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तख़्ते : उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की कहानी

सुबह का आसमान बादलों से ढका है, आम दिनों से काफ़ी कम आमदोरफ़्त है सड़क पर. दूर नज़र आती छोटा कैलाश पहाड़ी घनी धुंध से ढकी है, बमुश्किल, चोटी का छोटा हिस्सा दीख पड़ता है. सरसरी निगाह से दूकान के आसपास का मुआयना करते हुए उसने कुर्ते की जेब से चाभी निकाली और कुंडे से लटके बड़े ताले को खोला. सांकल गिरने की खड़खड़ाहट से झाँप पर बैठे गौरैया के जोड़े चीं-चीं करते खेतों की तरफ़ उड़ गए. सीढ़ी पर आ बैठे कुत्ते को उसने डपट कर भगा दिया जो उसकी दिशा में दो-एक बार भौंक कर सड़क के दूसरे छोर पर जाकर लेट गया है. काठगोदाम की सवारियां ढोने वाले टेम्पो ड्राइवर से दुआ-सलाम के बीच दामोदर ने ताले-चाभी को, हस्बेमामूल, दीवाल पर गढ़ी मोटी कील से लटका दिया. रोज़मर्रा के इस रूटीन से पिता की यादें बाबस्ता हैं. चीज़ों को सलीके से बरतना और वापस अपनी जगह रखना, उसने बाप की डांट खाकर सीखा था. ‘तूने ताला-चाभी कंटर पर छोड़ दिया और ऊपर से तख्ता रख दिया… चार दिन दूकान पर बैठा तो बांट-तराजू कुछ भी नहीं मिलेगा यहां.’ पास के स्कूल स्टाफ़ क्वार्टर में बज रहे ट्रांज़िस्टर से आते गीत के स्वर माहौल के एकाकीपन को बढ़ा रहे हैं, ‘इस मोड़ से जाते हैं, कुछ सुस्त कदम रस्ते, कुछ तेज़ क़दम राहें…’
(Takhte Story by Umesh Tiwari Vishwas)

केमिस्ट्री लैब का अस्सिस्टेंट यूँ ही दामोदर का फैन नहीं हो गया था. रिएजेंट की कोई शीशी जो मजाल अपनी जगह बदल ले, प्रैक्टिकल क्लास के बाद साफ़ सिंक, स्प्रिट लैंप दराज़ में, प्रयोग में लाई गई टेस्ट ट्यूब बिन में, काउंटर नीट एंड क्लीन.. वह दूसरे बच्चों को दिखाता ‘दामोदर से सीखो बेटा, यहां तो पास हो भी जाओगे पर ज़िन्दगी के प्रैक्टिकल में बीबी चार महिने में छोड़ कर चली जायेगी.’ दरअस्ल, अनुशासन का पाठ पिता ने उसे बचपन में ही रटवा दिया था. आठवीं का विद्यार्थी था, तभी से रोज़ाना स्कूल की पढ़ाई घर पर दोहराने का क़ायदा बना. दूकान के छोटे-मोटे काम भी कर देता तो पिता से प्यार मिलता, मगर ज़रा सी कोताही पर थप्पड़ रसीद कर देते. पिता से आँख मिलाकर बात करने का साहस कभी हुआ नहीं, नई कापी-पेन्सिल जैसी जायज़ डिमांड भी माँ के ज़रिये उनके कानों तक पहुँचानी पड़ती. स्कूल के संगी-साथियों से दामोदार का ज़्यादा मेल-जोल उन्हें पसंद नहीं था. यारी-दोस्ती की आहट भी उन्हें विचलित कर देती. ऊधम काटते बच्चों की लंबी सीटी से चौकन्ने होते पिता उसका चेहरा पढ़ लेते, ‘गँवार छोकरों की संगत में रहेगा तो उल्टी-सीधी बातें ही सीखेगा… हर समय खेलना-खेलना, ये खेल तुझे न नंबर देंगे ना कल को रोटी, समझा!’ दामोदार मन मसोस कर रह जाता, निगाहें क़िताब पर टिकी होतीं और दिमाग़ दोस्तों के साथ.
(Takhte Story by Umesh Tiwari Vishwas)

साल में एक-दो बार मां के साथ ननिहाल में छुट्टियां बिताने का मौक़ा मिलता, वह दामोदर के जीवन में सबसे ख़ुशनुमा दिन होते. स्वच्छंद होकर मामा के बच्चों के साथ धमाचौकड़ी मचाना, देर तक नहर में नहाना, नदी में मछली पकड़ने जाना, सुबह देर से उठना, क़ैद से छूटे दामोदर के मनचाहे शगल बन जाते. ननिहाल से समेटी गई उन्मुक्तता और मस्ती, घर वापसी के बाद उसे अरसे तक सरगर्म रखती.

फिजिक्स में चोट हो गई वर्ना इंटर में फर्स्ट डिवीज़न होती उसकी. दामोदर की ख़्वाहिश थी कि नैनीताल में कॉलेज की पढ़ाई करेगा. इस चाहत के पसमंज़र में एक ख़ास यात्रा थी, जिसपर वह अनायास ही निकला, हुआ यूँ कि बड़े भाई सरीखा कमल, उसे अपने कॉलेज लेकर चला गया. जुलाई महीने की एक अलसाई सुबह थी वह, जब दामोदर उसके साथ कॉलेज पहुंचा. समूचा कैंपस घने कोहरे में लिपटा था. धुंध की परत हवा से छंटती तो शून्य से अनचीन्ही तस्वीर उभर आती. सारा माहौल किसी तिलिस्म के मानिंद था जिसमें दामोदर गुम होता चला गया. क़दम-क़दम पर नूरानी चेहरे नज़र में आते और पलों में ओझल हो जाते.

‘दाज्यू ये बिल्डिंग में क्या है?’ उसने बगल में चल रहे कमल से पूछा.

‘ये असेम्बली हॉल है, यहां बहुत सी एक्टिविटी होती हैं. आजकल बैडमिंटन टूर्नामेंट चल रहा है… वो सामने सी एल टी है, केमिस्ट्री लेक्चर थियेटर.’ हॉल ख़ाली था, क्रमशः ऊँची होती सीटों की कतार दर कतार दामोदर की निगाहों के लिए बिल्कुल नई संरचना थी. चंद क़दम आगे, पथरीली सीढ़ियों से उतरते कमल ने उंगली उठा कर बताया ‘वो रहा मेरा कॉमर्स विभाग… ऊपर ए एन सिंह हॉल है, वहां नाटक होते हैं.’

आख़िरी सीढ़ी के बायीं तरफ़ जालीदार खिड़की पर ‘रसायन विज्ञान विभाग’ की तख़्ती लटकी थी. सीढ़ियों पर क़दमों की धप-धप के बीच कमल की आवाज़ उभरी, ‘ये इंग्लिश डिपार्टमेंट है, राइट में लाइब्रेरी है..ऊपर आर्ट्स की क्लासेज़ चलती हैं.’ कमल का स्वर उसे कहीं दूर से आता मालूम हुआ. अपने दोस्तों से हलो-हाय कहता, किसी से हाथ मिलाता, कोई आकर उससे लिपट जाता, लड़कियों से मुस्कुराते हुए आंखों-आंखों में बात होती… कॉलेज की हर बात अनोखी थी, न कक्षा में पहुंचने की अफ़रा-तफ़री न प्रिंसिपल का कोई डर. इमारतों को आपस में जोड़ते लंबे गलियारे… जिनकी गेरुई छत को हाथों पर उठाये चॉकलेटी खंभों का एक सिलसिला था जिनके बीच से गुज़रना उसके किशोर हृदय को एक अजनबी एहसास से भर रहा था. माहौल में छाई उन्मुक्तता से दामोदर अभिभूत था.
(Takhte Story by Umesh Tiwari Vishwas)

‘यहां नीचे कॉलेज कैंटीन है… सामने हरी छत देख रहा है ना, वह वनस्पति विज्ञान विभाग की बिल्डिंग है.’ कमल की आवाज़ ने उसे जैसे सपने से जगाया, ‘चल तुझे चाय पिलाता हूँ…’ कैंटीन में शोर का ये आलम था कि टेबल पर सामने बैठे शख़्स की आवाज़ मुश्किल से सुनाई पड़े. कमल ने चिल्ला कर आर्डर दिया ‘धीरू दो चाय, दो फेन…’ दामोदर के लिए फेन के साथ पी गई इस चाय के हर घूंट में आज़ादी का स्वाद घुला था. माहौल में ज़िंदगी की सारी हसरतें लीन हो गईं, मंत्रमुग्ध दामोदर इस जगह बार-बार आना चाहता था.

‘दाज्यू इंटर के बाद यहां मेरा एड्मिसन करा दोगे…’

कमल का ध्यान कहीं और था.

उसने दोनों हाथों से तख़्ते को चौड़ाई में थामा और घुटने के हल्के धक्के से खाँचे से बाहर किया. तुन की पक्की लकड़ी से चिरवाये गये तख़्ते ठोस और वज़नी हैं. बल्लियों की चौखट पर बने खाँचे में ये तख़्ते एक-एक कर ठेल दिए जाते हैं जिनसे दूकान का मज़बूत दरवाज़ा बनता है. दिन में इन्हीं से बैठने की बेंचें बन जाती हैं. दूकान के आगे तीन बेंचों का यह सेट-अप तब से चला आ रहा है जब दामोदर के पिता इस जगह चाय का खोमचा चलाते थे. …तख़्ते पर लटक रही सांकल को कनस्तर में रेत भरकर बनाये गए पाये और तख़्ते के बीच खोंस कर उसने बेंच का हुलिया दुरुस्त कर दिया है.

दामोदार नौ-दस साल का रहा होगा जब उसके पिता ने गांव की बदलती ज़रूरियात के मद्देनज़र चाय का काम छोड़ परचून की दूकान खोल ली. चाय तो बंद हो गई पर उस दौर में रचा गया चकल्लस का यह अड्डा आज भी आबाद है. इन बेंचों पर देश से लेकर स्थानीय राजनीति के हज़ारों प्रसंग ज़ेरे बहस रहे. कितने ही अध्यापक अपनी शख़्सियत की खूबियों से या नौकरी के तजुर्बों की कहानियों से, गांव में बड़े लोकप्रिय हुए थे. दामोदर के पिता को बेटे की पढ़ाई, करियर, स्वास्थ, शादी पर मिले सुझाव और सलाहियतें भी अनगिनत थीं. पिता की सख़्ती में उनका भी हाथ ज़रूर रहा होगा.
(Takhte Story by Umesh Tiwari Vishwas)

खांचों में फंसी गाँव की ज़िंदगी अपनी धीमी रफ़्तार से चल रही थी. दामोदर ने इंटर पास किया ही था..बी एस सी की पढ़ाई के मंसूबे बना रहा था कि उसकी ख़्वाहिशों का महल एकाएक भरभराकर गिर पड़ा. एक सड़क हादसे में अचानक ही पिता की मौत हो गई. दुर्घटना के बाद उसकी दुनिया पहले जैसी नहीं रही. अठारह साल के दामोदर को पारिवारिक ज़िम्मेदारियों ने जकड़ लिया. आगे पढ़ने का उसका ख़्वाब टूट रहा था, कभी भगवान को कोसता तो कभी पिता से मिले कारोबार को और अन्ततः अपनी बेबसी पर खीझ कर रह जाता. दामोदर के विचार में, यह दूकान ही थी जिसने पहले उसका बचपन हड़पा और अब ज़िन्दगी का सपना छीन लिया था.

एक ग्राहक दूकान और सड़क के बीच की सीढ़ियों पर आकर ठहर गया है. उसे उचटती निगाह से देखते दामोदर ने अपने अभ्यस्त हाथों से अगले तख़्ते को खाँचे से निकाल कर पूर्ववत दूकान के आगे जमाये गए बालू भरे कनस्तरों पर लिटा दिया.

‘थोड़ी देर में आना, अभी दिया-बत्ती में टाइम लगेगा…’ उसने ग्राहक को टाल दिया है.

मनोरमा को वह पसंद न करता हो ऐसा नहीं था. पर जीवन के जिस मोड़ पर वह दामोदर को मिली, संघर्षों एक ताँता सा था वहां. दो छोटी बहनें, अस्वस्थ मां और दूकान का लेन-देन. पिता का विकल्प तलाश रहा था कि उसे ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी मनोरमा पत्नी के रूप में मिली. यह रिश्ता दामोदर के मामा ने तय किया था, जो दुश्वारियों में हमेशा परिवार के मददगार रहे. दामोदर ख़ुद ज़ेहनी तौर पर शादी के लिये तैयार नहीं था मगर परिवार की ज़िम्मेदारी, ऊपर से चाचा-ताऊ और ननिहाल से पड़ते दबाव ने उसे विवाह के लिये मजबूर कर दिया था. मनोरमा का चेहरा तक उसने मंगनी के वक़्त देखा था, जब मामा शादी लगभग तय कर चुके थे. समाज की यही रीत थी पर दामोदर के मन में पढ़ाई छूट जाने की कसक बनी रही. एक तरह वह मनोरमा को भी दूकान जैसे ही अपनी आकांक्षाओं की राह के रोड़े सा मानता और गाहे-बगाहे ताना मारते नहीं हिचकता था. परंतु सच्चाई यह भी थी कि विवाह के बाद मनोरमा ने उसके बिखरते परिवार को सम्हाल लिया था. मां और छोटी बहिनों के साथ उसका तालमेल अदभुत था. मां की तीमारदारी और बहिनों की शिक्षा का जिम्मा पूरी तरह मनोरमा ने उठा लिया था. रिश्तेदारी में सब मानने लगे कि पत्नी के रूप में मनोरमा, दामोदर के लिए बहुत आदर्श और साज़गार थी.

‘टेंट हाउस का काम खोल लेते तो, यहां अच्छा चल जाता. लोग हल्द्वानी के टेंट वाले बुलाते हैं…’ मनोरमा ने सुझाया.

‘तुझे बड़ा अनुभव है बिजनेस का, चलाएगा कौन? तू?’ दामोदर चिढ़ गया.

‘काम करने को आदमी मिल तो जाते हैं, मेरे मायके में लोग टेंट का काम कर रहे हैं, मैंने इसलिए कहा था.’ मनोरमा डरते-डरते बोली.
(Takhte Story by Umesh Tiwari Vishwas)

वह जानता था सुझाव बुरा नहीं है, दरी, शामियाने वग़ैरा की मांग आसपास के इलाक़े से आती रहती थी. ज़रूरी पूंजी, जगह और समय सब कुछ था उनके पास. परंतु पिता की मृत्यु के साथ टूट गये सपनों से उपजा अवसाद भीतर कहीं गहरे पैठा था दामोदर के, जिसने उसे चिड़चिड़ा बना दिया था. वास्तव में, परिवार के भरण-पोषण की मजबूरी ही उसे दूकान पर खींच लाती.

‘तो तू अपने मायके जाकर करले ना बिजनेस…’ दामोदर तैश में आ गया.

मनोरमा उस दिन बहुत रोई थी. झिड़कता वह कई बार था पर इतना ग़ुस्सा अप्रत्याशित था.इस घटना से वही नहीं, स्वयं दामोदर भी बहुत व्यथित हुआ. अरसे तक उनके बीच सहजता से बातचीत नहीं हो पाई… मनोरमा के प्रति उसके व्यवहार में तल्ख़ी ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी, जबकि मनोरमा पहले के बनिस्बत गुमसुम रहने लगी थी.

एक दिन बातों ही बातों में दामोदर से इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य ने बड़े इसरार से साइंस साइड के दो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने को कहा. दामोदर के भी शिक्षक रहे थे वह, तो मुलाहिज़े में उनसे ना नहीं कह पाया. बच्चे शाम को दूकान पर ही पढ़ने आ जाते. शुरुआती हिचक से उबरते ही दामोदर का पठन-पाठन के प्रति रुझान जाग सा गया, दिलचस्पी बढ़ी तो वह मन लगाकर बच्चों को पढ़ाने लगा. इस दौरान दूकान मनोरमा देख लेती, नतीजतन पढ़ने-पढ़ाने के प्रति उसका लगाव, मनोरमा से छुपा नहीं रहा. उसने एक दिन दामोदर से कहा ‘तुम कॉलेज का प्राइवेट फार्म क्यों नहीं भर लेते, ज़रूरत पड़ने पर दुकान मैं भी सम्हाल सकती हूँ.’ दामोदर मुस्कुराया, उसे अच्छा भी लगा… अगरचे उसकी ज़िंदगी में ऐसी किसी पेशक़दमी के लिए अब बहुत देर हो चुकी थी. विज्ञान के विद्यार्थी रहे दामोदर का सपना कॉलेज में दाखिला लेकर बी एस सी करने का था, न कि डिग्री भर हासिल कर लेना… बाक़ी दिनों की तरह, उसका वह दिन भी नीरस ही गुज़र गया.

