प्रो. मृगेश पाण्डे

जम्बू, गंद्रेणी के छौंक से ही होती है असली पहाड़ी रिस्यार की पहचान

भात के साथ पोषण, ताकत और ठण्डी-गर्मी की परेशानियों से बचाने को बहुत सारी पहाड़ी दालों, सब्जियों और मसालों का मेल बना. (Traditional Pulses and spices of Uttarakhand)

ऐसे ही घालमेल से बनती है ठठवाणी, जिसमें लाल मोटा चना, राजमा, रेंस, मास या उर्द, घौत, भट्ट को पहले भिगा देते. फिर सिल में धनिया, लाल खुश्याणी, आद या अदरख, जरा लोंग, एक दो बड़ी इलायची को दरदरा पीस भड्डू में, डले  वाले लूण डाल  खूब उबलने रख देते.

भड्डू के ऊपर ठीक फिट साइज का लोटा या कस की भारी कटोरी पानी भर रख देते. अब जब ये पानी जब  भड्डू की भाप से चुड़कन हो जाता तो इसे भी भड्डू में लौट देते. यह सिलसिला कई बार चलता.

अब जब दालें ठीक ठाक पक जातीं याने कटकटाने जैसी हो जातीं तो दालों को अलग कर रस को लोहे के भदेले में लौट चावल के बिस्वार या आटे के पतले घोल को डाल फिर भुदकने कम आंच  में रख देते. चलाते रहते ताकि बिस्वार की गाँठ न पड़ें.

अलग से रखी पक गई दालों में प्याज़ को बारीक़ काट, धनिया छिड़क निम्बू-चूक डाल मिला,  गरम भात के साथ परोसते. भात भी तौली में जरा गीला गीला पणयूँ से निकलने में डले जैसा निकलता. उसके साथ ठठवाणी का गीला-सूखा ओल-मिला के खाया जाता. ऊपर से गरम घी भी पड़ता.

गल्ल होने तक पका के खड़ी दाल बनती. इसमें सौंठ और अजवाइन भी पड़ती और साबुत धनिये, पहाड़ी मेथी, लाल खुस्याणी का छौंक भी. हींग, जम्बू, गंद्रेणी, काला जीरा खास मसाले होते इन्हें बड़े अंदाज से, सीप से डाला जाता. नमक का अंदाज मुट्ठी और मसाले चुटकी से नपते. इस माप में सध जाना ही असली रिस्यार की पहचाण होती.

साबुत कई दालों को एक साथ मिला बनती खड़ी  दाल. राजमा, भट्ट, रेंस, गहत, लोबिया, चना, फराशबीन, साबुत मूंग, काली मलका, साबुत मसूर, साबुत उड़द या माश को एक साथ मिला या अलग अलग बनाते. अदरख, सौंठ जरूर डलती.

इन्हें कभी भिगाया जाता, कभी भूना  जाता, कभी दरदरा पीसा जाता. ग्रूंश और मोठ तथा रेंस के साथ मटर वा बाकुला भी काम आती. गालों के स्वाद को अनोखा करने वा दड़बड़ करने के लिए आलू, गड़ेरी, गेठी, पालंग, हालंग मिलाया जाता. आटे, चावल का बिस्वार भी पड़ता. लौंग, हींग, झुंगार, तेजपात, दालचीनी, काली मर्च, कालाजीरा भी अंदाज से छौंक में पड़ते. 

भट्ट से भटिया व रस बनते. भट्ट के दानों को भिगा जब ये फूल जाएं तो इन्हें दरदरा कूट या सिल-बट्टे में मोटा पीस कर लोहे के भदेले या कढ़ाई में पानी व चावल के साथ पका लेते हैं. पकाते बखत इसमें लूण नहीं डालते. 

तला न लगे इसलिए  लगातार चलाते रहते. दड़बड़ हो जाने पर हरी मिर्च, पुदीने बुनी भाँग के लूण के साथ खाते. पालक का कापा और झोली भी इसके साथ खाये जाते. रेंस, बाकुला और राजमा व मटर और चने की दाल अकेली भी बनती और अन्य दालों के साथ भी.  (Traditional Pulses and spices of Uttarakhand)

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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