Featured

पिथौरागढ़ की असुराचूल चोटी में असुर देवता का मंदिर

उत्तराखंड में देवी-देवताओं को ही नहीं असुरों व दानवों की भी पूजा की जाती है. यहां देवताओं की तरह पूजे जाने वाले असुरों के पूजा स्थल भी मौजूद हैं. ऐसा ही एक स्थान है पिथौरागढ़ में सिलथाम बस अड्डे के सामने असुरचूल नाम की पहाड़ी चोटी. इस चोटी को असुर देवता का वास स्थल माना जाता है. असुरचूल के अलावा खड़ायत पट्टी और गौरंग देश में मोष्टा देवता के साथ इसके भी जागर लगाये जाते हैं. (Temple of Asura Devta Pithoragarh)

इसकी पूजा के बारे में कई जनश्रुतियां प्रचलित हैं. एक के अनुसार— पुरातन काल में सोर का क्षेत्र एक विशाल जलाशय था और इसके चरों ओर घने जंगल थे. यहां पर ऋषि-मुनियों के आशीर्वाद से वह असुर योनि से मुक्त होकर देवत्व को प्राप्त हो गए. तभी से इन्हें देवता के रूप में पूजा जाता है.

दूसरी के अनुसार— असुरदेवता के रूप में पूजे जाने वाले यह देव किसी असुर देवता कन्या से उत्पन्न  इन्द्रदेव की संतति था. बड़ा होने पर जब यह इंद्र देव के पास अपना अधिकार मांगने गया तो उन्होंने इसे अपना पुत्र मानने से मना कर दिया. जब अपना अधिकार मांगने के लिए जिद करने लगा तो इंद्र ने उसे ख़त्म करने के लिए वज्र से प्रहार किया. वज्र उसे बिना नुकसान पहुंचाए बिना इंद्र के पास वापस चला आया. तब मजबूरन इंद्र को उसे अपना पुत्र स्वीकार करना पड़ा और उसे इस क्षेत्र का आधिपत्य देकर भेज दिया. मान्यता है कि इसकी पूजा करने से यह ओलावृष्टि कर फसल को फायदा पहुंचाता है.

एक एनी कथा के हिसाब से यह छिपलाकोट की राजकुमारी के गर्भ से पैदा मलयनाथ का बेटा है. जब छिपलाकोट में छिपुला बंधुओं का राज था तो उस समय छिपुलाकोट की राजरानी भाग्यश्री की सुंदरता पर मोहित होकर मलयनाथ साधू वेश में वहां पहुंचा. वह अपनी तंत्र विद्या के जोर पर उसे अपनी झोली में डालकर सीराकोट ले आया. उसे अपनी रानी बना लिया और अपने पुत्र का नाम असुर रखकर उसे अपने राज्य के दक्षिणी भाग का अधिपति बना लिया.

इसे भी पढ़ें : गोलू देवता की कहानी

मलयनाथ द्वारा छिपुलाकोट की राजकुमारी के अपहरण के कारण मलयनाथ और छिपुलाकोट के बीच वैमनस्य पैदा हो गया. आज भी इनकी पूजा के सम्बन्ध में यह वैमनस्य दिखाई देता है. इसी वजह से मलयनाथ तथा असुरदेवता के अनुयायी छिपुला की जात में हिस्सा नहीं लेते. छिपुला के अनुयायी भी मलयनाथ तथा असुर के मंदिरों का बहिष्कार करते हैं. छिपुलाकोट के मंदिर के पास जलकुंडों में से एक ‘असुरकुंड’ के जल को अपवित्र मान छिपुला जात के यात्री उसमें स्नान नहीं करते.

चंडाक के पास असुरचूल का देवस्थल एक पहाड़ी की चोटी पर खुले आकाश के निचे है. एक लम्बी पत्थर की शिला को उसका प्रतीक मानकर यहां पूजा की जाती है. खीर का प्रसाद चढ़ाया जाता है, इस खीर में मीठे की जगह नमक डाला जाता है. पूजा के मौके पर वाद्यों के साथ सिर्फ तांडव नृत्य किया जाता है.      

(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष प्रो. डीडी शर्मा के आधार पर)

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

3 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

3 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

4 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

5 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

5 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago