नाग नागिन का संसार बड़े रोचक आख्यानों से भरा पड़ा है. उत्तराखंड में नागपूजा आदिकाल से ही प्रचलित मानी गई. लोक मान्यता है कि जब ब्रह्मा जी ने कुपित हो कर नागों को श्राप दिया तो नाग पुष्कर पर्वत पर गए और वहाँ उन्होंने अविरत तप किया. भोले शंकर नागों की भक्ति व समर्पण से अति प्रसन्न हुए और उनके गले का भूषण बने. शिवजी के साथ ही नाग भी पूज्य हुए. साथ ही यक्ष, वृक्ष, नदी, पर्वत, शिला, ग्रामदेवी, मातृ देवी के पूजन की परंपरा चली. प्रायः हर गांव में बड़े पेड़ के नीचे नागदेवता का स्थान रहता जिसमें उनके साथ उनका मित्र नरसिंह देवता रहता. वृक्ष के नीचे लोहे का त्रिशूल नरसिंह व दो मुखी नाग नागदेवता का प्रतीक होता साथ ही लोहे का दीपक होता जिसमें तेल के साथ सुबह शाम बत्ती जलाई जाती. धूप अगरबत्ती की जाती.
(Traditional Naag Temples Uttarakhand)

नागों का प्रभाव शिव जी की पूजा के रूप में होता रहा तो नागों का अस्तित्व नाग संस्कृति के रूप में रहा. इसे हिन्दू धर्म की पोषक रक्षक जाति की मान्यता मिली. कलियुग की बीसवीं शताब्दी में इनके कारनामे बम्बइया सिनेमा के निर्माताओं की ऐसी पसंद बने कि नागिन के चरित्र को पकड़ पटकथा लेखकों ने कई सिने व टी वी पटकथाऐं पटक डालीँ और वह सुपर डुपर हिट होती रहीं.युवा उत्साह की अभिवृद्धि के लिए बालाजी वाली एकता कपूर नागिन की पांचवी कड़ी भी ला रहीं हैं बल.

इतिहासकारों के अनुसार उत्तराखंड में दो हजार वर्ष पूर्व से नागों का वर्चस्व रहा. ऐसे वर्णन मिलते हैं कि महाभारत युग से ही नागजाति जल परिवहन, व्यापार व खनन में दक्ष सिद्ध रही. रहस्य से भरी है नाग जाति जिसके बारे में अनेक मिथ प्रचलित रहे. माना गया कि ये अपनी इच्छा के अनुसार रूप बदल सकते हैं. यह भी कहा गया कि नाग एक जाति है जिसका प्रतीक चिन्ह हुआ सर्प. नाग जाति का प्रतीक चिन्ह सर्प होने से जनमानस ने नाग व सर्प को एक समझ उनको पूज्य बना दिया .नाग का बड़ा रहस्यमय चित्रण किया गया जैसे कि वह ऊपर से मानव तो नीचे सर्प आकार के.शतपथ ब्राह्मण (11.2.7.12) में महानाग का, तो बृहदारण्यक उपनिषद (1.3.24) में सर्प का चित्रण है.इनका कभी इनका व्यवहार आम मनुष्यों सा चित्रित किया गया तो कभी इनके ऐसे ऐसे चमत्कारिक आख्यान बताये गए जिन्हें सुन भय व रोमांच के साथ चमत्कार घटने की पूरी गुंजाइश रहे. यह चाहे जैसा वैसा रूप धारण कर सकते हैं यानी इच्छाधारी और साथ ही जब चाहें वहां प्रकट हो जाएं और जब चाहे उड़न -छू हो जाएं. उनके पास आणिमादि सिद्धियां रहीं ठहरीं.

