर्थ था. उस जमाने में शहरों में पहुंचने वाले किसी पहाड़ी नौजवान की पहली छवि अमूमन ईमानदार घरेलू नौकर की होती थी.

पहाड़ की जवानी मैदान के ढाबों में बर्तन धोते या फिर सीमा पर पहरेदारी करते बीतती थी. ऊंची नौकरियों में इक्का-दुक्का भाग्यशाली ही पहुंच पाते थे. प्रो. पन्त के बनाए माहौल ने गरीब घरों के सैकड़ों छात्रों को देश-विदेश में नाम कमाने लायक बनाया. उस जमाने के जाने कितने छात्र आज भी अपनी सफलता का श्रेय देते हुए उन्हें श्रद्धापूर्वक याद करते हैं.
(Tribute to Prof D.D. Pant)

बाद में प्रो. पन्त उत्तर प्रदेश के शिक्षा निदेशक और कुमाऊं विश्वविद्यालय की स्थापना होने पर इसके पहले वाइस चांसलर बने. इस विश्वविद्यालय के साथ उनके सपने जुड़े थे. कुमाऊं व गढ़वाल विश्वविद्यालयों की स्थापना भारी राजनीतिक दबाव में एक साथ की गई थी. राज्य सरकार ने इन्हें खोलने की घोषणा तो कर दी लेकिन संसाधनों के नाम पर ठेंगा दिखा दिया. प्रो. पन्त इसे नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों की कतार में लाना चाहते थे. इसलिए जब-जब कोई अपनी हैसियत की आड़ में विश्वविद्यालय को समेटने की कोशिश करता, वह पूरी ताकत से प्रतिरोध करते.

तत्कालीन गवर्नर (और कुलाधिपति) एम. चेन्ना रेड्डी से प्रो. पन्त की ऐतिहासिक भिड़ंत को कौन भुला सकता है! एम् चेन्ना रेड्डी अपने किसी खासमखास ज्योतिषी को मानद डाक्टरेट दिलवाना चाहते थे. प्रो. पन्त के कुलपति रहते यह कैसे संभव था! वह अड़े और अंतत: जब बात बनती नजर नहीं आयी तो इस्तीफा देकर बाहर निकल आए. प्रो. पन्त के इस्तीफे की भारी प्रतिक्रिया हुई. लोग सड़कों पर उतर आए और अंतत: गवर्नर को झुकना पड़ा. पन्त साहब ने वापस वीसी की कुर्सी संभाली.

प्रशासनिक जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद प्रो. पन्त अपनी लैब में वापस लौट आए और रिसर्च में जुट गए. दूसरी प्रयोगशालाओं और शोध निर्देशकों से कई मायनों में प्रो. पन्त बिलकुल अलग थे. लैब की नियमित बातचीत में नए शोधछात्रों के बचकाने तर्कों को भी वह बड़ी गंभीरता से सुनते और उनकी कमजोरियों को दूर करते. उनकी मेज के सामने लगे बोर्ड पर छात्र बारी-बारी से अपनी प्रॉब्लम पर चर्चा करते और अंत में प्रो. पन्त खुद उठकर बोर्ड के सामने पहुंच जाते.

वैज्ञानिक दृष्टि के बुनियादी मूल्य भाषणों के बजाय उनके व्यवहार से छात्रों को मिलते थे. एक बार अपने एक प्रतिभाशाली छात्र (डा. प्रेम बल्लभ बिष्ट, जो अब आईआईटी मद्रास में प्रोफेसर हैं) के शोधपत्र में दिए गए विश्लेषण से वह संतुष्ट नहीं हो पा रहे थे. बिष्ट भी अपने तर्कों से समझौता करने को तैयार नहीं थे. अंत में प्रो. पन्त ने बेहद विनम्रता से कहा- तुम्हारी बात में दम है, हालांकि मैं इससे सहमत नहीं हूं. अब ऐसा करो, मेरा नाम लेखकों में शामिल करने के बजाय एकनॉलेजमेंट्स में डालकर पेपर छपने भेज दो. खोखली प्रोफेसरी के वजन से छात्रों को दबाए रखने वाले और ठीकपने की व्याधि से ग्रस्त विश्वविद्यालयी प्राध्यापकों की भीड़ में प्रो. पन्त अलग चमकते थे. उन्होंने माइकल कासा और हर्त्ज्बर्ग जैसे दिग्गज नोबेल विजेताओं के साथ काम किया था. ये दोनों वैज्ञानिक प्रो. पन्त की प्रतिभा के कायल थे और कई वर्षों तक उन्हें अमेरिका आकर काम करने के लिए उकसाते रहे. कासा से उनकी गहरी दोस्ती थी. वह हर साल क्रिसमस के आसपास उनका पत्र प्रो. पन्त की टेबल पर रखा मिलता.
(Tribute to Prof D.D. Pant)

अब तक अलग उत्तराखंड राज्य की मांग उठने लगी थी. प्रो. पन्त `स्मॉल इज ब्यूटीफुल´ के जबर्दस्त मुरीद थे. बड़े प्रदेश की सरकार के साथ उनके अनुभवों ने भी उन्हें छोटे राज्य की अहमियत से वाकिफ कराया और वह उत्तराखण्ड राज्य की मांग के मुखर समर्थक बन गए. इसलिए, जब अलग राज्य के लिए उत्तराखण्ड क्रांति दल का गठन हुआ तो नेतृत्व के लिए प्रो. पन्त के नाम पर भला किसको आपत्ति होती.

और इस तरह विज्ञान की सीधी-सच्ची राह से वह राजनीतिक की भूल-भुलैया में निकल आए. उन्होंने यूकेडी के टिकट पर अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ सीट से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ा और जमानत जब्त करवाई. शायद पेशेवर घुन्ने नेताओं के सामने लोगों को सीधा-सरल वैज्ञानिक हजम नहीं हुआ. बाद में यूकेडी की अंदरूनी खींचतान और इसके नेताओं की बौनी महत्वाकांक्षाओं से उकता कर प्रो. पन्त ने राजनीति से किनारा कर लिया और एक बार फिर अपनी प्रयोगशाला में लौट आए.

प्रो. पन्त का जन्म 1919 में आज के पिथौरागढ़ जिले के एक दूरस्थ गांव देवराड़ी में हुआ था. प्राथमिक शिक्षा गांव के स्कूल में हुई. पिता अम्बा दत्त वैद्यकी से गुजर-बसर करते थे. बालक देवी की कुशाग्र बुद्धि गांव में चर्चा का विषय बनी तो पिता के सपनों को भी पंख लगे लगे. किसी तरह पैसे का इंतजाम कर उन्होंने बेटे को कांडा के जूनियर हाईस्कूल और बाद में इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई के लिए अल्मोड़ा भेजा. आजादी की लड़ाई की आंच अल्मोड़ा भी पहुंच चुकी थी. देवी दत्त को नई आबोहवा से और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली. घर के माली हालात आगे पढ़ने की इजाजत नहीं देते थे. तभी पिता के एक मित्र बैतड़ी (सीमापार पश्चिमी नेपाल का एक जिला) के एक संपन्न परिवार की लड़की का रिश्ता लेकर आए. पिता-पुत्र दोनों को लगा कि शायद यह रिश्ता आगे की पढ़ाई का रास्ता खोल दे.
(Tribute to Prof D.D. Pant)

इस तरह इंटरमीडिएट के परीक्षाफल का इंतजार कर रहे देवीदत्त पढ़ाई जारी रखने की आस में दांपत्य जीवन में बंध गए. इंटरमीडिएट के बाद देवी दत्त ने बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी में दाखिला लिया. यहां उन्होंने भौतिकविज्ञान में मास्टर्स डिग्री पाई. ख्यातिनाम विभागाध्यक्ष प्रो. आसुंदी को इस प्रतिभाशाली छात्र से बेहद स्नेह था. देवी उन्हीं के निर्देशन में पीएच डी करना चाहते थे. प्रो. आसुंदी ने वजीफे के लिए तत्कालीन वाइस चांसलर डा. राधाकृष्णन से मिलने का सुझाव दिया. पन्त अर्जी लेकर राधाकृष्णन के पास पहुंचे. राधाकृष्णन स्पांडिलाइटिस के कारण आरामकुर्सी पर लेटकर काम करते थे. पन्त की अर्जी देख उनका जायका बिगड़ गया. बोले- आसुंदी आखिर कितने छात्रों को स्कॉलरशिप दिलाना चाहते हैं. हमारे पास अब पैसा नहीं है. निराश देवी दत्त वापस लौट आए. आसुंदी ने उन्हें ढाढ़स बंधाया और बेंगलूर में रमन साहब के पास जाकर रिसर्च करने को कहा. इस तरह देवराड़ी का देवी दत्त महान वैज्ञानिक सर सी.वी. रमन का शिष्य बन गया.

