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टिकटशुदा रुक्का : जातीय विभेद पर टिके उत्तराखंडी समाज का पाखण्ड

टिकटशुदा रुक्का : जातीय विभेद पर टिके उत्तराखंडी समाज का पाखण्ड
-चन्द्रकला

‘नवारुण’ से प्रकाशित नवीन जोशी के नवीनतम उपन्यास ‘टिकटशुदा रुक्का’ को पढ़ते हुए उनके पहले उपन्यास ‘दावानल’ की तस्वीर आंखों में सजीव होने लगी. 2006 में लिखा गया यह उपन्यास एक सवर्ण नायक के माध्यम से उत्तराखण्ड में 1970-80 के दशक में चले ‘चिपको आन्दोलन’ की तथ्यात्मक प्रस्तुति है. पलायन, स्वास्थ्य, शिक्षा और जल-जंगल-जमीन के साथ ही शराबबन्दी को पूरी तरह लागू किए जाने की ललक के साथ आन्दोलनरत पूरी एक पीढ़ी के युवाओं की तड़प को दर्शाया गया था इस उपन्यास में. अब पूरे चौदह वर्ष बाद 2020 में आया लेखक का नया उपन्यास ‘टिकटशुदा रुक्का’ न केवल अधिक तीखे स्वर में पहाड़ी समाज की जातीय समस्या को आवाज देता प्रतीत होता है बल्कि अधिक परिपक्वता और गहरी संवेदनशीलता के साथ समाज में मौजूद अन्य समस्याओं को भी उजागर करने का प्रयास है यह उपन्यास ‘टिकटशुदा रुक्का.’ (Book review Chandrakala)

लेखक ने उपन्यास के नायक दीवान राम के रूप में पहाड़ के उस उच्च शिक्षा प्राप्त दलित युवा की तस्वीर पाठकों के समक्ष पेश की है जो कि शहरों में सवर्णां के मध्य पहुंचकर भले ही बराबरी का जीवन जीने की चाह रखता हो लेकिन लेकिन गांव में आकर वह शिल्पकार अर्थात अछूत माना जाता. इसके साथ ही यह नायक उन युवाओं का प्रतिनिधित्व करता हुआ भी प्रतीत होता है जो कार्पोरेट जगत की चुनौतियों के जाल में उलझकर अपने ही वजूद को खो देते हैं.

उपन्यास का कथानक 1980-90 के दशक की राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों के साथ ही उत्तराखण्ड के पहाड़ी समाज की जातीय संरचना की सच्चाईयों से रूबरू कराता हुआ आगे बढ़ता है और इस समाज में सवर्णों द्वारा शिल्पकारों के साथ किये जाने वाला सूक्ष्म अपमान व उत्पीड़न पुस्तक का महत्वपूर्ण पहलू है, जो पाठ की गति के साथ ही तीव्र होता चला जाता है.

कार्पोरेट यानि कम्पनियों का जाल जहां पर बेहतर पैकेज की चाहत में युवा अपने नये-नये आइडियाज के आधार पर शीर्ष पर पहुंचने की दौड़ में, क्या-क्या पीछे छोड़ते चले जाते हैं, इसका भान होने तक बहुत देर हो चुकी होती है. दीवान राम भी अपने नई-नई इनोवेशन प्रतिभा के बल पर शीर्ष पर पहुंच तो जाता है किन्तु एक समय बाद उसके आइडिया खतम होने लगते हैं.  और ‘लीक प्रूफ एडल्ट डाइपर’ बनाने के अपने विचार को वास्तविकता में सिद्ध करने के दौरान ही नायक का अंतर्द्वंद चरम पर पहुंच जाता है.

वास्तव में द्वन्द ही इस उपन्यास की आत्मा मालूम होती है. पहाड़ की प्रसिद्ध कहानी ‘चल तुमड़ी बाटै-बाट, मैं कै जानू बुढ़िये बात’ को याद करता हुआ वह स्वयं को कम्पनी के जाल में घिरा हुआ पाता है. कम्पनी के अतिरिक्त दबाव को पहाड़ का यह दलित चेतनशील युवा झेल नहीं पाता है और होश खो बैठता है. कम्पनी के कारीन्दे दीवान को महंगे व सुविधायुक्त अस्तपताल में योग्य डाक्टरों की देखरेख में जल्द से जल्द होश दिलाने के प्रयास करते हैं ताकि उसके आईडिया को हासिल किया जा सके. ‘‘…डाक्टर साहब हमारी मल्टीनेशनल प्रॉडक्ट कम्पनी है और मिस्टर दीवान हमारे इनोवेटिव हेड हैं… उनकी इस बीमारी से कम्पनी मुश्किल में आ गई है कुछ कीजिए प्लीज…’’ उधर बेहोशी की अवस्था में नायक का दिमाग उसके अतीत को जीवन्त करता वर्तमान की ओर बढ़ रहा है ‘‘…तो बच्चो जोर-जोर से पूछो, इस सृष्टि का पहला मनुष्य कौन था…किस जाति का था, किस धर्म का…,’’ लोक गाथाएं सिर्फ मनोरंजन नहीं होते उनमें संदेश छुपे होते हैं जन से जुड़े, वह इस उपन्यास में बखूबी समझ आता है.

नायक की बहन गोपुली जिसने उसको मां की तरह पाला, पहाड़ की उन तमाम बहनों का प्रतिनिधित्व करती है जो अपना बचपन छोटे भाई-बहनों की देखभाल में गुजार देती हैं और थोड़ी बड़ी होने पर ब्याह दी जाती हैं. यह चलन पहाड़ के जीवन में आज भी दिखता है, बेटी के ब्याह होते ही परिवार में बहू की जरूरत पड़ जाती है. दोनों लड़कियां ब्याह के दूसरे दिन से ही जिम्मेदार औरतें बन जाती हैं और उनकी यह जिम्मेदारी मरने के बाद ही खतम होती है. ‘‘…तुम मर गई… तुम अपनी पहली सन्तान को जन्म देने वाली थी… तुम्हें अस्पताल में प्रशिक्षित डाक्टर और नर्स की देखभाल में होना चाहिए था….तुम मां बनने के सबसे पवित्र काम  में… मर गई और मैं महिलाओं को सुन्दर बनाने की क्रीम बेच रहा हूँ… मैं एडल्ट डाइपर बनाने में लगा हूँ… तुमने मुझे किसलिए पढ़ाने भेजा…“ यहां पर नायक का द्वन्द जीवन की परेशानियों के बरक्स बाजार की वास्तविकता को उघाड़कर पाठक को सोच में डाल देता है.

सुन्दर सिंह मास्साब जैसे अपवाद रहे हैं पहाड़ों में, जो कि दलित बच्चे को मेहनत से पढ़ाते हैं और पढ़ने वालों का सम्मान करके, शिक्षक का कर्तव्य पूरा करते हैं. लेकिन इसके विपरीत लोहनी मास्टर जैसे ब्राह्मणवादी  मानसिकता वाले भी पर्याप्त होते हैं जिनकी सवर्ण बच्चों को शह मिलती है और वे दलित बच्चों के राह के अवरोध होते हैं. ‘‘ह से हल… ल से लात खायेगा, हल चलायेगा…’’. लेखक ने इस पूरे प्रकरण को जिस बेबाकी से उकेरा है, वह सच्चाई को सामने ला खड़ा करना है. आज भी पहाड़ ही नहीं पूरे देश में सवर्णो की बराबरी करने वाले दलित की मनःस्थिति को समझना आसान नहीं है, उस पर भी यदि कोई दलित वर्गीय सोपान के निचले पायदान पर हो तो उसकी शारीरिक व मानसिक स्थिति अधिक भयावह होती है. क्योंकि हमारे समाज की परवरिश हमारे व्यवहार में परिलक्षित होती है. लेखक पहाड़ के सवर्ण समाज के बीच मौजूद विभेद को पर कटाक्ष करने से नहीं चूके हैं, ‘पितली बामण’ शब्द की व्याख्या अभी भी पहाड़ में मौजूद है और जब ब्राह्मणों में भी गैरबराबरी है तो पूरे समाज का क्या स्वरूप होगा यह उपन्यास का एक और महत्वपूर्ण पक्ष है.

दीवान राम के भीतर चल रहे द्वन्द के माध्यम से लेखक पलायन की स्थिति को भी काफी हद तक सामने ला पाये हैं, वो लोग, जो पहाड़ से उतरकर शहरों में उच्च शिक्षा या नौकरी के लिए एक बार निकले तो फिर वापिस नहीं लौटे. कठिन परिस्थितियों में ही सही शहर में रहने का ख्वाब सजाते रहे और उसको पूरा भी करते रहे. ‘‘…सुन्दर सिंह मास्साब आप मुझे माफ मत करना… आपने कहा था, दीवान शहर जाओ, खूब पढ़ो और काबिल बनो…. मैंने आपको धोखा दिया… मास्साब आपसे माफी भी नहीं मांग सकता… सम्भवतः मास्साब अपने बच्चों को तो गांव में नहीं रोक पाये शायद दीवान से उनको कुछ उम्मीद रही हो.