ऋग्वेद में असुर की उपासना करने वाले आर्यों को जो पर्वतीय भागों में निवास करते थे वह ‘अहि’ या असुर कहलाये. ये पर्वत या नग में निवास करते थे इस कारण इन्हें नाग कहा जाने लगा.माना जाता रहा कि एक समय सारे भारत में नागों का राज रहा. उत्तराखंड में नागवंशी राजाओं के राज्य की संज्ञा नागपुर को दी गई जिसकी राजधानी गोपेश्वर थी और जिसके नाम वहाँ के त्रिशूल में उकेरे गए हैं. आदि बद्री के समीप अनंतनाग का स्थान रहा जो नागों का राजा माना गया.यहीं धनञ्जय नाग भी रहा जो मणि धारक व स्वर्णवर्ण धारक था. इसी प्रकार अठिगांव में वांसुलि नाग, सुंदरी नाग, पुंगराऊँ में कालीनाग, बड़ाऊं में बेरीनाग, कमेड़ी में कमस्यार नाग, रामगंगा पर पिंगल नाग और मनार पर्वत पर मूलनाग का निवास रहा.

 ऋग्वेद के अनुसार पर्वतों में रहने वाले वृत्रासुर की नागवंश में सबसे पहले उत्पत्ति हुई. इसी प्रकार असुर राज शम्बर को भी अहि नाग व दानव कहा गया.. अंतरिक्ष में अहियों का नेतृत्व देवराज इंद्र करते थे.इंद्र और अहियों का निवास अंतरिक्ष अर्थात गढ़वाल के पर्वत प्रदेश में स्थित कहा गया.

पौराणिक कोष में वर्णन है कि कश्यप ऋषि की संतान जो हिमालय के राजा दक्ष की पुत्री कदरू से उत्पन्न हुई उसका ऊपरी भाग मनुष्य सा और नीचे का भाग सर्पाकार था.केदारखंड पुराण के अनुसार नाग कन्याएं पाताललोक में राजधानी भोगवती में रहतीं थीं. नागों के ऐसे भी विवरण रचे गए कि ये उभय लिंगी होते हैं अर्थात स्त्री -पुरुष का संयोग. जब स्त्री रूप में रहते हैं तो हिमालय की चोटियों में परियों के रूप में प्रकट होते हैं व जब पुरुष रूप में हों तब नागलोक में शासन करते हैं.

महाभारत के आदिपर्व में कहा गया कि गंगा नदी के उत्तरी तट पर नागों के आवास रहे. मेरु पर्वत में चहुँ ओर सर्प थे. हरिद्वार -ऋषिकेश का सम्पूर्ण क्षेत्र, गंगोत्री प्रदेश, भागीरथी व अलकनंदा के पर्वतीय इलाके इनके मुख्य निवास स्थल थे. नाग शिव जी के उपासक रहे और गुप्त काल से पहले उत्तरी भारत में हिमवंत सहित सभी इलाकों में इनका वास रहा. कनखल में नागराजा रहे. अलकनन्दा घाटी में श्रीनगर के समीप एठाणा या अहिस्थान के रूप में नागथात रही.

 नागराजा का एक नाम श्रीनागराजा होने से पंवार वंशी राजाओं की राजधानी श्रीनगर प्रसिद्ध हुआ. अलकनंदा से मन्दाकिनी के बीच का भाग नागपुर और भागीरथी घाटी का रैका -रमोली इलाका जहां सेम -मुखेम पूजे गए, नागों के मुख्य केंद्र थे. गुप्त राज्य के बाद पौरव वंश में वीरणेश्वर नाग इष्टदेवता रहे.इतिहासकारों का कहना है कि नाग पूजक नाग जाति अलक नन्दा उपत्यका में निवास करती थी. पाण्डुकेश्वर में शेषनाग, रथगांव में भेंकलनाग, तलवर में मंगलनाथ, मरगांव में वनपुर नाग, नेलंग-नीति घाटी में लोदिया नाग, नागनाथ – नागपुर में पुष्करनाग, पौड़ी में नाग देव, टिहरी सरवडियाड रवाईँ में कॉलिंग नाग, रेथल टकनौर में स्यूरियानाग, रमोली में नागराज सेम थाति -कठूड़ में महाशरनाग भदूरा में हूण नाग पूजे जाते हैं. इनमें टिहरी की रमोली पट्टी के ‘सेम के डांडा’ में सेम नागराज का प्रसिद्ध मंदिर है.

