टनकपुर आज तक कुमाऊं के इतिहास में चर्चित रहा अपने रेलवे जंक्शन के कारण, नेपाल से लगी अपनी सीमा के कारण, मां पूर्णागिरि के शक्तिपीठ के कारण, परंतु आज से टनकपुर की एक और पहचान जुड़ गई है और वह है अपने ऐतिहासिक आयोजन किताब कौथिग के कारण. जी हां, इस शहर को आज से पहले कभी किसी ने इतने बेहतरीन तरीके से नहीं समझा था जितना इस दो दिवसीय आयोजन ने लोगों के मन मस्तिष्क में इस शहर के प्रति अपनी छाप छोड़ दी.
(Tanakpur Kitab Kauthig Day 1)
24 दिसंबर की गुनगुनी सर्द सुबह, राजकीय इंटर कॉलेज के विशाल प्रांगण में अपनी किताबों की पेटियां समेटे कई प्रकाशक पहुंच चुके थे. विभिन्न विद्यालयों के बच्चे उत्सुक थे, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रदर्शन के लिए. एक साथ इतनी किताबें, काव्य संकलन, यात्रा संस्मरण, बाल साहित्य, आत्मकथाएं मैंने अपने जीवन में पहले शायद ही कभी देखी हों. मैं अभिभूत थी. एक पल के लिए मन बाल्यावस्था की सुनहरी यादों में खो गया, जब पढ़ने के नाम पर हम सड़क पर गिरे अखबार को उठाकर उसमें से भी कहानियां पढ़ लेते थे. सबसे ज्यादा रौनक बच्चों के चेहरों पर थी. किताबों को उलटते पलटते वे चर्चा कर रहे थे कि कौन सी कहानियां उन्होंने पहले सुनी या पढ़ी हुई है. भिन्न-भिन्न शहरों से लोग इस ऐतिहासिक आयोजन का हिस्सा बनने के लिए पहुंच रहे थे. वे साहित्यकार जिन्हें आज तक उत्तराखंड की प्रतियोगी परीक्षाओं में सिर्फ पढ़ा था, आज आंखों के सामने साक्षात उपस्थित थे. टनकपुर वासियों के लिए यह एक स्वर्णिम अवसर था.
आयोजन समिति के सदस्य हेम पंत, नवल तिवारी, अनिल चौधरी पूरी कर्मठता से लगे हैं उस सपने को साकार करने में जिसे देखने वाली आंखें आज खुद इस आयोजन से कई दूर थी. परंतु यह भी हिमांशु कफल्टिया के व्यक्तित्व की उपलब्धि ही है कि वह इतने शानदार लोगों की टोली अपने पीछे छोड़ गए जो पूरी तन्मयता से लगे हैं, इस आयोजन के संयोजन में.
‘कुमाऊं कौथिग’ का शानदार आगाज हो चुका था. पहली प्रस्तुति ने ही दर्शकों के मन को लुभा दिया. छोटे-छोटे बच्चे छोलिया के रंग बिरंगे परिधानों में इतनी कुशलता से नृत्य कर रहे थे जैसे इस कला में पारंगत होने के लिए उन्होंने बरसों से साधना की हो. पहले मुझे लगा यह रिकॉर्डेड म्यूजिक है. परंतु नहीं, यह प्रतिभावान बच्चे खुद ही ढ़ोल बजा रहे थे और साथ ही साथ गा भी रहे थे.
दर्शक दीर्घा में बच्चों से घिरी हुई मैं कार्यक्रम का आनंद ले रही थी तभी मंच पर आवाज गूंजी -जस्ट इमेजिन. बच्चे चौंक पड़े. वे कह रहे थे- अरे! यह तो वही एक्टर है जो कृष मूवी में थे. अरे हां-हां, बिल्कुल वही है.’
‘ये फिल्मों में भी आते हैं.’
‘हमने इन्हें टीवी पर देखा है.’
बच्चे रोमांचित थे. हाथ उठा-उठा कर हेमंत पांडे का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करना चाह रहे थे. हेमंत पांडे के मंच से उतरते ही उन्हें घेर लिया गया और वे बड़ी सौम्यता के साथ सबको देख सुन भी रहे थे. क्या खूब संयोजन था, किताबों का, कलाकारों का…
ऐसे सुअवसर हमारे बच्चों को मिलते रहें तो निश्चित ही हम बच्चों के लिए एक सुनहरे भविष्य का निर्माण कर पाएंगे. बच्चों के हाथों से मोबाइल नामक परजीवी दूर हट कर अगर किताबें आ गई तो अवश्य ही ज्ञान प्रकाश की गंगा पुनः निकलेगी, आयोजन से मन आशान्वित है.
(Tanakpur Kitab Kauthig Day 1)
मंच पर सत्र चल रहे थे. दूर कहीं पहाड़ी धुन- मांठू मांठू हिट, में मगन होकर एक छोटी बच्ची जबरदस्त डांस कर रही थी. उसका साथ दे रहे थे वयोवृद्ध बालक उदय किरौला. हेम पंत उस क्षण को अपने मोबाइल पर कैद कर रहे थे. अहा! कैसी निश्चल अबोधता. मन गदगद हो गया. मैंने उस बच्ची को अपने आंचल में भर लिया. नाम पूछा तो अपनी भरी हुई नाक अंदर सुड़कते हुए उसने भावना बताया और मुस्कुरा उठी.
इसी बीच मैदान में प्रवेश हुआ पवन भाई का तो मानो हलचल ही मच गई. पवन पहाड़ी आज किस तरह पहाड़ से लेकर भाबर तक के लोगों के दिलों में अपनी जगह बना चुके है, इसका नजारा वहां देखने को मिला. इस कदर लोकप्रियता है पवन की, कि बच्चों से लेकर बड़े बूढ़े सभी उसे अपने आशीर्वाद व प्रेम से ओत-प्रोत कर रहे थे. साथ ही साथ फोटो खिंचवाने को भी लालायित थे. मेरी बुआ चंद्रकला पंत कुछ नेपाली साहित्यकारों की टोली के साथ वहां पहुंच चुकी थी. उन्हीं में से एक ने प्रिय पवन को नेपाली टोपी भेंट की. सीमाएं तो हम मनुष्य की बनाई हुई है, दिलों के प्रेम व संबंध अनंत काल से जुड़े हैं और जुड़े रहेंगे.
सांझ की हल्की लालिमा आसमान में छाने लगी थी और तभी मंच में बासु भाई अपनी संगीत मंडली ले आए. तत्पश्चात जो नृत्य संगीत का समां बंधा, लोगों के पैर अपने आप ही थिरकने लगे. जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ के बोल म्यर हिमाला ने मानो एक क्रांति ला दी. हर कोई झूम उठा. अपनी मातृभूमि को याद करते हुए आंखे नम हो आई कि किन सपनों को लेकर आखिर हमने पृथक राज्य की मांग की थी. क्या सपना था उन आंदोलनकारियों का जिनकी शहादत पर हमने यह राज्य गढ़ा था. परंतु हर ढलता हुआ सूरज उम्मीद देता है एक नए सवेरे की. एक नई शुरुआत की.
यह तमाम लोग जो इस माटी के भावी कर्णधार हैं, आज एकत्रित हैं एक जज्बे के साथ, एक उत्साह के साथ कि आने वाली युवा पीढ़ी को वे दिशाबद्ध कर सकें. हिमांशु कफल्टिया जैसे अफसर प्रमाण हैं इस बात का कि समाज का नेतृत्व अगर योग्य व्यक्तियों के कंधों पर होगा तो वह निश्चय ही अलख जगा सकते हैं.
बासु भाई व राजेन्द्र ढैला की प्रस्तुति ने कार्यक्रम में चार चांद लगा दिए. मंच पर लठ्ठी टेकि, बोझो बोकि, गीत सुनते ही मानो हुजूम उमड़ आया. हेम खोलिया, हेम पंत खुद को रोक न पाए. शालीनता से बैठे हुए अतिथिगण भी अब बेधड़क अपने कदम थिरका रहे थे मानो इस क्षण के आनंद में पूरी तरह से रच बस जाना चाहते हो.
बच्चे भी पूरी लय ताल के साथ इसमें शामिल हो चुके थे. तीन गोलों के झोड़े के साथ इस कार्यक्रम के प्रथम दिवस का समापन हुआ. सरस्वती दी के साथ मैंने भी झोड़े का खूब आनंद लिया. ऐसा लगा मानो दिन शुरू होते ही खत्म हो गया. रात्रि में उदय किरौला के नृत्य ने जीवन का एक और पाठ पढ़ाया- उम्र चाहे कोई भी हो, मन सदैव बच्चे सा रखो, घूमो फिरो, खाओ पियो. जहां मन करता है, दो कदम रुक कर नाच भी लो, खुशियां बिखेरते रहो और मुस्कुराते रहो, जीवन अद्भुत है!
(Tanakpur Kitab Kauthig Day 1)
–पिथौरागढ़ से दीप्ति भट्ट
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