अशोक पाण्डे

असल कुमाऊनी भाषा का जायका

मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ में नायिका बेबी कई बार अपने प्रेमी नायक डी डी उर्फ़ देबिया टैक्सी को “लाटा” कहकर बुलाती है. लाटा का शाब्दिक अर्थ हुआ गूंगा. लेकिन यहाँ बेबी द्वारा कहा गया “लाटा” लाड़ का प्रतीक है और नायक के भोलेपन और दुनियादारी से उसकी दूरी के प्रसंग में इस्तेमाल किया गया है.

कुमाऊनी का यह शब्द आज के सन्दर्भ में ईमानदार आदमी के लिए भी प्रयोग किया जाता है. मान लिया आप किसी विभाग में किसी प्रभावी पद पर विराजमान हैं. अगर आप अपने काम को सलीके से करना जानते हैं और रिश्वत लेने में यकीन नहीं तो हो सकता है आपका चपरासी भी अपने दोस्तों के बीच आपकी तारीफ करता हुआ कहता हो “हमारे साहब तो लाटे हैं, बस काम से काम रखते हैं.” यानी आप मूर्ख हैं.

और मेरा एक संगीतप्रेमी दोस्त मोहम्मद रफ़ी के गाने सुनता हुआ कभी कभी बहुत भावुक हो जाता था और भावुकता के चरम पर आने पर अक्सर कहा करता “क्या गाता है यार लाटा.”

“लाटा” शब्द दो बहुत प्रभावशाली ध्वनियों वाले अक्षरों ल और ट से बना है. और असल कुमाऊनी भाषा का जायका ध्वनियों के इसी प्रभावी संयोजन में पाया जाता है. दिमाग़ चाट जाने वाली बकबक के लिए शब्द है कुकाट. बच्चों की चिल्लपों को किकाट कहते हैं. चिचाट और टिटाट इसी किकाट के पर्यायवाची हैं. अब दोनों को एक ही वाक्य में रख कर देखा जाए – “भितेर बुड़ज्यूल कुकाट लगै राखौ भ्यार नानतिनूंल टिटाट – दिक करि हालौ.” (भीतर बुढ्ढन ने तो बाहर बच्चों ने चिल्लपौं मचा रखी है – परेशान कर के रख दिया.)

कुमाऊनी के शब्दों को जिस मिठास के साथ हिन्दी में घोलने का काम मनोहर श्याम जोशी और शैलेश मटियानी जैसे बड़े लेखकों ने किया उसकी मिसाल कम मिलती है. बल्कि मनोहर श्याम जी को जिस उपन्यास के लिए साहित्य अकादेमी सम्मान दिया गया था उसका नाम है ‘क्याप्प’. क्याप्प शब्द भी बहुत सारी चीज़ों को एक साथ कह देता है. क्याप्प का मतलब हुआ अजीब, अपरिचित, पसंद न आने वाला या अटपटा. तो कोई आदमी भी क्याप्प हो सकता है और कोई शहर भी. किसी नौसिखुवे के हाथ का बनाया खाना भी क्याप्प हो सकता है तो किसी घर का बाथरूम क्याप्प.

मुझे अपने बचपन का एक किस्सा अब तक याद है. हमारे पड़ोस में एक डाक्टर साहब का क्लीनिक हुआ करता था. बुखार आने पर एक बार मुझे वहां ले जाया गया. मैं अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था और डाक्टर साहब एक बूढ़ी महिला को देख रहे थे. अपनी वेशभूषा और बोली से महिला किसी दूरदराज़ के पहाड़ी गाँव से आई लगती थी. ज़ाहिर है उसे अपनी बीमारी डाक्टर साहब को हिन्दी में ठीक से बताने में दिक्कत आ रही थी. जब काफ़ी तरह के सवालात के बाद भी डाक्टर साहब उसकी बीमारी नहीं समझ पाए तो तनिक खीझ कर ठेठ कुमाऊनी में उन्होंने पूछा “आमा और के-के है रौ तुकैं?” (अम्मा, और क्या-क्या हो रहा है तुझे?) इस से उस महिला का आत्मविश्वास तनिक बढ़ा और उसने सेकंड से पहले उत्तर दिया “द्वी तीन दिन है गेईं भौत्ते उड़भाड़ चिताइनौ.” (दो तीन दिन हो गए बहुत ही उड़भाड़ जैसा महसूस हो रहा है) “तो पैली किलै नी बता?” (तो पहले क्यों नहीं बताया?) डाक्टर साहब ने खीझते हुए नुस्खा लिखना शुरू किया.

-अशोक पांडे

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