अनेक नाग गढ़ पतियों की पूजा भी होती है जिनमें सागराजा या सर्वनाग उत्तरकाशी -जौनसार व टिहरी में, टिहरी भदूरा में हूण नाग व दानपुर में वासुकी नाग मुख्य हैं. इनमें सेम – मुखेम में शेषनाग व गुप्तसेम में वासुकीनाग की पूजा प्राचीन काल से होती रही है.

नागों के राजा शेष नाग की कथा पाताल भुवनेश्वर से जुडी है. पाताल भुवनेश्वर के समीप ताम्र धातु की खदानेँ थीं जिससे शेषनाग को इष्ट मानने वाली नागजाति इन समीपवर्ती स्थलों में बसने के लिए प्रेरित हुई.कहा जाता है कि आठवीँ सदी से पूर्व शक्ति केंद्र गंगोलीहाट से आठ मील उत्तर की ओर पाताल भुवनेश्वर के समीप नाग जाति का राज्य केंद्र रहा. वहीँ गंगोलीहाट के समीप पोखरी गांव में भृगु तुंग की गुफा थी जहां नागों के राजा अनंतनाग का वास था.
(Traditional Naag Temples Uttarakhand)

पाताल भुवनेश्वर मंदिर सरयू और पूर्वी रामगंगा के मध्य में कुमाऊं के गंगोली परगने में पट्टी बड़ाऊं में पड़ता है. इसकी कथा के अनुसार सतयुग में ब्रह्मा जी ने नागों को जीवर और दारु के मध्य का प्रदेश नागपुर प्रदान किया. इसमें जीवर मिलम और राई पर्वत के बीच का इलाका जुहार है और नागपुर नाकुरी नाम से जाना जाता है जो दानपुर परगने में राजस्व उपखण्ड व एक पट्टी है.पिंडारी हिमनद के यात्रा पथ में सुरिंग के ऊपर पहाड़ी धार का नाम मुलेन है. यह मल्ल नागराजा का निवास था जिसने विष्णु भगवान की भक्ति कर नारायण की पदवी पाई थी. नागों के मुख्य मल्ल ने ऋषियों से जल हेतु प्रार्थना की तो उन्होंने भद्र गंगा नदी प्रवाहित कर दी. नागों ने कामधेनु को देख गायों की याचना की तो देवताओं ने उन्हें गोधन दिया. नागों ने उनके निवास के लिए गोठ बनाए और उनकी देखभाल नाग कन्याओं के द्वारा की जाती रही.

नागकन्याओं ने जिस वन में महादेव को देखा तो उसका नाम गोपीवन और स्थान का नाम गोपेश्वर पड़ गया. तभी गोपेण गड्यार में नागराजा वासुकी की पूजा अर्चना प्रचलित रही जिसमें वैशाख और कार्तिक में मेला लगता है. कुमाऊं में सरयू और पूर्वी रामगंगा के मध्य में पाताल भुवनेश्वर का मंदिर है जिसमें भुवनेश्वर महादेव निवास करते हैं.इसमें तीन गुफाएं हैं जिन्हें स्मर, स्मेरु और स्वधाम कहा जाता है. महर्षि व्यास ऋषियों को कथा सुनाते बताते हैं कि जब सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्ण आखेट करते वन में एक सुवर का पीछा करते एक गुफा के द्वार पर पहुंचे तो वहां एक क्षेत्रपाल मिला. राजा शिकार करते बहुत थक गए थे अतः उन्होंने क्षेत्रपाल से विश्राम हेतु उचित स्थान के बारे में पूछा. तब क्षेत्रपाल ने उन्हें गुफा के भीतर जाने को कहा. राजा ऋतुपर्ण ने गुफा के भीतर प्रवेश किया जहाँ उन्हें धर्मसिंह व नरसिंह मिले. वह राजा को शेषनाग के समीप ले गए जिनके एक सहस्त्र सर थे.अब शेष नाग की पुत्रियों ने राजा का हाथ पकड़ा और अपने पिता के सम्मुख ले आईं. शेषनाग ने राजन को इस गुफा में ब्रम्हा, विष्णु व महेश के भुवनेश्वर रूप में स्थापित होने व साथ ही देवराज इंद्र, नारद वशिष्ठ सहित ऋषि, कपिल मुनि देवता व असुर, गंधर्व व अन्य सिद्ध जनों के विद्यमान होने की जानकारी देते हुए उन्हें दिव्य चक्षु द्वारा इनके दर्शन कराये.

राजा ने पाताल भुवनेश्वर में सर्पों के आठ कुल, विश्वेश्वर शिवलिंग के साथ सर्पों के राजा अनंत की गुफा शेषावती को देखा जिसकी वायु या श्वास भृगुतुंग से होते धरती में तीव्रता से आती प्रतीत होती थी . यह पट्टी भेरंग में पोखरी के पास भृगु ऋषि का शिखर है जहाँ ऐसी गुफा है जिससे हवा निकलती है. राजा ऋतुपर्ण ने इसी स्थल पर शेषनाग के फन पर टिकी पृथ्वी और पाताल की गुफाओं के दर्शन किये. सतेश्वर शिवलिंग व सौरेश्वर शिवलिंग, बागीश व वैद्यनाथ शिवलिंग, कपिलीश शिवलिंग व हातकेश शिवलिंग देखे.पाताल भुवनेश्वरी देवी के दर्शन किये.. अब शेषनाग ने एक चालीस कोस लम्बी व इतनी ही चौड़ी गुफा दिखाई जिससे होकर राजा ऋतुपर्ण ने रामेश्वर व चंद्रशेखर के दर्शन किये. दूसरी गुफा से वह गोदावरी नदी तक जा पहुंचे. एक अन्य गुफा से वह गंगासागर पहुंचे. फिर ऐसी सी एक गुफा बैजनाथ को भी जाती दिखी. वहीँ ब्रह्मद्वार गुफा भी थी जहाँ राजा ने कामधेनु की पूजा की जिसका दूध महादेव पर गिरता है.यहाँ एक ताल भी है जिसका नाम शिवकुण्ड है. फिर स्मर नामकी गुफा है जहां महादेव पार्वती के साथ पासा खेल रहे दिखते हैं. आगे एक और रहस्यमयी गुफा राजा देखते हैं जिसके प्रवेश द्वार पर कुंडली मारे एक सर्प विराजमान है. इस गुफा के भीतर रत्न जगमगा रहे हैं. रत्नोँ से निर्मित पलंग पर श्वेत वस्त्रों में वृद्ध भुवनेश्वर महादेव पार्वती के संग विराजे हैं.शेषनाग ने राजा को भेंटस्वरूप एक हजार भरण रत्न व तीव्र गति से दौड़ने वाले अश्व दिए व बताया कि इस गुफा के बारे में वत्कल नामक ब्राह्मण लोगों को जानकारी देगा.

इतिहासकारों का मत है कि पाताल भुवनेश्वर में नाग सभ्यता के दर्शन होते हैं. गंगोली में आठोँ नागों के स्थान यहीं थे जिन्हें कालीय नाग, बेरीनाग, पिंगलनाग, द्योलनाग,फनीनाग, खरहरीनाग,तथा अठगुलीनाग के नाम से जाना जाता है.जोहार में बुर्फू ग्राम के चरखमियाँ जंगपागी नागवंशी रहे. नागजाति के नाम से अनेक स्थानों के नाम पड़े जिनमें अलकनन्दा नदी के पार गढ़वाल का नागपुर राज्य नागवंशी राजाओं का गढ़ रहा. अलक नंदा घाटी में नागों की अनेक बस्तियां विद्यमान थीं.मानसखंड में कहा गया कि पृथ्वी की रचना के बाद ब्रह्मा जी ने नागों को दारूकावन अठागुल जोगेश्वर का नागवंशी राज्य दिया जो अलकनन्दा से पिंडर कोसी तक विस्तृत रहा व नागपुर कहा गया. छठी-सातवीँ शती में गोपेश्वर के त्रिशूल लेख में स्कन्दनाग, विभुनाग, अंशुनाग, गणपति नाग या गणेश्वर वस्तुतः नागवंशीय नरेशोँ के ही नाम हैं.

