पर्यटन को उत्तराखण्ड के आर्थिक विकास के प्रमुख स्रोत के रूप में देखा जाता रहा है. बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, पञ्च केदार, आदि कैलाश, हरिद्वार, ऋषिकेश, हेमकुण्ड, रीठा साहिब, नानकमत्ता, पीरान कलियर जैसे धर्मस्थलों के कारण यहाँ आदिकाल से ही धार्मिक पर्यटन होता रहा है. आज भी लाखों श्रद्धालु हर साल इन तीर्थस्थलों में आते हैं. तीर्थाटन के रूप में चले आ रहे इस पर्यटन के विकास की काफी गुंजाइश अभी भी बनी हुई है.
उच्च हिमालयी क्षेत्र में हमारे पास पंचाचूली, नंदा देवी, दूनागिरि, बन्दरपूँछ, चौखम्भा, नीलकण्ठ, गोरी पर्वत, हाथी पर्वत, नंदा घुंटी, नन्दा कोट, मृगथनी के रूप में 6000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाली बर्फ से लकदक चोटियाँ हैं. भागीरथी, अलकनंदा, गोरीगंगा, धौली और पिंडारी नदियों के उद्गम इसी हिमालयी क्षेत्र में हैं. ग्लेशियरों के रूप में पिण्डरी, सुन्दर ढूंगा, कफनी, खतलिगं, मिलम, जौलिंकांग, गंगोत्री यमुनोत्री हैं.
हिमालयी झीलों में गौरीकुण्ड, रूपकुण्ड, नन्दीकुण्ड, केदारताल, देवरियाताल, पन्नाताल, सतोपंथताल, बासुकीताल, भराडसरताल यहीं हैं. इसके अलावा नैनीताल, भीमताल, सातताल, नौकुचियाताल, श्यामलाताल, हरीशताल, लोहाखामताल. तपोवन, पंवालीकंठा, दयारा, चौपटा, बेदिनी, आली जैसे मनमोहक बुग्याल उत्तराखण्ड में ही हैं. जैव विविधता से भरपूर जिम कॉर्बेट पार्क, राजाजी नेशनल पार्क सारी दुनिया में जाने जाते हैं.
कुल मिलाकर यह राज्य नयनाभिराम, अलौकिक सौंदर्य से भरपूर है. इसी कारण से राज्य में पर्यटन को संभावित आर्थिक संबल के रूप में देखा जाता है और आज भी यह अर्थव्यवस्था का मजबूत हिस्सा है. 2017 में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में पर्यटन का योगदान 13.57 प्रतिशत रहा. यह इसके बावजूद था कि पर्यटन विभाग का बजट परिव्यय कुल बजट का 0.28 ही रहा. जबकि 2004-5 में विभाग का बजट परिव्यय कुल बजट का 0.67 प्रतिशत था. यानि राज्य सरकार पर्यटन को अपने एजेंडा में लेने की बात कर रही है लेकिन उस पर व्यय घटाया जा रहा है. यह चिंताजनक स्थिति है.
इसका मतलब है कि सरकार और विभाग पर्यटन क्षेत्र के विकास की बात तो करते हैं लेकिन इस पर उनका कतई जोर नहीं है. खास तौर पर पहाड़ी जिलों से मैदानी जिलों की ओर और राज्य से बाहर मामूली रोजगार के लिए हो रहे पलायन की भयावह होती जा रही स्थिति से निपटने के लिए सरकार पर्यटन को रोजगार के क्षेत्र में मजबूत करने की बात करती है. लेकिन सरकार के पास ऐसा करने की इच्छाशक्ति और दृष्टिकोण का अभाव है.
हमारे पास पर्यटकों को लुभाने और सुरक्षा, संरक्षा का अहसास देने के लिए आधारभूत ढांचे का नितांत अभाव है. रेल सेवा का परिवहन तंत्र गिने चुने शहरों तक ही सीमित है तो सडकें बदहाल बनी हुई हैं. सभी विकास योजनाओं की तरह सड़कों का जाल भी चार मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, ऊधम सिंह नगर और नैनीताल में उलझकर रह गया है. मनमोहक हिमालय की ओर जाने वाली सडकें डरावनी और बदहाल हैं. इनके खुले होने या बंद हो जाने का कोई भरोसा नहीं है. इन सड़कों पर चलते हुए हमेशा जान सांसत में बनी रहती है. मध्य और उच्च हिमालयी क्षेत्रों तक पहुँचने के लिए तो पर्यटकों को अपना कलेजा मजबूत रखना पड़ता है.
अतः धार्मिक आस्था और हिमालय से अगाध स्नेह ही पर्यटकों को यहाँ तक लाता है. पड़ोसी राज्य हिमाचल की सड़कों से तुलना करने पर हमें निति नियंताओं की कमजोर इच्छाशक्ति स्पष्ट दिखाई देती है. यही नहीं सीमान्त नेपाली गाँवों तक में चीन की मदद से बिछाया गया सड़कों का जाल गुणवत्ता के मामले में हमसे बहुत बेहतर है, चीन और तिब्बत के तो क्या कहने.
संचार सेवाओं के तो क्या कहने एकाध ऑपरेटरों के धागों से बंधे पहाड़ी कस्बों से पहाड़ की तरफ चढ़ते ही आप मध्ययुग में पहुँच जाते हैं. उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पहुँचते ही आप मदद के लिए भी संचार माध्यम नहीं पाते. ज्यादातर पहाड़ी जिलों में बीएसएनएल का लचर संचार तंत्र ही मिलता है, वह भी निचले इलाकों तक ही. बड़ा बाजार नहीं है तो प्राइवेट ऑपरेटरों की कोई दिलचस्पी भी यहाँ नहीं है.
