सिनेमा

जाने का भी क्या समय चुना यार? अलविदा इरफ़ान!

लॉकडाउन घोषित होने से तक़रीबन बारह पंद्रह दिन पहले निर्माता दिनेश विजान की फ़िल्म ‘अंग्रेजी मीडियम’ की स्पेशल स्क्रीनिंग में मैं बतौर गेस्ट मौजूद था लेकिन वहाँ मौजूद हिंदी फ़िल्म जगत के तमाम नामी गिरामी चेहरों के बीच फ़िल्म के मुख्य अभिनेता इरफ़ान कहीं नज़र नही आ रहे थे. जब मैंने इस बारे में दरियाफ़्त की तो पता चला वो बीमार हैं और इस फ़िल्म की शूटिंग भी उन्होंने बेहद कठिनाइयों में पूरी की  है. पत्र पत्रिकाओं में छपी ख़बरों के आधार पर अब तक मेरा ये मानना था कि वो इलाज के बाद बेहतर हो चुके हैं और उनके बारे में हमारी सारी आशंकाए निर्मूल हो गयी हैं. लेकिन ये सुन कर उस दिन पता नही क्यों लगा कि शायद अब उनके पास ज़्यादा दिन शेष नही हैं.  ख़ैर उस शाम बिना उनकी उपस्थिति के एक बार जब फ़िल्म शुरू हुई तो फिर इरफ़ान ही इरफ़ान थे. अपने मंझे हुए अभिनय के साथ, अपने ख़ास तरह के ह्यूमर के साथ – लेखनी की तमाम कमज़ोरियों का अकेले वहन करते हुए.  Tribute to Irrfan Khan Brajbhushan Pandey 

इरफ़ान एक बेहतरीन कलाकार थे. अगर मैं उन्हें केवल श्रेष्ठ अभिनेता नही कह रहा तो इसकी सायास वजहें हैं.

सन 1929 में बंगाली स्टेज के प्रसिद्ध अभिनेता शिशिर कुमार भादुड़ी को को लिखे अपने पत्र में कविगुरु रबिंद्रनाथ टैगोर इस बात पर बहुत ज़ोर देते हैं कि कला की हर विधा को अपने रचे जाने वाले संसारों के लिए अभिव्यक्ति के एक स्वतंत्र ढंग का निर्माण करना चाहिए.

इस अर्थ में इरफ़ान की गिनती उन प्रतिभासंपन्न लोगों में नही है जो किसी कला विधा के अंतर्गत अपनी एक विशिष्ट शैली का निर्माण करते हैं बल्कि वो उन जीनियस में शामिल हैं जिन्होंने पूरे के पूरे सिनमैटिक आर्ट को एक शैली बख़्शी है जिसे टैगोर “इंडिपेंडेंट मैनर ऑव एक्स्प्रेशन” कह रहे थे.

इसीलिए उन्हें कलासाधक कहना ही मुनासिब होगा- एक ऐसी रचनाशील उपस्थिति जो किसी भी आर्ट फ़ॉर्म को उत्कृष्टता के उस धरातल पर पहुचा सके जहाँ कला के सभी रूपों से निर्वेद झरने लगता है. Tribute to Irrfan Khan Brajbhushan Pandey

टैगोर अपने इसी पत्र में सिनेमा को उस जादुई भाषा को पाने की सलाह भी देते हैं जो महज़ चित्रों के प्रवाह और उसकी चाक्षुष गतिशीलता के अपूर्व सम्मोहन से जन्म ले सके.  कहना न होगा भारतीय सिनेमा को आज भी उस भाषा को पाने में आकाशीय दूरियाँ तय करनी हैं लेकिन पटकथा और सम्वाद के भीतर अभिनय के छोटे छोटे स्पेसों में इरफ़ान ये प्रभाव खड़ा कर देते थे.  याद करे सन 2001 में आयी फ़िल्म ‘द वॉरीयर्स’.  30-35 सेकंड के शॉट में गहरे परिमाप वाली आँखों का स्क्रीन पर उभरना और और दूर मिट्टी के टीले पर अपनी तलवार की धार को जाया करते बच्चे को देखना – बस और कुछ नही. मक़बूल, पान सिंह तोमर, लंचबॉक्स ऐसी तमाम फ़िल्मों में ना जाने कितने ऐसे अभिनय स्थल हैं जहाँ ऐसे प्रभाव नोटिस किए जा सकते हैं.  अगर हम पूरे ढाई घंटे ऐसी जादूगरी का आनंद नही ले पाते तो ये पटकथाओं की सीमा है इरफ़ान की नहीं.

इरफ़ान एक और मायने में अनूठे और अलग नज़र आते हैं. बॉलीवुड की फ़िल्में कमोबेश भारी भरकम डायलॉग के आतंक से ग्रस्त रही हैं और इनका ये मोह आज तक नहीं छूटा है. इसके दूसरे सिरे पर एक नयी और टैलंटेड खेप है जो यह समझती है कि जीवन की मूल भाषा गप शप की भाषा है जिसका रास्ता चुगलख़ोरियों, व्हिस्पर्स, ठहाकों और नोक-झोंक से हो कर गुज़रता है. इरफ़ान हैं तो इसी दूसरी धारा के किन्तु उन तक आते आते अदायगी इतना अलग रंग ले लेती है कि आप वास्तविकता और अपने सुपरिचित ख़ालिस सिनेमाई अहसास में सहसा अंतर नही कर पाते.

