पहली मिलम यात्रा के शुरूआती दो दिनों में मुझे और कमल दा को एक चीज का पक्का पता चल गया था कि हमारे साथी फ़कीर दा हमको बच्चा समझ कर हमारा भौत चूरन काट रहे थे. चूँकि हम सकल सूरत और जेब से कत्तई संभ्रांत शैलानियों और हाईकर जैसे नहीं थे इसलिए हमारे साथ ऐसा बर्ताव हमको खल रहा था. Travelogue by Vinod Upreti
अपने साथ पोर्टर ले जाना भी हमारी मजबूरी थी क्योंकि हमने अपने साथ गोरी घाटी के टेरिडोफाईट के हर्बेरियम भी लाने थे जो खासे भारी हो सकते थे. हमारा अपना सामान जिसमें एक काम चलाऊ स्लीपिंग बैग और कुछ पुराने कपड़े थे हम खुद ही उठाये हुए थे. दो दिन तक हमको रास्ते की भयानकता के बारे में डराने की अनेक असफल कोशिश करने के बाद उनका बोलने का लहजा हमारे लिए बहुत अजीब लग रहा था. बहुत चिड़ा हुआ और जबरिया रौब गांठने वाला.
खैर दूसरे दिन अँधेरा होने पर हम रिलकोट पंहुचे. यहाँ पर कोई गाँव नहीं. बस दो तीन घर हैं जो मुसाफिरों के लिए लौज की तरह काम आते हैं. लेकिन उस दिन जब हम पहुंचे रिलकोट में अच्छी खासी भीड़ थी. इतनी कि हमें ठहराने के लिए उन्होंने साफ़ मना कर दिया. असल में उनके पास जगह बची ही नहीं थी. दाल भात खिलाने की गारंटी जरूर हमें मिल गयी थी.
हमारे पास न तो टेंट था न रबर की मैट्रस. साथ में हम पर भौकाल जमाने की पूरी कोशिश में फ़कीर भाई साहब. रास्ते में हमें एक आलीशान इंटरनेशनल दमची लेनिन और उसके साथ उसका पोर्टर कुंवर भी मिल गया था जो पहले दिन से हमारे साथ चल रहे थे. इत्तेफाक से फ़कीर और कुंवर भाई आपस में साढू थे. उनकी अच्छी जुगल बंदी चल पड़ी. Travelogue by Vinod Upreti
आयरलैंड में अंग्रेजी का अध्यापक लेलिन एकदम मस्त और खुशमिजाज व्यक्ति था. इससे पहले वह पिंडारी से आ रहा था तो उसे कहीं कैमरे की रोल की दो डिबिया भर के चरस मिल गयी थी. अपनी आयरिश पाइप में वह आधी सिगरेट का तम्बाकू और अच्छी खासी मात्र में चरस भरता और हर आधे- पौना घंटे में दम मारता.
कमल दा, फ़कीर दा, लेलिन, कुंवर और मैं पञ्च लोग आज रिलकोट में बेघर हो गए. रिलकोट वह जगह है जहाँ से ऊपर गोरी नदी की संकरी घाटी और खड़ा ढाल कम होता है. यहाँ पर एक बड़े से भूस्खलन ने गोरी का रास्ता रोककर एक अच्छी खासी झील बना दी है. रिलकोट के बाद बहुत शानदार ढलानों वाले बुग्याल शुरू होते हैं. खैर जब हम पंहुचे तो अँधेरे में अधिक कुछ देख नहीं पाए.
होटल वाले ने कह तो दिया हमें कि बेटे निकल्लो भात खाके, पर जाएँ तो जाएँ कहाँ? बहुत अजीब स्थिति हो गयी. आई टी बी पी की शरण में गए तो उन्होंने भी विनम्रता से मना कर दिया क्योंकि वहां भी एलआरपी आई थी. उनकी ओर से यही हो सका कि एक डब्बा कंडेंस मिल्क का उन्होंने हमें दिया. खैर अब क्या हो इसी उधेड़बुन में हम अटके थे कि कुंवर भाई खुश होते हुए आते दिखे. बोले यहाँ पर एक छोटा सा धर्मशाला है जहाँ पर अण्वाल लोग डेरा करते हैं. जरा चलकर देखें क्या पता रात बिताने लायक हो. हम दौड़ पड़े उस तरफ.