राज्य में मात्र 6,239 होटल, पेइंग गेस्ट हाउस, धर्मशालायें, गुरुद्वारा, आश्रम हैं. इनकी कुल क्षमता 3,01,185 बेडों की है. इनमें 143724 बेड वाले 4813 निजी होटल, पेइंग गेस्ट हाउस हैं. 147437 बेड क्षमता वाले 886 धर्मशालाएँ, गुरुद्वारे आश्रम. 2315 बेड क्षमता वाले 382 सरकारी गेस्ट व रेस्ट हाउस हैं. 7709 बेड वाले 208 पर्यटक आवास गृह, जनता यात्री निवास व एफआरपी हट्स हैं.
आंकड़े साफ़ दिखाते हैं कि ज्यादातर पर्यटकों का भार निजी होटल संचालकों या धर्मार्थ संस्थाओं ने उठा रखा है. लोकप्रिय जगहों वाले सरकारी पर्यटक आवास गृहों, विश्राम गृहों को छोड़कर ज्यादातर सरकारी गेस्ट-रेस्ट हाउसखस्ताहाल हैं. नैनीताल, रामनगर, मुक्तेश्वर, मसूरी आदि को छोड़ दिया जाये तो कहीं भी रहने के लिए सामान्य सुविधाओं वाली भी जगहें नहीं हैं. अन्य सुविधाओं की तो बात ही सोचना बेईमानी है. यानि देवभूमि का अधिकांश पर्यटन देवदया पर ही है. स्थिति को बेहतर करने के लिए सरकार होम स्टे की योजना लायी है जिसके तहत अगले पांच सालों में 5000 होम स्टे का लक्ष्य रखा गया है, मगर लालफीताशाही इस योजना में पलीता लगाती है या नहीं यह देखने की बात है.
इन बुनियादी सुविधाओं की गत देखकर सरकार से यह उम्मीद पालना बेमानी होगा कि वह किसी तरह की पर्यटन गतिविधयों को विकसित करेगी. साहसिक पर्यटन के नाम पर औली में स्कीइंग प्रतियोगिता करवाई जाती है जिसके आयोजन में अंत तक सुबहा बना रहता है. शेष गतिविधियां निजी ऑपरेटरों के भरोसे चल रही थीं. सरकार द्वारा 16 सालों तक भी इनके लिए ठोस नीति तक नहीं बनायीं गयी. जिस वजह से हाल ही में हाई कोर्ट ने इनमें से ज्यादातर में प्रतिबन्ध लगाकर सरकार को इस विषय में नीति बनाने का निर्णय दिया है.
राजस्थान सरकार ने जानवरों की खरीद-फरोख्त के लिए आयोजित होने वाले पारंपरिक पुष्कर मेले को विकसित कर एक अंतर्राष्ट्रीय मेले में बदलकर रख दिया. इसके अलावा भी राजस्थान, गोवा समेत कई राज्यों ने अपने पर्यटन को स्थानीय संस्कृति से जोड़कर देश-विदेश में लोकप्रिय बना दिया है. उत्तराखण्ड के कई मेलों को विकसित कर पर्यटकों के बीच लोकप्रिय बनाने की संभावना मौजूद है. जौलजीबी मेला, उत्तरायणी मेला, सेल्कु मेला, नंदा राजजात आदि कई ऐसे मेले हैं जिनमें पर्यटकों की अच्छी भागीदारी बनाये जाने की संभावना मौजूद है. अगर पर्यटन विभाग और संस्कृति विभाग की पहल हो तो इन मेलों को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिल सकती है. जिससे पर्यटन को ख़ासा बढ़ावा मिलेगा.
इन स्थितियों के बावजूद राज्य में पर्यटकों का आवक लगातार बढ़ ही रही है. 2002 से 2017 के तक राज्य में आने वाले पर्यटकों की तादाद में 196.57 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है. 2002 में उत्तराखण्ड आने वाले पर्यटकों की संख्या 117.08 लाख थी. साल 2017 में 347.23 लाख पर्यटक उत्तराखण्ड आये, इनमें 1.4 लाख विदेशी पर्यटक शामिल थे. 2010 से 2014 के बीच पर्यटकों की तादाद में कमी भी आयी, 2013 की आपदा के कारण पर्यटकों का यह ग्राफ तेजी से गिरा.
इसके बावजूद अगले सालों में पर्यटकों की आवाजाही बढ़ने लगी और हर साल बढती ही जा रही है. यह आंकड़ा उत्तराखण्ड में पर्यटन की संभावनाओं को दिखाता है. अगर सरकार ठोस नीति बनाकर मूलभूत ढांचे में आवश्यक सुधार करे और गतिविधि आधारित पर्यटन की ठोस नीति तैयार करे तो पर्यटन राज्य की अर्थवयवस्था का मजबूत स्तम्भ बन सकता है. ठोस कार्यनीति इस क्षेत्र में अच्छे रोजगार भी पैदा करेगी और पलायन की समस्या से निबटने में कारगर होगी. बस आवश्यकता है सरकार की मजबूत इच्छाशक्ति के साथ उठाये गए ठोस कदमों की.
सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है. काफल ट्री टीम के अभिन्न सहयोगी.
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बहुत बढ़िया आलेख
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