समाज

तीलू रौतेली की दास्तान: जन्मदिन विशेष

मध्यकाल में गढ़वाल के पूर्वी सीमान्त के गांवों पर कुमाऊं की पश्चिमी उपत्यकाओं पर बसे कैंतुरा (कत्यूरा) लोग निरंतर छापा मार कर लूटपाट करते रहते थे. अनुमान किया जाता है कि उस काल में गढ़राज्य का विस्तार अभी चौंदकोट परगने की पूर्वी सीमा तक नहीं हो पाया था. उस समय चौंदकोट परगने के गुराड़ नाम के गांव में दो गोरला रावत भाई और उनकी एक बहन तीलू रौतेली रहा करते थे. इन लोगों ने कई सालों तक वहां लूटपाट करने वाले कैंतुरों के साथ लंबा संघर्ष किया था. (The Story of Teelu Rauteli)

इस बीच कांडा (खाटली) में हुए एक युद्ध में दोनों भाईयों की मौत हो गयी. इस दुखद घटना के बाद तीलू रौतेली ने स्थानीय लोगों को इकठ्ठा किया और उनके सहयोग से आक्रान्ताओं का मुकाबला करना शुरू किया. उसके नेतृत्व में उन लोगों ने अनेक बार भौन (इड़ियाकोट), सल्ट महादेव, भिलण भौन और ज्यूड़ालूगढ़ आदि स्थानों पर इन लुटेरों का मुकाबला कर उन्हें पीछे खदेड़ दिया. कहा जाता है कि 15 वर्ष की आयु से 22 वर्ष की आयु तक, जब धोखे से उसकी हत्या कर दी गयी, उस वीरांगना ने अदम्य साहस और पराक्रम के साथ अपनी मातृभूमि की रक्षा की.

1661 ई. में जन्मी पौड़ी गढ़वाल की यह वीरांगना खैरागढ़ के शासक मानकसाह के सरदार तथा चाँदकोट के थोकदार भूपसिंह गैरोला की पुत्री थी. कत्यूरी शासक धामदेव ने जब खैरागढ़ पर आक्रमण किया तो मानशाह गढ़ की रक्षा का भार अपने सरदार भूपसिंह को सौंप कर स्वयं चांदपुर गढ़ी में आ गया. भूपसिंह ने आक्रमणकारी कत्यूरियों का डटकर मुकाबला किया. सराईखेत में कत्यूरियों और गढ़वाली सैनिकों के मध्य घमासान रण हुआ. इस युद्ध में भूपसिंह अपने दो बेटों भगलू और पतवा के साथ वीरगति को प्राप्त हुआ. भूपसिंह के समधी भूम्या नेगी, उनके दामाद भवानसिंह नेगी और बहुत से अन्य योद्धा भी इस संघर्ष में मारे गए.

उस काल में गढ़वाल के पूर्वी सीमान्त के गांवों पर कुमाऊँ के पश्चिमी क्षेत्रों के कैंतुरा वर्ग के लोग बवाल मचाये रखते थे. लूटपाट करने वाले कैंतुराओं द्वारा पैदा की गयी इस अशांत स्थिति में एक बार जब कांडा का वार्षिक लोकोत्सव होने वाला था, तीलू ने अपनी माता से उस में जाने की इच्छा व्यक्त की.

मेले की बात सुनकर उसकी माता को कैंतुरा आक्रान्ताओं के साथ मारे गए अपने पति और दो बेटों की याद आ गयी. उसने अपनी 15 वर्षीया बेटी तीलू से कहा – “यदि आज मेरे पुत्र जीवित होते तो एक न एक दिन वे इन कैंतुरों से अपने पिता की मौत का बदला अवश्य लेते.”

मां के मर्माहत वचनों को सुन तीलू ने उसी क्षण संकल्प लिया कि वह कैंतुरों से प्रतिशोध लेगी और खैरागढ़ समेत अपने समीपवर्ती गांवों को इन आक्रान्ताओं से मुकर करायेगी. उसने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आसपास के गांवों में घोषणा करवा दी कि इस वर्ष कांडा का उत्सव नहीं बल्कि आक्रमणकारी कैंतुरों के विनाश का उत्सव होगा. इसके लिए उसने सभी युवा योद्धाओं को सम्मिलित होने के लिए ललकारा. इसका वांछित परिणाम हुआ और क्षेत्र के सभी युवक और योद्धा तैयार हो गए. नियत दिन पर उनका नेतृत्व करने के लिए वीरांगना तीलू योद्धाओं का बाना पहन, सात में अस्त्र-शस्त्र लेकर अपनी घोड़ी बिंदुली पर सवार होकर अपने सहयोगियों के साथ युद्ध के लिए निकल पड़ी.

उसके नेतृत्व में सबसे पहले उन्होंने खैरागढ़ के उस किले को आक्रमणकारियों से मुक्त कराया जो उस पर अपना अधिकार जमाये बैठे थे. इसके बाद उसने कालीखान पर कब्जा करने के इरादे से उसी दिशा में बढ़ते हुए कैंतुरों को वहां से भी खदेड़ा.

(The Story of Teelu Rauteli)

तत्पश्चात अगले सात वर्षों तक वह लगातार  अपने क्षेत्र को इन लुटेरे-आक्रान्ताओं से मुक्त कराने हेतु संघर्षरत रही. इस कालावधि में उसने अपनी सैन्य टुकड़ियों का सफल नेतृत्व करते हुए आसपास के क्षेत्रों – सौन, इड़ियाकोट, भौन, ज्यूड़ालूगढ़, सल्ट, चौखुटिया, कालिकाखान, बीरोंखाल आदि को मुक्त करवा कर वहां शान्ति स्थापित कर दी.

इतने लम्बे समय तक संघर्षरत रहने के उपरान्त बीरोंखाल पहुँचने पर उसने कुछ दिन वहां विश्राम करने के इरादे से पड़ाव डाला और सैनिकों को कांडा भेज दिया. इस क्रम में जब वह तल्ला कांडा में नयार के पास से गुज़र रही थी तो उसके मन में आया कि एक बार नयार में स्नान कर ले. उसने एक स्थान पर सैनिकों को ठहरने को कहा और स्वयं स्नान करने चली गयी.जब वह एकांत में स्नान कर रही थी, मौका पाकर नजदीक ही एक झाड़ी में छिपे एक कैंतुरा सैनिक रामू रजवार ने धोखे से उस पर वार किया और उसकी हत्या कर दी.

कांडा और बीरोंखाल के इलाके में हर वर्ष  तीलू की स्मृति में एक मेले का आयोजन  होता है और पारंपरिक वाद्यों  के साथ जुलूस निकालकर उसकी मूर्ति की पूजा की जाती है.

तीलू रौतेली की को याद करते हुए गढ़वाल मंडल में अनेक गीत भी प्रचलित हैं. उत्तराखंड की सरकार हर वर्ष उल्लेखनीय कार्य करने वाली स्त्रियों को तीलू रौतेली पुरुस्कार से सम्मानित करती है.

(The Story of Teelu Rauteli)

(प्रो. डी. डी. शर्मा के ‘उत्तराखंड ज्ञानकोष‘ और अन्य सामग्रियों के आधार पर)

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago