छानपुर और जोहार घाटी के मध्य लगभग 18000 फिट ऊॅंचे गिरिपथ को पार कर तिब्बत व्यापार हेतु सुगम मार्ग खोज निकालने के उद्देश्य से दानपुर क्षेत्र के सूपी ग्राम निवासी मलूक सिंह का प्रयास सन् 1830 में तब सफल हुआ, जब कुमाऊॅं कमिश्नर जार्ज विलियम ट्रेल ने मलूक सिंह की सहायता से नन्दा देवी और नन्दा कोट उच्च हिम शिखरों के मध्य एक गिरिपथ को पार करने में सफलता प्राप्त की. तब से इस गिरिपथ का नाम ट्रेल पास पड़ा. जी.वी. ट्रेल ने पिण्डारी गलेशियर के दायीं ओर घास वाली ढलान पर तीन फुट चौड़ा एक ट्रेक रूट भी बनवाया था.
सन् 1855 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सहयोग से प्रशिया के स्लाघइटवाइट बन्धु चुम्बकीय सर्वेक्षण हेतु हिमालयी क्षेत्र में भ्रमण कर रहे थे. दल का एक सदस्य एडोल्फ पिण्डर घाटी से 18550 फिट ऊॅंचे ट्रेल पास पार कर 4 जून 1856 को मिलम पहुंचा था, जबकि राबर्ट सहित दल के अन्य सभी सदस्य मनुस्यारी होते हुए 21 मई को ही मिलम पहुंचे थे. एडोल्फ के पश्चात इस अभियान पर आने वाले पर्वतरोहियों ने पिण्डारी हिमनद के दायीं और 14180 फिट की ऊॅचाई पर जिसि गुफा में एडोल्फ ने रात्रि विश्राम किया था, स्लाघइटवाइट केभ और वर्तमान तख्ता कैम्प के ठीक ऊपर जहां नन्दा खाट से आने वाली पर्वत श्रेणी समाप्त होती है, उसे स्लाघइटवाइट कोल नाम दिया था, परन्तु वर्तमान समय में ग्लेश्यिर के इस भाग में बहुत ही अधिक लम्बे – चौड़े दरार पड़ने से पार कर पाना सम्भव नहीं है.
सितम्बर 1861 में कर्नल एडमण्ड स्मिथ, जो कि उस समय कैप्टन के पद पर नियुक्त था, मलूक सिंह के पुत्र दरवान सिंह के साथ पिण्डर घाटी से ट्रेल पास पार कर मरतोली पहुंचने में सफल हुआ था. इसके पश्चात् 1883 में टी.एन.कैनौडी ने भी ट्रेल पास पार करने का असफल प्रयास किया. सन् 1893 में जर्मन यात्री डॉ. कुर्ट बुच को भी इस गिरिपथ को पार करने में सफलता मिली थी. ये सभी यात्री पश्चिम में पिण्डारी से अभियान प्रारम्भ कर जोहार घाटी पहुंचे थे.
मई 1926 में डिप्टी कमिश्नर ह्य रटलेज पिण्डारी से ट्रेल पास पार कर मरतोली और रालमधूरा पार कर दारमा पहुंचना चाहता था परन्तु उस वर्ष भारी हिमपात के कारण उन्हें ट्रेल पास का अभियान स्थगित करना पड़ा और वे 13 जून को गोरी नदी घाटी से मरतोली पहुंचे. जहां से पूर्व में 15566 फिट ऊॅंचे ब्रिगिगाङ धूरा पार कर रालम और 16230 फिट उंचे सिपाल धूरा पार कर दारमा तथा 18030 फिट ऊॅचे सिनल्हा पार कर व्यास से लीपू लेक होते हुए 10 जुलाई को तकलाकोट पहुंचे. चार सप्ताह तक तिब्बत भ्रमण करने के पश्चात् ऊॅटाधूरा पार कर रटलेज का दल 8 अगस्त को पुनः मरतोली पहॅुंचा. वे नन्दाकोट उत्तर-पश्चिम की ओर से ल्वॉं ग्लेशियर को पार कर 11 अगस्त को 18700 फिट ऊॅंचे ट्रेल पास को पार करने में सफल हो गये. ह्य रटलेज के साथ इनकी श्रीमती रटलेज और बिग्रेडियर आर.सी. विलसन भी थे. श्रीमती रटलेज इस उच्च गिरिपथ को पार करने वाली प्रथम महिला थी. उत्तर-पूर्व से इस गिरिपथ को पार करने वालों का यह प्रथम अभियान दल था. इनका मार्गदर्शन मरतोली निवासी दीवान सिंह ने किया था.