पूर्वांचल और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की जातिवादी राजनीति में लिथड़ा एक ठाकुर अपराधी अपने ब्राह्मण प्रतिद्वंदी से वही कहेगा जो हासिल के रणविजय सिंह का किरदार कह रहा है. लेकिन “गोली मारना तेरे बस का नही पंडित तू तो मंतर मार” कहता हुआ पात्र जब इरफ़ान के अभिनय के प्रिज्म से बाहर निकलता है तो वह हूबहू वही छात्र नेता नही है जिसे आपने नेतराम चौराहे या कर्नलगंज की भीड़ भरी सड़कों पर झंडिया फहराते देखा है.

दरअसल महान कलायें सच्चाई और झूठ के बीच महान छलावों का वितान रचती हैं – एक  झिलमिलाती हुई दुनिया. अपनी शरीर भाषा और सम्वाद डिलिवरी के विशिष्ट ढंग से इसे जीवंत कर देने का बूता इरफ़ान जैसे चंद लोगों के पास ही होता है.

कहना न होगा ये बारीकी एक लम्बे तनाव भरी साधना के तापमान की माँग करती है जिसमें निरंतर एक सर्च-प्रॉसेस पकती रहती है. इरफ़ान अपने तमाम इंटर्व्यूज़ में इसे एक्सप्लोर करना कहते हैं. यह एक्सप्लोरेशन क्या है? इरफ़ान के लिए यह दुर्लभ कहानियों की खोज के साथ साथ कहने के दुर्लभ तरीक़ों की खोज है.

इसी खोज के बाबत बताते हुए इरफ़ान राज्यसभा टीवी के मशहूर इंटर्व्यू प्रोग्राम ‘गुफ़्तगू’ में एक कमाल की बात कहते हैं. वह यह कि उन्हें फ़िल्म में मुद्दा ले आने वाले फ़िल्मकारों से दिक्कत है. फ़िल्म में अगर कोई मुद्दा लाना भी है तो वह स्मगल किया जाना चाहिए चोरी छिपे बचते बचाते और यह कभी भी मुख्य व्यापार तो हो ही नहीं सकता. कोई भी कला उपदेशक या क्रांति का अग्रदूत नही होती. सिनेमा को भी कभी अपने मुद्दे अपनी क्रांति या अपनी देशना अगर कहनी ही पड़े तो उसे ये अपने चित्रकथाओ के बिखरे सूत्रों में ही कहना होगा – अस्फुट, अर्धउन्मीलित, ढँके हुए.

इस बात को वही कह सकता है जिसकी कलादृष्टि मर्मवेधी हो.  इसलिए आश्चर्य नही है कि इरफ़ान के लिए ये तलाश उस दुरूह मोड़ पर जा खड़ी होती है जहाँ एंटरटेन्मेंट को ही पुनर्परिभाषित करने की ज़रूरत आन पड़ती है. Tribute to Irrfan Khan Brajbhushan Pandey

नियति ही है कि दुर्लभता की यह माँग उन्हें एक दुर्लभ मर्ज़ के दरवाज़े छोड़ गयी जहाँ से लौटने का शायद कोई रास्ता नही था. कहते हैं कि इरफ़ान की माँ मुंबई से डरती थीं. उनका मानना था कि यहा उनके भाई अर्थात इरफ़ान के मामा खो गए और इरफ़ान भी खो जाएँगे. आज उनका डर सच साबित हुआ लेकिन अरब सागर की नम हवाओं वाली इस मिट्टी में दफ़्न हो कर हहराते आनंद समुद्र का जो सृजनधर्मी व्यक्तित्व मुक्त हुआ है उसी में शायद मानव की सच्ची मुक्ति है.

ख़ामोश अभिनय के बादशाह की अंतिम यात्रा में प्रकृति ने कभी ना थमने वाली इस कोलाहल नगरी को निस्तब्ध दोपहरी में निमग्न कर रखा है – अबूझ संयोगों के अनाहत मौन में लिपटा शहर – जाने का भी क्या समय चुना यार? अलविदा. Tribute to Irrfan Khan Brajbhushan Pandey

-ब्रजभूषण पाण्डेय

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बनारस से लगे बिहार के कैमूर जिले के एक छोटे से गाँव बसही में जन्मे ब्रजभूषण पाण्डेय ने दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्चशिक्षा हासिल करने के उपरान्त वर्ष 2016 में भारतीय सिविल सेवा जॉइन की. सम्प्रति नागपुर में रहते हैं और आयकर विभाग में सेवारत हैं. हिन्दी भाषा के शास्त्रीय और देसज, दोनों मुहावरों को बरतने में समान दक्षता रखने वाले ब्रजभूषण की किस्सागोई और लोकगीतों में गहरी दिलचस्पी है.

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