दामोदर की निगाह अब दूकान के अंदर की अलमारी पर गई जहां लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां थीं. रोज़ की भाँति उसके हाथ जुड़े परन्तु प्रार्थना के बोल नहीं निकल पाये; अलमारी से पूरा सामान ग़ायब था. दामोदर सन्न रह गया. चाय पत्ती के डिब्बे, साबुन की बट्टियाँ, मसाले, कॉस्मेटिक्स… सभी दराज तो ख़ाली पड़े थे. दाहिनी ओर काउंटर से जुड़ी गल्ले की चौकी का ढक्कन उखड़ा हुआ था.
तख़्तों में छेड़छाड़ के कोई निशान न होने से ज़ाहिर था कि चोर पीछे की दीवार में सेंध लगा कर अंदर घुसे थे. वह दूकान के पिछले हिस्से की ओर बढ़ा. गोदाम की तरह इस्तेमाल होने वाले इस हिस्से में चीनी, आटे-चावल और दूसरी जिन्सों की बोरियों रखी जाती थीं. चोरों ने दूकान का सारा सामान पिछली दीवाल में एक बड़ा छेद बना कर बाहर निकाल लिया था. उसे गुमान भी न था कि दूकान से इस तरह की चोरी हो सकती है. पर इतने बड़े नुक़सान के बावजूद वह आश्चर्यजनक रूप से तनावमुक्त महसूस कर रहा था… ज़ेहन में यादों की फ़िल्म सी चल पड़ी; किराने की बोरियां घसीट कर क़रीने से लगाते पिता, चूहेदानी की खटाक सुनकर उसका क़िताब बंद कर दौड़े आना, यहाँ छुप कर मिर्ची के डंठल को बीड़ी बनाकर कश लगाना, मुन्नी को मुट्ठी भर किशमिश भेंट करते पकड़े जाना… यहीं गोदाम के कोने में उसने बिल्ली को पाँव से बांध दिया था.
(Takhte Story by Umesh Tiwari Vishwas)

अनचाहे ही निढाल होते दामोदर की पीठ पार्टीशन से टिक गई. सेंधमारों द्वारा बनाई खोह से रोशनी का एक फौव्वारा उसकी आंखों को चुंधियाता दिमाग़ में दाखिल हो गया. नेपथ्य की कुछ इंसानी आवाज़ें, ‘मनोरमा… पटवारी’, सड़क पर आती-जाती गाड़ियों की घरघराहट और हॉर्न के साथ गड्डमड्ड हो रही थीं. दामोदर को लगा उसका शरीर हल्का होकर किसी मछली की तरह दीवाल की खोह से बाहर निकल रहा है, दूकान के तख़्ते भी उसके पीछे तेज़ी से उड़ते हुए बाहर निकल आये हैं. घने जंगलों, शादाब घाटियों और सर्पीली नदियों के ऊपर उड़ता दामोदर एक नीली झील के ऊपर आ गया है. झील किनारे की घुमावदार सड़क पर कोहरे और धूप की आंखमिचौनी के बीच उसके अनगिनत हमशक्ल एक चढ़ाई पर चले जा रहे हैं. हाथों में क़िताबें पकड़े अपने बाजू लहराते, वह कभी दौड़ पड़ते हैं तो कभी एक दूसरे से लिपट जाते हैं. दामोदर अब नीचे, बहुत नीचे, उनके सिर के ऊपर उड़ रहा है, उसका पीछा करते तख़्ते कहीं ग़ायब हो चुके. मंज़र बदलता है, किसी ख़्वाब से जुड़ी इमारतों और सीढ़ियों के अक्स नुमाया हैं, लंबे-लंबे गलियारों की गेरुई छतों के क़रीब है वह. समूचा अहाता वीरान, न कोई आवाज़ न चहलकदमी, एक परिंदा तक नहीं. दूर मंदिर से आती घंटियों की गूँज सन्नाटे को तोड़ती है मगर जल्द, उसी में जज़्ब हो जाती है. दामोदर की रुलाई फूट पड़ी है. उसकी आँख से टपके आँसुओं ने छत में दूकान की दीवाल जितने बड़े सूराख़ गढ़ दिए हैं. वह तेज़ी से उनकी ओर बढ़ रहा है. सारी फ़िज़ा में केमिस्ट्री लैब से आती तीखी गंध भर गई है.
(Takhte Story by Umesh Tiwari Vishwas)

उमेश तिवारी ‘विश्वास

हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.
लेखक की यह कहानी भी पढ़ें: पीन सुंदरी: उत्तराखण्ड की नायिका कथा

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