रूप कुंड में मानव कंकाल पाए जाने के विषय में एक अन्य रोचक कहानी और भी चलन में है. जो पहली कहानी से बिलकुल अलग है.
पहली कहानी: क्या है रूप कुंड की मानव अस्थियों का सच
देवी पार्वती, जिन्हें स्थानीय बोली में देवी भगवती भी कहा जाता है, शंकर भगवान से ब्याही गई. ऋषियों ने कन्यादान के रूप में भगवती को अयोध्या में कुछ भूमि दान में दी. कुछ समय अयोध्या में वास करने के बाद शंकर-पार्वती ने कैलास पर्वत जाने का निश्चय किया. वे अपने भक्तों और अन्य देवी-देवताओं के साथ कैलास के लिए चल पड़े.
यह दल भाबर होता हुआ डंगोली पहुंचा. डंगोली में भगवती की बहन झालीमाली रहती हैं. सितम्बर में उनकी सम्मान में यहाँ मेला भी लगा करता है. डंगोली होता हुआ यह दल ग्वालदम पहुंचा.
आगे बढ़ने पर दल की सदस्या नन्दकेसरी थक गयी और उन्होंने वहीं आराम करना चाह. नन्दकेसरी के वहीँ रुक जाने से उस जगह का नाम नन्दकेसरी कहा जाने लगा.
अगला पड़ाव था मुन्दोली, जहाँ दल के रक्षक ने लोहाजंग, आली होते हुए मार्ग तय किया. आली पहुंचकर देवी को समीपवर्ती गाँव बेदिनी बहुत पसंद आया. उन्होंने बेदिनी में एक कुंद बनाना चाहा किन्तु गाँव वाले उन्हें वहां बसने देने को तैयार नहीं हुए. अतः उन्हें वाण जाना पड़ा.
वान से वे देओलपाटा गए, यहाँ से दिखाई देने वाली आली की सुषमा ने देवी का मन मोह लिया. उन्होंने आली को अपना घर बनाया, लेकिन ज्यादा दिनों तक वहां नहीं रह सकीं.
वे फिर वाण से गैरोली पातल आए. गैरोली से 3 किमी उत्तर जाने पर दल के एक सदस्य डोलीदेव ने वहीँ डेरा जमा लिया और इस जगह को डोलियाधार कहा गया. दोबारा बेदिनी पहुँचने पर गाँव वालों ने कोई आपत्ति नहीं की. बेदिनी में एक कुंड बनाया गया और भगवती के सम्मान में मंदिर भी.
अगले पड़ाव में दल की पातरों (नृतकियों) ने नृत्य दिखा कर मनोरंजन किया. नृत्य के बाद थक जाने से वे वहीं रुक गयीं लिहाजा इस जगह लो पातरनच्योनी कहा गया.
आगे चलकर कैलदेव ने भगवती से यहीं रुक जाने की अनुमति मांगी. देवी ने अनुमति के साथ उनकी विधिवत पूजा किये जाने का भी वचन दिया. इस जगह को कैलवाविनायक कहा गया.
कुछ आगे चलने पर देवी के वहां बाघ ने आगे बढ़ने में असमर्थता जताई. उसके वहीँ रुक जाने के कारण यह स्थान बघुबासा कहलाया.
छिड़ीनाग पहुंचने पर नाग देवता वहीँ बस गए.
दल का अगला पड़ाव था रूप कुंड, जहाँ रुप्त देव ठहर गए. शेष दल आगे बढ़ता हुआ ज्योरान्गली पहुंचा.
इसके बाद भगवती के 2 सेवक देव सिंह और लाटू उन्हें डोली में बैठाकर शिलासमुद्र होते हुए कैलास ले गए. इस सेवा की वजह से देव सिंह और लाटू को देवता का दर्जा दिया गया.
(पहाड़-18 में डी. एन. मजूमदार के आलेख रूपकुण्ड रहस्य के आधार पर)
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