हम हिमालय के चौकीदार, मांग रहे अपनी पगार
उत्तराखंड में निर्माणाधीन ऑल वेदर रोड पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के पर्यावरण के आधार पर निर्माण कार्य रोके जाने के बाद हिमालय समाज खासकर उत्तराखंड में विकास, विकास के मॉडल, पर्यावरण संरक्षण और इसके एवज में मिलने वाले प्रस्तावित ग्रीन बोनस पर चर्चा शुरू हो गई है.
जिस प्रकार हिमालय के भीतर अत्यधिक भूगर्भीय हलचल है ठीक उसी प्रकार हिमालयी समाज खासकर उत्तराखंड में विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच चल रहे द्वंद को लेकर अत्यधिक मतभेद है. जहां पर्यावरणवादी विचारधारा किसी भी प्रकार के बड़े निर्माण और बांधों को न केवल पर्यावरण के लिए बल्कि हिमालय की मूल अवधारणा के लिए भी खतरनाक बताते हैं वहीं विकास के अवसर पर बराबरी का हक जताने वाले युवा तथा एक बड़े वर्ग की यह सोच है कि उत्तराखंड का विकास बड़ी परियोजनाओं से आ रहे आर्थिक लाभ से ज्यादा तेजी से हो सकता है. उन्हें इस बात से भी नाराजगी है कि आखिर कब तक उत्तराखंड और हिमालयी समाज पर्यावरण संरक्षण की कीमत चुकाता रहेगा और खुद विकास की दौड़ में पिछड़ कर, सन्यासी बन कर रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य से वंचित रहेगा. इन बुनियादी सुविधाओं के अभाव में ही आज उत्तराखंड में 3900 से अधिक गांव खाली हो चुके हैं. पलायन उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र का इस दौर का सबसे बड़ा संकट है और इस संकट का समाधान सिर्फ पर्यावरण संरक्षण की सोच से ही नहीं किया जा सकता.
हिमालय है कुछ खास
दुनिया में एक हिमालय ही ऐसा पर्वत है जो न केवल भारत एक राष्ट्र की, उत्तरी भौगोलिक सीमा बनाता है बल्कि पूरे भारत के ऋतुचक्र का भी निर्धारण करता है. हिन्द महासागर से उड़ कर आ रही अथाह जलराशि को अपनी शीतलता और ऊचाई से झुकाकर यहीं बरसने को विवश भी करता है. इस प्रकार हिमालय का संरक्षण न केवल पर्यावरण की दृष्टि से बल्कि देश की आर्थिकी को प्रभावित करने वाले ऋतु चक्र को बचाए रखने के लिए भी आवश्यक है.
जब तक प्रगति का मतलब सड़क और बड़े निर्माण न थे. तब तक हिमालय और हिमालयवासियों के भीतर ऐसा असंतोष और संघर्ष न था . सड़क पहुंचने के साथ ही साथ आधुनिक विकास का सपना भी हिमालय तक पहुंचा. हिमालय की नई पीढ़ी ने विकास के नए माडल, जहां बडे बांध की बिजली बेचकर, और उच्च हिमालय के सीने को चीर पर्यटन को तीर्थाटन से अलग उद्योग बनाने के सपने दिखाए तभी से हिमालय वासियों ने कुवैत के शेख की तरह धन्नासेठ होने का सपना पाल लिया.
लेकिन बढ़ती हुई पर्यावरण चेतना ने नव हिमालय पुत्रो के मार्ग में बड़ी बाधा खड़ी कर दी जब वर्ष 2009 में भागीरथी विशेष इको सेंसेटिव जोन की घोषणा कर उच्च हिमालय क्षेत्र में बड़े बांधों तथा बड़े निर्माण पर रोक लगा दी जिसके चलते उत्तराखंड में दर्जनों निर्माणाधीन बांधो का काम रूक गया. जिसमें महत्वपूर्ण लोहारी नागपाला, भैरव घाटी, मनैरी-भाली आदि जलविद्युत परियोजनाएं मुख्य हैं. तभी से उत्तराखंड के युवाओं के भीतर एक विचार तेजी से पनप रहा है. पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उत्तराखंड के विकास की ही बलि क्यों दी जा रही है। क्या पर्यावरण संरक्षण सिर्फ उत्तराखंड की ही जिम्मेदारी है? और अगर ऐसा है तो इस तपस्या के बदले उत्तराखंड को मिल क्या रहा है?
वर्ष 2011 मे यूपीए सरकार के पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने हिमालयी राज्यों के देश के पर्यावरण संरक्षण में किए जा रहे योगदान के एवज में कुल विकास बजट के 2% का अंश हिमालई राज्यों को ग्रीन बोनस में दिए जाने का प्रस्ताव सैद्धांतिक रूप से स्वीकार किया. 14वें वित्त आयोग मैं श्री बी के चतुर्वेदी की अध्यक्षता में गठित समिति ने इस रिपोर्ट को सरकार के समक्ष रखा जिसे सरकार द्वारा स्वीकार भी कर लिया गया. इस लिहाज से 10000 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष 10 हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस के रूप में दिया जाना स्वीकार किया गया इस अनुमान से उत्तराखंड के हिस्से यह राशि 1000 करो प्रतिवर्ष आ रही थी. ग्रीन बोनस का यह आंगणन न्याय पूर्ण नही था. लगभग 71.5 प्रतिशत वन आच्छादित राज्य लगभग तीन लाख करोड़ प्रतिवर्ष पर्यावरण संरक्षण में राष्ट्र को अपनी सेवाएं देता है. अकेले वनों से ही यह योगदान 98 हजार करोड़ का बनता है.
ग्रीन बोनस की यह राशि भी अभी तक सपना है 15वें वित्त आयोग ने इस ग्रीन बोनस राशि के भुगतान के तरीके आदि आदि पर अपनी कोई सहमति अभी तक प्रकट नहीं की है एक ओर पर्यावरण के नाम पर एन.जी.टी द्वारा रोज नए नए आदेश पारित कर उत्तराखंड के परंपरागत आर्थिकी के साधन बुग्याल, अनवाल, घट्ट, घराट, साहसिक पर्यटन आदि सब खतरे में डाल दिए हैं. पर्यावरण संरक्षण के लिए रोज पारित हो रहे नए-नए आदेशों से एक अज्ञात भय आम जनमानस में है.
हिमालय वासियों के त्याग की कीमत ग्रीन बोनस के रूप में देकर सरकार हिमालय क्षेत्र के निवासियों के कष्टों को थोड़ा कम कर सकती है. उस पर अभी कोई मत नहीं बना सका है. अगर बढ़ी हुई दरों पर ग्रीन बोनस उत्तराखंड को प्राप्त होता है तो इस प्राप्त राशि के एक बड़े हिस्से को सीधे पंचायत के माध्यम से उच्च पर्वतीय क्षेत्र की ग्राम पंचायतों के द्वारा पर्यावरण चेतना और सुरक्षा के दल गठित करने में खर्च कर हिमालयी क्षेत्र की आर्थिकी को मजबूत किया जा सकता है. एक विस्तृत और प्रभावशाली विकास कार्यक्रम बनाकर ग्रीन बोनस की राशि से पहाड़ों में हो रहे पलायन को भी रोका जा सकता है. पर्यावरण पर अदालतों के फैसले के बाद ग्रीन बोनस पर मुखर पैरवी किए जाने का यही सही वक्त भी है.
प्रमोद साह
हल्द्वानी में रहने वाले प्रमोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.
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हिमालय के संरक्षण के प्रति जागरूकता, आपका गहन चिंतन वास्तव में प्रशंशनीय है,आपका यह लेख अन्य लोगों में अपने अधिकारों के प्रति जागृति पैदा करेगा सही वक्त पर सही मांग।