फोटो : पंकज सिंह बिष्ट
आज वैश्विक स्तर पर शरीर में तरह-तरह के टैटू गुदवाने का प्रचलन है. भारत में भी इसका प्रचलन जोरों पर है. विश्व में टैटू बनाने के कोर्स चलते हैं, जिसका एक अपना बड़ा बाजार है. भारत में बड़े शहरों में आपको शरीर में टैटू बनाने वाली दुकानें दिख जायेंगी. वहीं छोटे कस्बों में मेले इत्यादि में मशीन से टैटू बनाने वाले मिल जायेंगे.
पहाड़ों में भी इसका प्रचलन काफ़ी है, यहां मेलों में, उत्सवों में हमेशा शरीर में टैटू उकेरने वाले अक्सर मिल जाते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि पहाड़ों में मशीन से टैटू बनाने से पहले भी टैटू बनाये जाते थे.
पहाड़ों में शरीर में आकृति उकेरने का प्रचलन बहुत लम्बे समय से है. शुरुआत में लोग संस्कृत का कोई मंत्र, शिवलिंग, ॐ इत्यादि की आकृति अपनी बाह में बनवाते थे. टैटू बनाने का कार्य टम्टा जाति के लोग करते थे. इसके लिये किसी भी प्रकार की मशीन का प्रयोग नहीं किया जाता था.
कुमाऊनी में अंगों को गोदकर आकृति उभारने को गाजो कहा जाता था. इसके लिये किसी नुकीले कांटे का उपयोग किया जाता था. सबसे मजबूत और लम्बा होने के कारण अक्सर किलमोड़े के कांटे से ही टैटू शरीर के विभिन्न भागों में गोदा जाता था.
टैटू बनाने के लिये पांच या सात प्रकार के रंगों का प्रयोग किया जाता था. जिसमें तवे के नीचे की खरोंच, काली बकरी का दूध, चीड़ के पेड़ों से प्राप्त लीसा, बाजार में मिलने वाली हरी स्याही और लड़के की मां के स्तन का दूध आदि चीजों को मिलाया जाता.
इसके बाद इसे किलमोड़े के कांटे के मुंह पर रंग लगाकर शरीर के उस भाग में गोदा जाता जहां पर आकृति उकेरनी होती. वहां पर छेदकर खून निकालते और बार-बार गोदते जिससे उसमें रंग भर जाता. लोग देवताओं की आकृति, फूल-पत्ती इत्यादि अपने शरीर में गुदवाते. अक्सर टैटू बनाने वाले मेलों में मिल जाया करते. स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने के कारण इस तरह का प्रचलन अब नहीं है.
–काफल ट्री डेस्क
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