नैनाताल परिसर की फोटोफिजिक्स लैब प्रो. के नाम से देश की विज्ञान बिरादरी में जानी जाती है. इस लैब से उन्हें बेहद प्यार था. अपनी आधी-अधूरी आत्मकथा की भूमिका में एक जगह उन्होंने लिखा है कि वह मृत्युपर्यंत लैब के अपने कमरे से जुड़े रहना चाहेंगे. लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था. रहस्यमय परिस्थितियों में एक दिन फिजिक्स डिपार्टमेंट का पूरा भवन आग की भेंट चढ़ गया. संभवत: यह फोटोफिजिक्स लैब के अवसान की भी शुरुआत थी. कई वर्षों तक अस्थाई भवन में लैब का अस्तित्व बनाए रखने की कोशिश की गई. बाद में फिजिक्स डिपार्टमेंट के भवन का पुनर्निर्माण हुआ तो फोटोफिजिक्स लैब को भी अपनी पुरानी जगह मिली. लेकिन अब इसका निश्चेत शरीर ही बाकी था, आत्मा तो शायद आग के साथ भस्मीभूत हो गई.
(Tribute to Prof D.D. Pant)

प्रो. पन्त का स्वास्थ्य भी अब पहले जैसा नहीं रहा. वह नैनीताल छोड़ हल्द्वानी रहने लगे. इस लैब ने कई ख्यातनाम वैज्ञानिक दिए और कुमाऊं जैसे गुमनाम विश्वविद्यालय की इस साधनहीन प्रयोगशाला ने फोटोफिजिक्स के दिग्गजों के बीच अपनी खास जगह बनाई. जिस किसी को प्रो. पन्त के साथ काम करने का सौभाग्य मिला, वह उनकी बच्चों जैसी निश्छलता, उनकी बुfद्धमत्ता, ईमानदारी से सनी उनकी खुद्दारी और प्रेम का मुरीद हुए बिना नहीं रहा. निराशा जैसे उनके स्वभाव में थी ही नहीं. चाहे वह रिसर्च का काम हो या फिर कोई सामाजिक सरोकार, प्रो. पन्त पहल लेने को उतावले हो जाते. अपने छात्रों को वह अक्सर चुप बैठे रहने पर लताड़ते और आवाज उठाने को कहते. गांधी के विचारों को उनकी जुबान ही नहीं, जीवन में भी पैठे हुए देखा जा सकता था. जो कहते वही करते और ढोंग के लिए कहीं जगह नहीं. उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि अगर आप अपने विचारों पर दृढ़ रहें तो हताशा, निराशा और दु:ख मुश्किल से मुश्किल हालात में भी आपको नहीं घेरेंगे.

हमारा समाज उनका ऋणी है. गांधी के रास्ते पर चलने वाले प्रो. पन्त का पारिस्थिकी में गहरा विश्वास है. वह अक्सर कहते हैं कि कुदरत मुफ़्त में कुछ नहीं देती और हर सुविधा की कीमत चुकानी पड़ती है. अपने जीवन में उन्होंने बहुत कम सुविधाएं इस्तेमाल कीं लेकिन बदले में उनकी जरूरत से ज्यादा कीमत चुकाई.
(Tribute to Prof D.D. Pant)

यह लेख हमारे सहयोगी आशुतोष उपाध्याय ने लिखा है.

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  • बहुत बहुत धन्यवाद ,ऐसे हीरों से समाज को परिचित करवाने का । इससे वर्तमान और भावी पीढ़ी का मनोबल बढ़ता है ।

  • हम ये कहानियां कब तक रचते रहेंगे, नई पीढ़ी को विज्ञान करने के लिए हुनर चाहिए होगा, उन्हें टूल पकड़ाने होंगे, फेलोशिप का जुगाड़ करना होगा और एक अकादमिक मौहाल भी।

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