Featured

इस ख़राबे में कोई मर्द कहां – फ़हमीदा रियाज़ को श्रद्धांजलि

कब तक मुझ से प्यार करोगे?
कब तक?
जब तक मेरे रहम से बच्चे की तख़्लीक़ का ख़ून बहेगा
जब तक मेरा रंग है ताज़ा
जब तक मेरा अंग तना है
पर इस के आगे भी तो कुछ है
वो सब क्या है
किसे पता है
वहीं की एक मुसाफ़िर मैं भी
अनजाने का शौक़ बड़ा है
पर तुम मेरे साथ न होगे तब तक

यह नज़्म फ़हमीदा रियाज़ की है. अपनी तुर्श-ज़बान शायरी के लिए उन्हें सरहद के दोनों तरफ़ बराबर इज्ज़त हासिल हुई. उनकी कविता मजलूमों की कविता थी. उनकी कविता आज के समय की सचेत स्त्री की कविता थी. उनकी कविता के तीखे राजनैतिक तेवर सत्ता को डराते थे जिसके लिए एक दफा उन्हें बाकायदा देशनिकाला दिया गया. भारत की राजनैतिक-सामाजिक स्थिति को लेकर लिखी गयी उनकी एक हालिया नज़्म ‘तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले’ को देश भर में खूब पढ़ा और सराहा गया. हमारे यहां का शायद ही कोई ऐसा अखबार होगा जिसने उसे नहीं छापा. नज़्म इस तरह शुरू होती है –

तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुंची द्वार तुम्‍हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई.

इसमें वे आगे हमारे वर्तमान राजनैतिक और धार्मिक उन्माद पर गहरे व्यंग्य करती हैं और आखिरी दुआसलाम के तौर पर कहती हैं –

हम तो हैं पहले से वहां पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहां से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना.

फ़हमीदा रियाज़ 28 जुलाई 1946 को उत्तर प्रदेश के मेरठ में पैदा हुई थीं. उनके वालिद रियाज़ुद्दीन अहमद शिक्षाविद थे जिनके असमय देहावसान के समय फ़हमीदा कुल चार बरस की थीं. मां की निगरानी में हुई उनकी शिक्षा ने उन्हें उर्दू, सिंधी और फारसी भाषाओं का विशेष ज्ञान अर्जित करवाया. बाद में वे पाकिस्तान रेडियो और बीबीसी से जुड़ी रहीं. उन्होंने इंग्लैण्ड से फिल्म निर्माण में डिग्री भी हासिल की थी. उर्दू साहित्य में उनका बड़ा योगदान रहा है. उन्होंने कविता, कहानी और राजनैतिक-सामाजिक लेखों के अलावा अनेक अनुवाद भी किये. मौलाना जलालुद्दीन रूमी की मसनवी के फारसी से उर्दू में किये गए पहले अनुवाद का श्रेय भी उन्हें ही जाता है. उनकी पहली कविता को अहमद नदीम कासमी ने अपनी पत्रिका में तब जगह दी थी जब वे फकत पंद्रह साल की थीं. उनकी तमाम रचनाएं तमाम तरह के विवादों में रहीं – कभी अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता के चलते, कभी ज़रूरत से ज्यादा बोल्ड होने की वजह से. उन्हें भान था कि उनका सीधा मुकाबला एक कट्टर मर्दवादी समाज से हो रहा था जिससे वे यूं रूबरू हुईं:

किससे अब आरजू-ए-वस्ल करें
इस खराबे में कोई मर्द कहां

आज से तेरह-चौदह साल पहले ‘द हिन्दू’ को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था: “मैंने अपने आप को कभी भी विद्रोही नहीं माना. मैं अलग तरह की मानसिक बुनावट वाली कवि-लेखिका थी. आप उस बारे में लिखते हैं जिसके लिए आपके पास जोरदार भावनाएं होती हैं. मेरे मन में आज भी अनेक चीजों को लेकर ऐसी भावनाएं हैं. लेकिन समय बीतने के साथ-साथ आप पुराने विचारों के भीतर छुपे दूसरे आयामों को खोजने लगते हैं. तब आपकी निश्चितता में थोड़ा कम अड़ियलपन होता है. मिसाल के लिए आप धर्म का मामला लीजिये. मैं समझती थी की यह एक मानवीय आविष्कार था. लेकिन अब मैं सोचने लगी हूँ कि शायद वह एक खोज थी.”

उनकी भाषा में ठेठ देसज मुहावरों के अलावा संस्कृत और हिन्दी की ऐसी दिलफरेब आवाजाही होती थी कि वहां मेघदूत और पांडवों के लिए भी जगह निकल आती थी तो कबीर और राम के लिए भी.

इश्क और इश्क में शिकस्त होती आई स्त्री उनकी शायरी के एक बड़े हिस्से पर काबिज़ है. प्रेम को लेकर औरत और आदमी की भावनाओं के बीच के मूलभूत अंतर को उघाड़ कर रख देने वाला फ़हमीदा का एक शेर मुझे बेतरह पसंद है:

मैं जब फ़िराक़ की रातों में उस के साथ रही
वो फिर विसाल के लम्हों में क्यूँ अकेला था

कल बहत्तर साल की आयु में फ़हमीदा का इंतकाल हो गया. उनका जाना भारतीय उपमहाद्वीप की एक बड़ी सांस्कृतिक क्षति है. ऐसी मज़बूत और हिम्मती कवयित्रियाँ बार-बार पैदा नहीं होतीं.

अलविदा फ़हमीदा रियाज़!

-अशोक पाण्डे

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

3 hours ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

6 days ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

1 week ago

इस बार दो दिन मनाएं दीपावली

शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…

1 week ago

गुम : रजनीश की कविता

तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…

1 week ago

मैं जहां-जहां चलूंगा तेरा साया साथ होगा

चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…

2 weeks ago