लम्बे धवल केश और वैसी ही लम्बी धवल दाढ़ी वाले उस खूबसूरत अंगरेज़ को देखकर किसी को भी धोखा हो सकता था कि वह धर्म-प्रचारक या बाबा टाइप की कोई चीज़ होगा. बिनसर-कसारदेवी-अल्मोड़ा के इलाके में चार-पांच साल रहे उस हंसमुख बूढ़े की कई स्मृतियाँ कई लोगों के पास हैं.
उनके साथ सुदीर्घ और अन्तरंग समय बिता चुके प्रशांत बिष्ट बताते हैं कि 1990 के दशक के अंतिम वर्षों में मशहूर फ्रेंच लेखक फ्रांसुआ गॉतीए अपने इस इतालवी दोस्त को लेकर अल्मोड़ा के नज़दीक कसारदेवी के इलाके में आये थे. कसारदेवी में पप्परशैली गाँव में कुछ दिन रहने के बाद वे बिनसर गए जहाँ उन्होंने न केवल लंबा समय बिताया, अपने लिए एक घर भी बनवाया.
एक लम्बे अरसे तक इटली के सबसे चहेते लेखकों में शुमार रहे. फ्लोरेंस के एक कामगार परिवार में 14 सितम्बर 1938 को जन्मे तिज़ियानो ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ पीसा में क़ानून की पढ़ाई की जहाँ देश के भविष्य के प्रधानमंत्री जियूलियानो आमातो उनके रूम पार्टनर थे. कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म कर चुकने तक वे पांच भाषाओं में महारत हासिल कर चुके थे जिनमें चीनी भी शामिल थी. चीन और दक्षिण अफ्रीका में एकाध कॉर्पोरेट नौकरियों के बाद उन्होंने पत्रकार बनना तय किया.
वे चीन जाकर पत्रकारिता करना चाहते थे. स्थानीयता और संकीर्णता से भरपूर इतालवी पत्रकारिता संसार ने तिज़ियानो को भरपूर नकारा लेकिन वे यूरोप भर के अखबारों के दफ्तरों में जाकर अपने लिए काम की मांग करते रहे. उनके व्यवहार, उनकी देहभाषा औए उनके आत्मविश्वास को देखकर मशहूर जर्मन अखबार ‘डेर श्पीगेल’ ने उन्हें अपना एशियाई संवाददाता बनाया. इस अखबार के साथ उनका सम्बन्ध कोई तीन दशक चला. वे क्रमशः वियतनाम, बीजिंग, टोक्यो, बैंकाक और नई दिल्ली में पोस्टेड रहे. हैम्बर्ग के इस अखबार को उन्होंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ दिया और अंततः वे उसके निदेशक मंडल में शामिल किये गए.
वे जहाँ-जहाँ रहे उन्होंने वहां का जीवन और वहां की वेशभूषा और खानपान अपनाया और बेहतरीन रिपोर्टिंग की. 1992 में रूस के पतन पर लिखा उनका संस्मरण ‘गुडनाईट मिस्टर लेनिन’ इसका एक उत्कृष्ट नमूना है.
गाब्रीएल गार्सिया मारकेज़ ने एक जगह लिखा है कि हर भले आदमी को धार्मिक होने की जगह अन्धविश्वासी होना चाहिए. तिज़ियानो की ऐसी एक विचित्र आदत थी. वे जहाँ भी जाते वहां के ज्योतिषियों से ज़रूर सलाह लिया करते थे. 1976 में जब वे हांगकांग में थे एक भविष्यवक्ता ने उनसे कहा था कि सत्रह साल बाद यानी 1993 में उन्हें हवाई यात्रा करने से बचना चाहिए क्योंकि उसमें उनकी मृत्यु का खतरा है. तिज़ियानो ने उस साल के बारह महीने हवाई यात्रा नहीं की और अपनी किताब ‘अ फार्च्यून टेलर टोल्ड मी’ में वे बताते हैं कि इस तरह उन्होंने वाकई एक ऐसी हवाई यात्रा दुर्घटना से खुद को बचाया जिसे अन्यथा वे हर हाल में करने वाले थे.
उन्होंने वियतनाम के युद्ध की असाधारण कवरेज की और अपने अनुभवों को एक पुस्तक की सूरत दी जिसकी जिसकी शुरुआत में वे कहते हैं – “युद्ध बहुत उदास करता है. इससे भी बुरी बात यह है कि आपको उसकी आदत पड़ जाती है.”
कम्बोडिया में पोल पॉट के समय के हिंसात्मक समय को लेकर भी उनकी दो किताबें हैं. कुछ सालों बाद वे चीन गए जहाँ उन्होंने “सत्ता के निर्दयी तर्क” को समझा. 1984 में उन्होंने जो लेख लिखे उनके कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया और प्रतिक्रांतिकारी गतिविधियों में “लिप्त रहने” के कारण निर्वासित कर दिया गया. उस साल उन्होंने एक किताब लिखी – ‘बिहाइंड द फॉरबिडन डोर’. 1990 के दशक के मध्य में वे दिल्ली आये और उसके बाद उन्होंने बिनसर-कसारदेवी का रुख किया.
