संस्कृति

इसलिए ख़ास है अल्मोड़ा का दशहरा

हर त्यौहार हर्ष, उल्लास व आपसी सौहार्द का प्रतीक है, जिसमें सभी लोग अपनी संस्कृति के रंग में रंग जाते हैं. त्यौहार को भाईचारा, प्रेम व पवित्रता का संगम कहा जाए तो गलत नहीं होगा. (Dussehra Almora Nishtha Pathak)

भारत में मनाये जाने वाले त्यौहारों में नवरात्रि व दशहरा पर्व बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. शारदीय नवरात्रि में  मां दुर्गा को समर्पित 9 दिन व असत्य पर सत्य की विजय का पर्व दशहरा या विजयदशमी.

यूं तो यह दोनों ही उत्सव पूरे भारतवर्ष में बहुत आनंद व उत्साह के साथ मनाए जाते हैं. परंतु अल्मोड़ा शहर का नवरात्र और दशहरा अपनी कई खासियतों की वजह से अलग मुकाम रखता है. मैसूर और कुल्लू के बाद अल्मोड़ा का दशहरा व नवरात्रि संपूर्ण विश्व के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है.

अल्मोड़ा में त्यौहारों का मौसम शारदीय नवरात्र के आगमन से ही शुरू हो जाता है. पहले दिन से ही शहर में विभिन्न स्थानों पर रामलीला का मंचन भी किया जाने लगता है और दुर्गा पंडाल भी सज जाते हैं. ऐसा लगता है मानो पूरा शहर उत्सवों के सागर में डूब गया हो. यह माहौल न केवल आध्यात्मिक शक्ति बल्कि मानसिक व शारीरिक शक्ति भी प्रदान करता है.

दस्तावेजों की माने तो अल्मोड़ा में दशहरा पर्व की शुरुआत सन् 1936 से हुई थी. परंतु स्थानीय लोगों के अनुसार अल्मोड़ा में भव्य दशहरा पर्व सन् 1913–15 से प्रारंभ हुआ था. शुरुआती दौर में यहां केवल रावण का पुतला बनाया व जलाया जाता था. सन् 1974 के बाद से यहां मेघनाथ, कुंभकरण, ताड़का, खरदूषण, त्रिशला सहित रावण परिवार के कुल 22 पुतले बनाए व जलाए जाने लगे, इनकी संख्या घटती वह बढ़ती रहती है. शहर में इन पुतलो की भव्य यात्रा निकाली जाती है, जिसमें आगे रावण परिवार के पुतले व अंत में राम दरबार सम्मिलित होता है. शहर में इस शोभायात्रा को देखने भारी जन सैलाब उमड़ पड़ता है. यह जन सैलाब, यह उत्साह यह उमंग न केवल शहर की धनी सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है बल्कि यह शिल्पकारों, पुतला निर्माताओं की कला के प्रति सम्मान की भावना भी व्यक्त करता है. रावण परिवार के पुतलों का श्रृंगार करके उन्हें अत्यधिक सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया जाता है. सबसे उत्कृष्ट पुतला निर्माता को पुरस्कृत भी किया जाता है. अंत में इन पुतलों को जलाया जाता है जो यह प्रदर्शित करता है की बुराई कितना भी खुद का प्रसार कर ले. अंत में विजय सत्य व धर्म की ही होती है, पूरा शहर ‘जय श्री राम’ के नारों से गूंज उठता है.

अल्मोड़ा के दशहरे की तरह ही ख़ास है यहाँ की रामलीला. शहर में पहली बार रामलीला का मंचन सन् 1860 में देवीदत्त जोशी द्वारा आयोजित किया गया. यह मंचन उसी स्थान पर किया गया था जहां वर्तमान में विशाल व भव्य बद्रेश्वर मंदिर स्थापित है. परंतु सन् 1931 में जमीन का विवाद उठने के कारण यहां रामलीला मंचन करना कठिन हो गया था. वर्तमान में शहर में 9 से अधिक स्थानों पर रामलीला का मंचन किया जाता है. जिसमें नंदा देवी, सरकार की आली, कर्नाटक खोला, हुक्का क्लब आदि स्थान प्रमुख है. शहर के जाने-माने रंगकर्मी और साहित्यकार, जो प्रतिष्ठित पत्रिका ‘पुरवासी’ के संपादक भी हैं, राजेंद्र सिंह बोरा ‘त्रिभुवन गिरी’ हमें बताते हैं कि वे किस तरह पुराने समय से ही रामलीला में विभिन्न किरदार निभाते आ रहे हैं. दशरथ, विप्रहनुमान आदि–आदि पात्रों का मंचन करने के साथ ही वह अन्य पात्रों को भी प्रशिक्षण देने का कार्य करते हैं. राजेंद्र बोरा अपनी टीम के साथ मध्य प्रदेश में भी अल्मोड़ा की रामलीला का मंचन कर चुके हैं.

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पुराने समय की रामलीला और दशहरा पर्व में समय बीतने व तकनीकी विकास की चलते बहुत अधिक अंतर आया है. परंतु अल्मोड़ा के शिल्पकार, कलाकार व स्थानीय निवासी आज भी अल्मोड़ा की दशहरे पर्व की महत्वता को, इसकी विशेषता को बनाए हुए हैं. अल्मोड़ा का दशहरा महोत्सव आज भी अपनी अलग पहचान कायम रखे हुए हैं. (Dussehra Almora Nishtha Pathak)

निष्ठा पाठक जी. बी. पंत विश्विद्यालय, पंतनगर में कॉलेज ऑफ कम्युनिटी साइंस, डिपार्टमेंट ऑफ एक्सटेंशन एजुकेशन एंड कम्युनिकेशन की होनहार छात्रा हैं. अल्मोड़ा की रहने वाली निष्ठा इस समय अपनी पढ़ाई के सिलसिले में ‘काफल ट्री’ के लिए इंटर्नशिप कर रही हैं.

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Sudhir Kumar

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