अंग्रेजों को कुमाऊं और गढ़वाल की जलवायु, प्राकृतिक रचना, वनस्पति आदि अपने देश की जैसी लगी सो अंग्रेजों ने अपनी पलटन और उनके परिवारों के ग्रीष्मकालीन आवास हेतु स्थान चयन के लिए मेजर लेंग को कुमाऊँ भेजा. 1827 में डॉ. रायल ने उस समय के गवर्नर जनरल सर एमस्हर्ट को यह सुझाव दिया कि कुमाऊँ-गढ़वाल की जलवायु चाय की खेती के लिए बड़ी मुफ़ीद है इसलिए ब्रिटेन के सम्पन्न परिवारों को चाय बागान लगाने हेतु बसाया जाये.
(Tea Cultivation History Chaubatia Uttarakhand)
ब्रिटेन में जब यह खबर पहुंची तो कई अंग्रेज परिवार कुमाऊँ के विभिन्न इलाकों में बसने लगे. 1830 से 1856 के बीच भीमताल, घोड़ाखाल, रामगढ़, मुक्तेश्वर, जलना, बिनसर, कौसानी, लोहाघाट, दूनागिरि, लोध और रानीखेत आदि स्थानों में आकर अनेक यूरोपीय आकर बसे.
कम्पनी सरकार ने इन परिवारों को चाय बागान लगाने के लिये बड़ी मात्रा में भूमि आवंटित की. यह जमीन ‘फ्री सैंपल इस्टेट’ कहलाती थी. इस्टेट के मालिकों को मालिकाना अधिकार के साथ-साथ अनेक सुविधाएं भी दी गयी. इन्हीं परिवारों में से एक ट्रुप परिवार भी था. इस परिवार के अनेक सदस्य ब्रिटिश सेना में उच्च पदों पर थे. इसी परिवार ने चौबटिया से रानीखेत धोबीघाट के बीच चाय बागान स्थापित किया. स्थानीय लोगों ने इसका नाम ‘चहाबगिच’ कर दिया.
1909 में मुजफ्फरनगर के लाला सुखवीर सिंह कश्मीर से किसी तरह छुपा कर केसर के 33 कन्द रानीखेत लेकर लाये. केसर के इन कंद को सुखवीर सिंह ने नौर्मन गिल को दिया. नौर्मन गिल ने इसे कचहरी गार्डन नैनीताल तथा ज्योलीकोट में लगाया पर ये नहीं जम पाये और सड़ गये.
नौर्मन गिल ने 1910 में हालैण्ड की फर्म मैसर्स डी. सी. ग्रेफ्ट ब्रौस लिमिटेड से 5000 कन्द मंगवा कर कुमाऊँ के प्रगतिशील उद्यानपतियों को परीक्षण के तौर पर बिना कोई पैसा लिये बांटे. इसी साल उन्होंने इंग्लैण्ड से सतावर का बीज मंगवा कर चौबटिया आदि जगहों पर बोया.
(Tea Cultivation History Chaubatia Uttarakhand)
नोट- वरिष्ठ इतिहासकार अजय रावत की किताब ‘उत्तराखंड का समग्र राजनैतिक इतिहास‘ के आधार पर.
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