नागवंशी राजा गुप्तकाल से पहले उत्तराखंड में राज करते थे जिनका राज्य विस्तार बदरीकाश्रम व केदारनाथ से भी आगे भोटान्त क्षेत्र तक फैला था. महाभारत में भी गंगातीर पर नागों की बस्तियों का वर्णन है.नागों के निवास को नागलोक या नागपुर कहा गया. ऋग्वेद में इसे अहिक्षेत्र कहा गया तो पुराणों में पाताल.कहा जाता है कि नागपुर में रुद्रप्रयाग के उत्तर में रुद्रनाथ व उर्गम तक राजा रूद्र के शासन काल में दस सहस्त्र उदण्ड नागों का निवास था. उनकी हिंसक प्रवृतियों को देखते हुए राजा ने इन हिंसक नागोँ का वध भी किया. गढ़वाल में कुछ नागवंशी शाखाओं को करकोटक नागोँ से सम्बंधित किया जाता है.छकाता कुमाऊं तथा नेपाल में भी कई नागवंशी शाखाओं को इससे सम्बंधित किया जाता रहा. कई इतिहासकारों ने ईसा सन की तीसरी शताब्दी को नाग युग कहा जिसमें नाग राजाओं ने शासन किया. इस काल में नृत्य व संगीत कलाओं का सर्वाधिक विकास हुआ. यही वह समय अवधि थी जब भरत मुनि का “नाट्य शास्त्र”सामने आया जिसके द्वारा नाटक, नृत्य व गीतों का प्रचार प्रसार हुआ. जनश्रुति रही कि नाग कन्याएं नृत्य में प्रवीण होती थीं.

इतिहासकारों का मानना है कि शक राज्य के पतन के बाद उत्तराखंड में नाग राजाओं का आधिपत्य हुआ. नागवंशी नरेशों की गुप्त राजाओं से मित्रता रही. उत्तराखंड में जो मंदिर नागशिखर कहे जाते हैं वह गुप्तकालीन युग में ही बने.उत्तराखंड में नाग जाति के निवास करने के कई साक्ष्य मिलते हैं जैसे कि कालसी का शिलालेख. स्कन्दगुप्त के शासन काल 465 से 485 ई. तक गंगा यमुना उपत्यका का शासक विष्यपति सर्वनाग होता था. संभवतः उसका उत्तराखंड में शासन यामुन एवं कतृर्पुर जनपद था तथा उनका शासन 576ई. मौखरी नरेश सर्ववर्मन से पहले रहा हो. गोपेश्वर के त्रिशूल लेख में स्कन्दनाग, विभुनाथ व अंशुनाग तथा बाड़ाहाट त्रिशूल लेख में गणेश्वर व गुह नामक पांच नागवंशी शासकों का उल्लेख मिलता है जिनका उत्तराखंड में शासन 450 से 550 ई. के बीच होने का अनुमान लगाया जाता है. गोपेश्वर के त्रिशूल की स्थापना स्कन्दनाग, विभुनाथ और अंशुनाग के वंशज गणपति नाग के द्वारा और बाड़ाहाट के त्रिशूल को गणेश्वर के पुत्र गुह द्वारा की गई बताई जाती है. केदारखंड पुराण में कहा गया कि बाड़ाहाट का त्रिशूल देवासुर संग्राम में आकाश से फेंकी शक्ति रही.छब्बिस फीट ऊँचे इस त्रिशूल के लोह स्तम्भ में उकेरे लेख से ज्ञात होता है कि कि इसे गणेश्वर या गणपतिनाग जिसने बाड़ाहाट में शिव मंदिर स्थापित किया था के सुपुत्र गुह द्वारा शिव मंदिर के समीप शक्ति केंद्र में स्थापित किया था.

यह भी कहा जाता है कि इस त्रिशूल को तिब्बत या भोट प्रदेश के किसी राजा ने स्थापित करवाया. गढ़वाल में तो नागवंश से जुड़े अनेक स्थान हैं. उर्गम नागों के मुख्य नागनाथ माने जाते रहे. नागपुर नागनाथ में पुष्कर नाग, नेलंग नीति घाटी में लोहाँदो नाग, मरगांव में वाम्पानाग, तलौर में सलंग नाग, रतगांव में भेकल नाग व पाण्डुकेश्वर में शेषनाग की पूजा अर्चना प्रचलित है जिससे यह अनुमान लगाया जाता रहा कि गुप्त शासन काल व उसके बाद यहाँ नागवंश रहा होगा.