देवराज, सुरेश और दीवान के मध्य होने वाले वाद-विवाद में, तत्कालीन समय में बामसेफ व कांशीराम के आन्दोलन से दलित चेतना के उभार को तो सामने लाया ही गया है साथ ही पहाड़ में सवर्ण व दलित के मध्य मौजूद उत्पादन सम्बन्धों को भी उजागर करने का प्रयास किया गया है. प्रेमचन्द्र के उपन्यास ‘गोदान’ के माध्यम से पहाड़ व मैदान में दलित शोषण के रूपों की भिन्नता को सहज शब्दों में जिस तरह व्यक्त किया गया है, वह निश्चित ही लेखक की राजनीतिक चेतना का परिचायक है. ‘‘…दसेक परिवारों से हमारा करार ठहरा… कभी एक दो माणा अनाज… मजूरी दे देते हैं या उसके बराबर अनाज… दीवान बदरंग व गल चुके करार के कागजों को मकान की बल्लियों से निकाल कर जब पढ़ने लगता है तो उसे समझ आने लगता है, वह तन्त्र जिसमें कोई भी दलित अपनी पूरी जिन्दगी सवर्णों की चाकरी में लगा देता है और उस तन्त्र से बाहर निकलने के सारे रास्ते बन्द कर चुका होता है…’’ ‘‘…दौलत राम पुत्र झूसराम ग्राम गौला… कांतिबल्लभ तिवाड़ी… जी से काम जरूरी के वास्ते रुपये सौ कर्ज लिए. इन रुपयों के सूद के बदले हल-दन्याले का काम कर दूँगा… सनद के लिए टिकटशुदा रुक्का तुमको लिख दिया… रुक्के की नकल रख ली… तारीख 22.03.1965…’’

दीवान को यह सब पढ़कर समझ आता है कि जीवन से जुड़े सभी कार्य शिल्पकारों द्वारा किये जाते हैं किन्तु तो भी उन्हें अछूत माना जाता है, उनके छूने पर सवर्ण अपने ऊपर गाय की पेशाब डालकर शुद्ध होते हैं ऐसे ही न जाने कितने सवाल उसके दिमाग में उठने लगते हैं. ‘‘…वैसे तो बीठों (सवर्णों) को हमारा ऋणी होना चाहिए हम शिल्पकारों के बिना इनका काम नहीं चलता… इनके हल-बैल हमने जोतने हुए… खूबसूरत नक्काशी का हुनर हम शिल्पकारों के पास ठहरा… ढोल, नगाड़े, तुरही… उनके रखवाले हम शिल्पकार हैं… इनके देवता भी शिल्पकारों के बिना अवतरित नहीं होते… ढोल… तभी मंदिर की परिक्रमा होगी… कैसे हो गया अछूत… आखिर क्यूं? लेखक की ये पक्तियां अन्दर तक चुभती मालूम पड़ती हैं और बताती हैं कि भारतीय समाज व्यवस्था में मौजूद जातीय संरचना किस तरह से किसी भी व्यक्ति के जीवन को तय करती है.

दीवान की पत्नी शिवानी के पिता सभ्रान्त वकील कालीचरण का चित्रण करते हुए लेखक बारीकी से उस व्यक्ति का चेहरा भी सामने लाये हैं जो गरीब परिवार की बेबसी जूझता हुआ लखनऊ शहर में उच्च वर्गीय सोपान पर पहुंचने के बावजूद भी अपनी जातीय पहचान को नहीं मिटा पाता और जब दीवान जैसा सजातीय युवक उसके समक्ष आता है तो उसमें कालीचरण को अपनी बेटी का बेहतर भविष्य दिखने लगता है. और वह अपनी हैसियत के अनुरूप दीवान को ढालने के भी प्रयास वह करता रहता है. जिसका प्रतिकार करने की हिम्मत एक पहाड़ी दलित परिवार के लड़के में नहीं होती और वह उसी अनुरूप ढलने लगता है. लेकिन उसके अन्तर्मन का द्वन्द हमेशा मौजूद रहता है.