यह बड़ी विडम्बना कही जा सकती है कि किसी भविष्यवक्ता ने उन्हें यह नहीं बताया कि 1997 में पता लगेगा कि उन्हें कैंसर है और यह भी कि उनकी मृत्यु कभी भी हो सकती है. इस मुश्किल दौर में वे बिनसर में रहे. बिनसर से वे अफगानिस्तान भी गए जहाँ उन्होंने ‘लेटर्स अगेंस्ट द वार’ के नाम से एक शानदार किताब लिखी. तिज़ियानो की किताबें साल-दर-साल इटली की बेस्टसेलर्स लिस्ट में सबसे ऊंचे स्थानों पर बनी रहीं. जीवन के अंतिम बीसेक सालों में उन्होंने ऐसी ही लोकप्रियता अंग्रेज़ी-भाषी संसार में भी पा ली थी.
अपने दोस्त पत्रकार दोस्त पीटर पोफैम से एक बार तिज़ियानो ने कहा था – “हम फ्लोरेंस वालों के भीतर इन्फीरियोरिटी काम्प्लेक्स की उल्टी एक चीज़ होती है!” फ्लोरेंस वालों को कोई शक-शुबहा नहीं रहा कि वे दुनिया की सबसे मानव विकसित सभ्यता का हिस्सा हैं. सतही तौर पर उनके जीवन को देखने वाले उन्हें बेमौसम का हिप्पी भी कह देते हैं लेकिन तिज़ियानो एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने घर से बेहद दूर रहते हुए भी बदलते हुए और हलचल भरे समय में भी खुद को पा लिया था. पाने की इस असाधारण यात्रा के दौरान उन्होंने मौत का सामना करने को वैसा ही असाधारण हौसला भी इकठ्ठा कर लिया था. 28 जुलाई 2004 को इटली के ओरसिना में उनकी मृत्यु के दो माह बाद उनके शहर फ्लोरेंस ने उन्हें मृत्योपरांत अपना सबसे बड़ा नागरिक सम्मान भी दिया.
बिनसर में रहते हुए तिज़ियानो ने जीवन के सबसे जटिल और मुश्किल सवालों से साक्षात्कार किया. मृत्यु उनमें सबसे बड़ा सवाल थी. बिनसर में रहने वाले उनके दोस्त विवेक दत्ता के पौत्र अर्जुन उन दिनों नैनीताल के शेरवुड स्कूल में पढ़ते थे. अर्जुन के बचपन की ढेर सारी स्मृतियों में तिज़ियानो की ढेर सारी उपस्थिति है. अर्जुन से मैंने पूछा कि तिज़ियानो की सबसे बड़ी ख़ूबी क्या थी. “उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर कमाल का था और वे पूरी तरह से मुक्त इंसान थे.”
उनके बड़प्पन को याद करते हुए अल्मोड़ा में रहने वाले जयमित्र बिष्ट कहते हैं कि सतत हँसते रहने वाले तिज़ियानो सांता क्लॉज सरीखे दीखते थे. जयमित्र उन्हें अपना खींचा दलाई लामा का एक फोटो भेंट देने गए थे. तिज़ियानो का दलाई लामा से व्यक्तिगत संपर्क रहा था और वे उन्हें बहुत मानते थे. दलाई लामा अल्मोड़ा आये थे लेकिन दोनों की मुलाक़ात नहीं सकी थी. तिज़ियानो ने बहुत कृतज्ञता जताते हुए जयमित्र को अपनी नवीनतम किताब ‘लेटर्स अगेंस्ट द वार’ की हस्ताक्षर की हुई एक प्रति उपहार में दी. जयमित्र जाने लगे तो दुनिया भर में जाने जाने वाले उस सचमुच बड़े लेखक ने उनसे आग्रह किया कि अपने खींचे फोटो में वे भी दस्तखत करते जाएँ.
उनके बारे में एक शानदार क़िस्सा प्रशांत सुनाते हैं. दिल्ली प्रवास के दौरान तिज़ियानो एक विदेशी राजनयिक के घर दावत में बुलाये गए थे. मेहमानों में से किसी एक ने राजनयिक के घर खानसामे का काम करने वाले नेपाली व्यक्ति की पत्नी के साथ कुछ छेड़खानी कर दी. क्रुद्ध खानसामे ने उक्त मेहमान को एक हाथ धर दिया. इस तमाशे को सभी ने देखा. मेज़बान राजनयिक ने गुस्से में चीखते हुए नेपाली खानसामे को डांटते हुए घर से निकल जाने को कहा – “यू आर फायर्ड!” पल बीतने से पहले तिज़ियानो उतनी ही तेज़ आवाज़ में नेपाली से मुखातिब हुए – “यू आर हायर्ड!” उस घटना के बाद उक्त नेपाली परिवार तब तक तिज़ियानो के घर काम करता रहा जब तक वे दिल्ली में पोस्टेड रहे.
– अशोक पाण्डे
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…
View Comments
पहले भी पढ़ा था यहाँ फिर दुबारा पढ़ कर अच्छा महसूस हुआ। बहुत सुन्दर।
आपके सारे लेख कमाल के हैं। पहले इतने स्पष्ट और जानकारी भरे लेख नही पढ़े उत्तराखंड से सम्बंधित। आभर।
अत्यंत रोचक!