अगस्त 1936 में स्विस पर्वतारोही गैन्सर ने जोहार घाटी के मरतोली गॉव से प्रवेश कर ट्रेल पास पार किया था. उनके पास केवल दो नेपाली कुली थे, जबकि सामान अधिक होने के कारण उन्हें मरतोली से तीन अन्य कुलियों की व्यवस्था करनी पड़ी. मार्ग दर्शक के रूप में दीवान सिंह मरतोलिया भी साथ था. 27 अगस्त को इन्होंने 18400 फिट ऊॅंचे गिरिपथ को पार किया. 1936 में ही ओलम्पिक स्कीरनर टाकेवीसी के नेतृत्व में होटा, यामागाटा, योसा और हमानो पांच जापानी युवकों ने रिको यूनीवर्सिटी माउन्टेनियरिंग क्लब की ओर से इस गिरिपथ को पार करने में सफलता प्राप्त की. लगभग चालीस दिन तक नन्दा देवी और नन्दाकोट के मध्य उच्च हिमानी क्षेत्रों का अध्ययन करने के पश्चात 5 अक्टूबर को ट्रेल पास पार कर वे पिण्डारी पहुंचे थे. इनका मार्ग दर्शन भी दीवान सिंह ने किया.
सितम्बर 1941 में एस.एस. खैरा, जोहार के दीवान सिंह और कपकोट के महेन्द्र पाल को साथ लेकर पिण्डर घाटी से ट्रेल पास को पार कर केवल 13 दिन में वापस कपकोट पहुंचा था. पिण्डारी ग्लेशियर के हिमनद को दायीं और से पार कर मोरेन होते हुए इन्हेंने नन्दाकोट के पदतल पर 14000 फुट से पुनः ग्लेशियर पार किया और लगभग 17000 फुट ऊॅचे एक टीले को पार कर बर्फ के मैदान में पहुंचे. जहॉं से उत्तर-पूर्व की आरे बढ़ते हुए च्यॉंगुज के पर्वत बाहु पर स्थित ट्रेल पास के 19000 फुट ऊॅंचे टीले को पार का ल्वॉं घाटी पहुंचे.
इसी वर्ष जून में डिप्टी कमिश्नर धर्मवीर ने भी पिण्डारी की ओर से इस गिरि पथ को पार किया था. 1941 के पश्चात् इस गिरि पथ को पार कर पिण्डारी से जोहार घाटी और मरतोली ग्राम से पिण्डर घाटी पहुंचने के अनेक असफल प्रयास हुए. क्योंकि हजारों वर्षों से एकत्रित ग्लेशियर और उन पर पड़े असंख्य दरार और दोनों ओर के लुजरौक्स तथा ग्लेशियरी चट्टानों के लगातार टूटते रहने के कारण यह गिरिपथ जन साधारण के आवागमन के लिए अगम्य से अगम्यतर होता रहा. हां मलूक सिंह के प्रथम साहसिक प्रयास से प्रसन्न होकर जार्ज विलियम ट्रेल ने उसे मल्ला दानपुर क्षेत्र का प्रधान नियुक्त कर दिया था. जिसका लाभ उसके वंशज कई पीढ़ी तक उठाते रहे. इसी प्रकार 1926 में डिप्टी कमिश्नर ह्मू रटलेज ने भी दीवान सिंह मरतोलिया के कुशल मार्ग दर्शन से प्रभावित होकर उसे एक इटैलियन बन्दूक तथा र्यूगैर नामक स्थान में लगभग 5 एकड़ भूमि पुरूस्कार स्वरूप प्रदान की थी.
1950 में स्कोटिश हिमालया एक्सपीडीशन दल के सदस्य डब्ल्यू.एच.मूरे और टौम मैकीनन मलारी से ऊॅटाधूरा होते हुए 18 जुलाई को मिलम पहुंचे थे. मैकीनन एक कुशल माउन्टिनियर था. ट्रेल पास पार कर रानीखेत पहॅुंचने के उद्देश्य से जब वह ल्वॉं के भदेली ग्वार तक पहुंचा, अत्याधिक वर्षा के कारण चार दिन पश्चात् उसे वापस लौटना पड़ा. सन् 1970 में माउन्टिनियरिंग क्लब इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दो सदस्य ए.आर. चन्द्राकर अपने साथी सहित नन्दाकोट अभियान से वापस लौटकर जब ट्रेल पास की ओर बढ़ रहे थे, 26 मई को बर्फानी तूफान में दब कर हताहत हो गये थे. क्लब के सचिव ने खाती विश्राम गृह के लौग बुक में लिखा है कि यद्यपि उनके सदस्य पूर्ण प्रशिक्षित एवं साज-सामग्री से सुसज्जित थे, परन्तु ट्रेल पास अभियान वास्तव में एक कठिन प्रयास है और मौसम का अनुकूल होना बहुत आवश्यक है.
( जारी )
पुरवासी के सोलहवें अंक में डॉ एस. एस. पांगती का लिखा लेख ‘ ट्रेल पास अभियान ‘
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