“सम्यक् प्रकारेण विरोधाभावान् अपास्य समभावान् जीवनोपयोगिनः करोति इति संस्कृतिः” अर्थात संस्कृति वह है जो मानवता को विकृत करने वाले भावों को निरस्त करके उनके स्थान पर जीवनोपयोगी भावों को प्रतिष्ठित करती है. (Tradition Kumaoni Folk Life)
प्रकृति की गोद में सजा भारतवर्ष का एक छोटा सा राज्य उत्तराखण्ड अनादिकाल से अलौकिक शक्तियों की जन्मस्थली व कर्मस्थली रहा है. हिमालय के अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य से सुशोभित, अनगिनत निर्मल धाराओं से सिंचित, जीवनदायनी जड़ी-बूटियों से समृद्ध उत्तराखण्ड की इस पावन धरती पर कैलाशपति शिव एवं आदिशक्ति पार्वती का अधिवास तथा मोक्षदायिनी असीम शान्ति इसे आध्यात्मिक सर्वोच्चता प्रदान करते हैं. यही कारण है कि ईश्वर प्राप्ति एवं परम सुख-शान्ति की खोज में साधु-संतों, ऋषि-मुनियों एवं तपस्वियों ने इस भू-भाग को अपनी साधना स्थली बनाकर इसे धार्मिक एवं आध्यात्मिक गौरव प्रदान किया है. इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र की अन्य महत्वपूर्ण निधि है, यहाँ की लोक संस्कृति. जो इस प्रदेश के भौगोलिक परिवेश के अनुरुप ही है. पर्वतीय एवं शीतप्रधान भू-भाग होने के कारण उत्तराखण्ड की संस्कृति के सभी पहलू यथा लोक जीवन, रहन-सहन, भोज्यव्यंजन, वस्त्राभरण, लोक परम्पराएं, लोक कलाएँ इत्यादि भी इसी धुरी के इर्द-गिर्द घूमते हैं. इतिहासविदों का कहना है कि प्रारम्भ में यहाँ यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग, हूण, भाट, कोल, किरात, कुणिन्द, तंगण, खश, शक, वैदिक आर्य, कत्यूरी तथा चन्दों से लेकर गोरखा व अंग्रेज तक का समय-समय पर आगमन होता रहा है. निश्चित ही वे लोग अपने साथ अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत भी लाए. कालान्तर में विभिन्न संस्कृतियों के सम्पर्क एवं समागम जनित परस्पर सक्रीय आदन-प्रदान के फलस्वरुप यहाँ एक मिश्रित संस्कृति का उदय हुआ, परन्तु जो जातियाँ अपने मूल स्थानों में जीवन्त हैं, वहाँ उनकी संस्कृति का विशुद्ध अथवा विकृत रूप वर्तमान में भी देखा जा सकता है.
प्राचीनकाल से ही पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के जीवन तथा समस्त क्रियाकलापों का मूलाधार कृषि और पशुपालन रहा है तथा इन आधारों में पुरातनकाल से कोई परिवर्तन नहीं आया है. अतः उनकी जीवन पद्धति का चक्र भी यथावत् घूमता रहा है. इसी भांति कुमाऊनी क्षेत्र की 99 प्रतिशत जनता का रहन-सहन, खान-पान इत्यादि भी इन्हीं दो मूलाधारों पर चला करता था. इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि जीवन की सारी आवश्यकताएँ इन्हीं दो स्रोतों से पूरी हो जाया करती थी, केवल नमक ही ऐसी वस्तु थी, जिसके लिए भोटान्तिक व्यवसायियों का सहारा लेना पड़ता था. भांडे-बर्तन, गुड़-तेल, भोज्य सामग्री सभी कुछ स्थानीय स्रोतों से उपलब्ध हो जाया करता था. स्थानीय बुनकर (कोली) भेड़-बकरियों से प्राप्त ऊन, खेतों में उगाई गई कपास की रूई अथवा भांग के रेशों को कातकर अपने रांचों (खड्डियों) में दो बित्ता चौड़ा कपड़ा बुन लिया करते थे. इस प्रकार वस्त्राभरण की समस्या का समाधान भी स्थानीय स्तर पर हो जाता था. इसी तरह लोहे की वस्तुऐं बनाने वाला लोहार, सोने-चाँदी के जेवर व मूर्तियाँ बनाने वाला सुनार, तांबे-पीतल के बर्तन बनाने वाला टम्टा, काष्ठ के बर्तन व औजार बनाने वाले चुन्यारे, बांस, निगाल, रिंगाल आदि की वस्तुऐं बनाने वाले बैड़ी या रूड़िया, तेल पेरने वाला भूल, दर्जी, ढ़ोली, दास, पुरोहित आदि व्यवसायों को अपनाकर सभी लोग एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति कर लिया करते थे. सामान्यतया व्यापार वस्तु विनिमय पर ही आधारित होता था. लोगों का जीवन अत्यन्त व्यस्त तथा संघर्षमय होता था. निचली घाटियों और तराई-भावर क्षेत्र को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में कृषि उत्पाद नाम मात्र को ही हुआ करते थे. 80/से भी अधिक लोग जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी भली प्रकार नहीं कर पाते थे, उन्हें न तो भरपेट अन्न मिलता था न ही यथोचित वस्त्र. कृषि उत्पादों की कमी के चलते अधिकतर लोग वन्य उत्पादों- फलों, शाकों, कन्दमूलों एवं दूध-दही से ही जीवनयापन किया करते थे.
कुमाऊँ क्षेत्र की अधिकांस बसावत नदी-घाटियों तथा उसके आस-पास के पहाड़ी ढ़लानों में है. इन पहाड़ी ढलानों में सीढ़ीदार खेतों में कृषि की जाती थी, जहाँ पर अधिकांशतः मोटा अन्न मडुवा/कोन्दा, झुंगर/झंगोरा/मादिरा, घोगा (मुंगरी, भुट्टा, मक्का), ज्वार, बाजरा, कौंणी, चुआ, फाफरा/ओगल, लोभिया/सुंटा/रोंगी, गहत/कुल्थ, रैंस, माष (उड़द), भट्ट (काला सोयाबीन), मसूर इत्यादि उगाया जाता था. घाटी क्षेत्रों में सिंचाई की समुचित व्यवस्था होने से श्यरों (मैदानी खेत) में धान, गेहूँ, जौ, सरसों इत्यादि की उपज होती थी. मानसखण्ड की भोली-भाली निर्धन जनता अपना व अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए यहाँ उपजने वाले मोटे अनाजों से ही भांति-भांति के व्यंजन बनाकर गुजर-बसर किया करती थी. यहाँ के जनसामान्य में प्रचलित भोज्यपदार्थों का वर्गीकरण निम्नवत् किया जा सकता है-
दांतों से चबाकर खाए जाने वाले अर्थात धान्य जैसे- च्यूड़/चिड़वे, उत्यौल (भूने हुए चाँवल, तिल, भंगीरा, अखरोट की गिरि), खाजे/खाजा (चाँवल, गेहूँ, भट्ट आदि के भूने दानें), उमी (हरे गेहूँ की भूनी हुई बालियों के दानें), चूआ/मारसा/चौलाई के दानों को भूनकर बनाए गए लड्डू, पिनी/पिन (कूटे हुए भूने तिल को गुड़ के साथ मसलकर बनाए गए लड्डू), सत्तू (भूनी हुई कौंणी को कूटकर उसमें तिल व गुड़ मिलाकर दूध में गूंथकर बनाए गए लड्डू) इत्यादि.
जीभ से चाटकर खाए जाने वाले अर्थात गव्य जैसे- खीर, लापसी (दूध में पका आटे का पतला हलुवा), पल्यो/झोली/कड़ी, लेटा/बाटी/बाड़ी (मडुवे का पतला हलुवा), फाना (भट्ट की भीगी दाल को पीसकर उसमें मडुवे का आटा मिलाकर पकाया गया भोज्यपदार्थ), कापा/कापो (हरी सब्जियों-पालक, बथुआ, तौरई आदि को उबालकर पीसकर तैयार खाद्य), गुड़झोई (गेहूँ के आटे का पतला मीठा हलुवा) इत्यादि.
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चूसकर खाए जाने वाले अर्थात फल. फलोत्पादन की दृष्टि से भी कुमाऊँ क्षेत्र समृद्ध रहा है. बद्रीदत्त पाण्डे जी ने यहाँ होने वाले फलों का विवरण निम्नवत् दिया है- “अखरोट, आलू बुखारा, अलूचा, आम, इमली, अमरूद, अनार, अंगूर, आडू, बड़हल, बेर, चकोतरा (इसे अठन्नी भी कहते हैं), चेरी, गुलाबजामुन, कटहल, केला, लीची, लोकाट, नारंगी, नासपाती (गोल, तुमड़िया तथा चुसनी), नींबू, पांगर, पपीता, शहतूत (कीमू), सेब, खरबूज, तरबूज, फूट, खुमानी, काकू, अंजीर आदि फल कुमाऊँ में होते हैं.”
उबालकर खाए जाने वाले अर्थात शाक, जैसे- सब्जी, अनाज, दालें एवं कन्दों से बनाए जाने वाले भोज्य यथा- छउवे/छलुवे, चीलड, लोहटू/लसूड, बेड़ू/बेड़ुवा, चुड़कानी/चुटकानी, ठटवानी, डुबुक, बड़ी, राजड़ी, छछिया/ जौला, पिनझोली, गहत्यूड, अख्वाड़ी, चैंस, मेथी झो, आलू/मूली थेचू इत्यादि.
आग में भूनकर अथवा घी-तेल में तलकर खाए जाने वाले पकवान यथा लगड़ (पूड़ी), बेड़ू लगड़ (भरवा पूड़ी/कचौड़ी), हलवा, पूए, कसार, साइ, रोट, बड़े (पिसी हुई दाल की पकोड़ी), घुघुते, खजूर, गुड़पापड़ी, सुंगो/सिंगल, फुलखाजे इत्यादि.
देवभूमि उत्तराखण्ड के इस कुमाऊँनी भूभाग का परम्परागत स्वरूप सदैव से ही सात्विक रहा है. यही कारण है कि यहाँ गोरस से सम्बन्धित पेय पदार्थों की प्रचुरता रही है. दूध, दही, मट्ठा- छाछ (नमकीन), लस्सी (मीठी) आदि के अतिरिक्त 19 वीं शताब्दी के पूर्व तक अन्य किसी पेय का प्रचलन नहीं था. प्रो. डी. डी. शर्मा का कहना है कि “प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) में यहां के सैनिकों का अंग्रेजों तथा अंग्रेजी सेनाओं के सम्पर्क में आने से पूर्व तक लोग मदिरा को जानते तक नहीं थे.” (उत्तराखण्ड का लोकजीवन एवं लोकसंस्कृतिः पृष्ठ 150). चाय उत्पादन भी अंग्रजों द्वारा 1842 में कौसानी में चाय बागानों की स्थापना के उपरान्त ही प्रारम्भ हुआ. इसके पश्चात् ही जनसामान्य इस पेय से परिचित हुआ. वर्तमान में यह कुमाऊनी लोगों के पेय पदार्थों में अनन्य स्थान ग्रहण कर चुका है. जनजातीय लोगों द्वारा मरज्या (मक्खनयुक्त नमकीन चाय) का सेवन किया जाता था. कुछ शताब्दी पूर्व से वे लोग घर में बनायी जाने वाली मदिरा-सुरा, जाड़, छड़्, छड़पो, द्राम, चक्ती इत्यादि का भी सेवन करने लगे हैं.
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि विषम भौगोलिक परिस्थितियों से तालमेल बैठाते हुए कुमाऊनी लोग सदैव आत्म-निर्भर रहे हैं तथा प्राकृतिक संसाधनों से ही अपने रहन-सहन और खान-पान की आवश्यकताएं पूरी करते आ रहे हैं. परन्तु वैश्वीकरण के दौर ने भारत के महानगरों में ही नहीं वरन् हिमवन्त की कन्दराओं में बसे गाँवों में भी बड़ी तेजी से अपने पाँव पसारे हैं. विभिन्न स्थानीय भोज्यव्यंजनों के स्थान पर लोग विदेशी व्यजनों को खाना अधिक पसन्द करने लगे हैं, परम्परागत जीवनशैली का स्थान पाश्चात्य जीवनशैली ने ले लिया है. ये तो उदाहरण मात्र हैं, वास्तव में लोकजीवन के प्रत्येक पक्ष को वैश्वीकरण तथा आधुनिक विचारधारा ने प्रभावित कर विलुप्त होने के कगार पर पहुंचा दिया है.
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मूल रूप से मासी, चौखुटिया की रहने वाली भावना जुयाल हाल-फिलहाल राजकीय इंटर कॉलेज, पटलगाँव में राजनीति विज्ञान की प्रवक्ता हैं और कुमाऊँ विश्वविद्यालय से इतिहास की शोध छात्रा भी.
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