बहुराष्ट्रीय कम्पनियां यानि कार्पोरेट, रोजमर्रा के उपयोगी अथवा अनुपयोगी वस्तुओं को अधिक से अधिक आम उपभोक्ता तक पहुंचाते हैं और इसके लिए बेरोजगार, वह भी ‘योग्य’, नये आइडिया देने वाला युवा ही उनका निशान होते हैं. बढ़ती बेरोजगारी के बीच किसी भी तरह से रोजगार पा लेने की प्रतिर्स्पद्धा अन्ततः युवाओं को आसानी से इनकी गिरफ्त में ले आती हैं. कम्पनियों का मुनाफा बढ़ाने वाले ये ऊर्जावान जब क्षीण होने लगते हैं और इनके आईडियाज़ पुराने होने लगते हैं तो छंटनी इन्हें रास्ते पर ला खड़ा करती है. नायक दीवान भी ऐसा ही युवा है जो अपने अभावों के दौरान उपजे नये-नये आईडियाज के दम पर कम्पनी के शीर्ष पर पहुंचकर बैस्ट इनोवैटिव पर्सन बन जाता है. ‘‘…बचपन में दांत साफ करने के लिए बाबू के हुक्के की जली तम्बाकू इस्तेमाल करता था… अखरोट की टहनी चबाकर भी… पहली बार टूथब्रश व पेस्ट खरीदा… मटर के दाने के बराबर… खतम होता तो टयूब को मसलकर… काम चल जाता था…’’ जिस देश की अधिकांश आबादी बुनियादी जरूरतों से महरूम हो, वहां पर बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मुनाफे की खातिर युवाओं की पीढ़ियों को चन्द पैसों व सुविधाओं की खातिर मशीन बना दिया जाता हैं. ‘लीकप्रूफ़ एडल्ट डाइपर’ बनाने के आइडिया को प्रस्तुत करने के दौरान होने वाला नायक का तीखा अन्तर्द्वन्द मौजूद व्यवस्था पर ही एक कमैन्ट है. उपन्यास में इस विषय को जिस दृष्टि से व्याख्यायित किया गया है, वह किसी समाज विज्ञानी के लिए ही सम्भव है जो कि समाज की हर परिघटना पर पैनी नजर रखता हो.

अन्ततः नायक के द्वन्द की परिणति, उसका कम्पनी से इस्तीफ़ा देना और वर्षों से लिखी अपनी डायरी को पत्नी शिवानी के समक्ष खोल देने का साहस सकारात्मकता का द्योतक है. कुछ खो जाने का डर और गरीबी की कुंठा को नायक अपने भीतर छुपाये अकेले झेलता रहता है, किन्तु शिवानी के समक्ष सच्चाई उजागर होने पर वह सहजता से उसकी परेशानियों को समझती है. और उसके द्वन्द को सही दिशा देने में मदद करती है ‘‘…गले में सोने की चेन और उसमें लटकते पैंडल के साथ चांदी की वह मोटी, मैली हंसुली अजब विरोधाभास पैदा कर रही थी, तो भी दीवान को बहुत फब्ती हुई मालूम पड़ रही थी…’’ तमाम अवरोधों को किनारे करते हुए दृढ़ता से सपरिवार वापस पहाड़ जाने का फैसला आदर्शवादी होने के बावजूद एक उम्मीद का रास्ता दिखाता है, उस युवा पीढ़ी को जो पहाड़ को छोड़कर शहरों के जीवन के आदी हो चुके हैं. शैलेश मटियानी की एक अमर कहानी

सम्पूर्ण उपन्यास में, एक ही बैठक में पढ़ लिये जाने की रोचकता व संवेदनशीलता आरम्भ से अन्त तक मौजूद रहती है. हमारे समाज के जातीय सोपान व उससे उत्पन्न हीनताबोध को जिस बारीकी से लेखक ने प्रस्तुत किया है वह किसी अनुभवी कलम व पहाडी समाज में मौजूद अन्तरविरोधों को भीतर तक समझने वाले के लिए ही सम्भव हो सकता है.

समालोचनात्मक नजरिये से देखें तो जितने सिलसिलेवार सम्पूर्ण ब्यौरे को उपन्यास में ऊंचाइयों तक पंहुचाया गया, वह अन्त में जाते-जाते जल्दबाजी में खतम हुआ मालूम पड़ता है. उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों की उपस्थिति महज प्रतीकात्मक ही दिखती है, यदि कुछ आगे बढ़कर पहाड़ की वर्तमान तस्वीर पर भी कटाक्ष किया जाता तो सम्भवतः कुछ और प्रश्न सम्मुख होते. शिवानी कुंठा रहित एक स्त्री के रूप में तो बेहतरीन है और नायक के निर्णय के साथ खड़ी हुई दिखाना भी ठीक है, किन्तु अन्य महिला पात्रों की अपेक्षा यह कमजोर और पिछलग्गू दिखती है. यदि अन्त में नायक के वापस पहाड़ जाने के फैसले के दौरान दोनों के मध्य संवाद दिखाया जाता तो उपन्यास की यह कमी दूर हो पाती. वापस पहाड़ जाने के बाद दोनों के समक्ष जो समस्याएं आईं और उनका सामना कैसे किया गया यदि कम शब्दों में ही सही, दिखाने का प्रयास किया जाता तो युवाओं को प्रेरित करती.

यह पाठक का नजरिया है. बावजूद इन नामालूम कमियों के जातीय विभेद पर टिके उत्तरखण्डी समाज के पाखण्ड को तार-तार करने वाले इस उपन्यास को हम तक पहुंचाने के लिए लेखक नवीन जोशी जी को सलाम!

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन करने वाली चन्द्रकला उत्तराखंड के विभिन्न आन्दोलनों में भी सक्रिय हैं.
संपर्क : chandra.dehradun@gmail.com +91-7830491584

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Sudhir Kumar

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