रास्ते के ऊपर तप्पड़ की ढाल में छुपा सा बहुत छोटा सा पत्थर का एक ढेर सा लगा. टॉर्च मारी तो समझ में आया कि सचमुच एक धर्मशाला है. मुश्किल से तीन-साढ़े तीन फिट ऊंचे दो दरवाजे दिखे. झुककर अन्दर झाँका तो राहत मिली. सात फिट लम्बे चौड़े दो कमरे थे. दो-एक दिन पहले ही यहाँ कोई अण्वाल टिका होगा. सूखी पराल बिछी थी और कीचड़ या सीलन नहीं दिख रही थी. हमारे लिए रात बिताने को यह काफी था. अन्दर गए तो बिलकुल भी हवा नहीं चल रही थी और ख़ास ठण्ड भी नहीं लग रही थी. तय हुआ कि भात खाकर आते हैं फिर यहीं सो जायेंगे.
भात खाकर लौटे तो तय हुआ कि धूम्रपान करने वाले लेलिन, कुंवर और फ़कीर एक कमरे में सोयेंगे और आधी रात तक बकैती करने वाले हम दो लोग दूसरे कमरे में सोयेंगे. हम अपने कमरे में घुसे ही थे कि बगल के कमरे से फ़कीर की जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज ने हवा खराब कर दी. भाग कर बगल में पंहुचे तो फ़कीर जमीन में सर दबाये चीख रहा था कि ये मेरी आँख निकाल लेगा, मेरा खून पी जायेगा, मैं यहाँ नहीं सोऊंगा… हमारी समझ में कुछ आता उससे पहले कुंवर भी यही चिल्लाकर बाहर को भागा. Travelogue by Vinod Upreti
लेनिन तो इस धर्मशाला के बाहर कुछ दूरी पर अत्तर की फूंक मार रहा था. फ़कीर से पूछा कि दाज्यू माजरा क्या है बताओ? तो उसने छत में लटके एक चमगादड़ की और इशारा किया और यहाँ सोने से मना कर दिया. हम दोनों को हंसी भी आई और गुस्सा भी लेकिन चमगादड़ पर टॉर्च डाली और उसे पकड़ कर बाहर फैंक आये. वापस आये तो फ़कीर आँखे फाड़े हमें देख रहा था. चेहरे पर कृतज्ञता का भाव तो कम था लेकिन चमत्कार देख लेने का भाव अधिक. बस लगभग चीखते हुए बोला कि आप जादूगर हो, आपने चुड़ैल को पकड़ लिया. यह तो आँख निकाल खाता है.
खैर आधे घंटे के ड्रामा के बाद हम अपने अपने तय कमरों में दुबक गए. सुबह हम उठे फ़कीर की आवाज के साथ. लगभग सौ कदम दूर होटल से वह हमारे लिए चाय ले आये थे. बहुत इज्जत और प्रेम से उन्होंने हमें चाय के लिए उठाया.
और वह धर्मशाला, वह क्या था? दानवीर जसुली देवी दंताल का नाम सुना है?
चित्र का कहानी से ख़ास लेना देना नहीं, जसुली लला भी ऎसी ही मयाली होती होगी न…
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पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
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विनोद उप्रेती जी का लिखा धर्मशाला गलत व भ्रामक है जशुली जी धारचुला की सेठानी थी उन्होने कभी भी जोहार घाटी में धर्मशाला नही बनाई है कृपया अपनी GK और बढाना चाहे,अन्य अच्छा लिखा गया है