नाग गाथाओं में वर्णित बाड़ागढ़ी छटी शताब्दी में नागवंशी राजाओं की प्रसिद्ध राजधानी रही जहां नागराजाओं की राजधानी रही. बाड़ाहाट या उत्तरकाशी में नागसत्ता का स्मारक ‘शक्तिस्तम्भ’ है. किरात और नाग पूजकों की स्थली छकाता एवं असकोट भी रही . छखाता परगना मल्ला व तल्ला कहा गया . मल्ला में पहाड़ी भाग व तल्ला में भाबर का भाग रहा जो काली कुमाऊं, महरूढ़ी, धनियाकोट, कोटा और तराई तक विस्तृत था. छकाता में करकोटक नाग पूज्य बने. महरूढ़ी में काफी बड़ी गुफाएं या ऒड्यार हैं जिनमे नागदेव स्थापित किये गए.कुमाऊं में महर के बस्तिर में महा नाग है तो पुंगराऊ में केदार कालीनाग, दानपुर में वासुकी नाग, सलाम में नागदेव पद्मगिरी तथा नागराज, बढ़ाऊँ में बिनिनाग व पांडे गांव में करकोटक नाग के मंदिर बने .

शिवजी तो नागों की भक्ति से इतने प्रसन्न हुए कि कि उनके प्रतीक चिन्ह सर्प को अपने गले में धारण कर लिए.भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्वयं को नागों में शेषनाग और सर्प रूप में वासुकी कहा. नाग जाति काफी प्राचीन पूज्य व अपने समय में राज -काज में पूरा दखल भी रखती आई.मुअन -जोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता जो उत्तर भारत के बड़े भू भाग में विस्तृत होने के कारण कुछ इतिहासकारों द्वारा सिंधु -हिन्दु सभ्यता कही गई में, ऐसे प्रमाण हैं कि उस काल में नाग विभूषित शिव की पूजा अभ्यर्थना प्रचलित रही. जिसमें शिव योगासन में विराजे हैं तो उनके दोनों ओर घुटनों के बल बैठे हुए दो नाग हैं. उनके सम्मुख घेरे में दो और नाग बैठे हैं. शिव जी के गले में सर्प भी लिपटा है.
(Traditional Naag Temples Uttarakhand)

उत्तराखंड की नाग संस्कृति में जिन इतिहासकारों ने महत्वपूर्ण शोध की व सन्दर्भ ग्रन्थ प्रस्तुत किये उनमें डॉ शिवप्रसाद डबराल (उत्तराखंड का इतिहास, भाग 1), डॉ शंतन सिंह नेगी (मध्य हिमालय का राजनितिक एवं सांस्कृतिक इतिहास )डॉ वाचस्पति मैठाणी (गढ़वाल हिमालय की देव संस्कृति ), डॉ शिव प्रसाद नैथानी (उत्तराखंड के तीर्थ एवं मंदिर ), डॉ भजनसिंह सिंह (आर्यो का आदिनिवास मध्य हिमालय ), डॉ रणवीर सिंह चौहान (गढ़वाल का इतिहास ),श्री सीताराम ममगाँई (प्रसिद्ध नागतीर्थ सेम-मुखेम), डॉ कृष्ण कुमार (केदारखंड पुराण ),प्रो. डी डी पांडे (उत्तराखंड के लोकदेवता ), पंडित बद्रीदत्त पांडे (कुमाऊं का इतिहास ) व ए. टी. एटकिन्सन (अनु. प्रकाश थपलियाल, हिमालयन गजेटियर, ग्रन्थ 2-भाग 1) मुख्य हैं.
(Traditional Naag Temples Uttarakhand)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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इसे भी पढ़ें: विकास का असमंजस, हरियाली की फिक्र

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