हिमालय के इतिहास पुरातत्व व संस्कृति पर गहन मनन व अध्ययन के प्रणेता रहे स्वामी प्रणवानन्द. कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्गों की लोकथात को अपने विशद परीक्षणों व तल्लीनतापूर्वक की गई जांच पड़ताल के साथ अनुभवसिद्ध अवलोकनों के द्वारा उन्होंने विश्व में लोकप्रिय बना दिया.
घर में ‘कनकदण्डी वेंकट सोमायाजूलू’ बुलाये जाने वाले अद्भुत मेधा के इस यशस्वी का जन्म 1896 ई. में आंध्रप्रदेश के पूर्वी गोदावरी जनपद में हुआ. बाल्यकाल में ही यत्र-तत्र विचरते उन्होंने लाहौर के डी.ए.वी. कालेज से स्नातक उपाधि प्राप्त की. कुछ समय तक सरकारी नौकरी की. विद्रोही मन छटपटाया तो सरकारी नौकरी तुरंत छोड़ दी. असहयोग आन्दोलन की डगर पकड़ ली. चौबीस वर्ष की आयु में पश्चिमी गोदावरी जिलों में कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता रहे. 1920 से 1926 तक आजादी की अलख जगाने खूब भटके पर मन नहीं रमा. गुरु ज्ञानानंद जी की प्रेरणा से उन्हें हिमालय में विचरने का सूत्र मिला. यह ऐसी श्रृंखला का सूत्रपात था जिससे जीवनपर्यन्त उन्होंने अपनी प्रखर मेधा से हिमालय के अनसुलझे रहस्यों के अनुसंधान का दायित्व बोध अपना इष्ट बना लिया. निर्विकार नहीं साकार जिसकी पहचान उन्होंने पैदल चल चलकर स्वयं बनाई. अन्य योगियों-बाबाओं-महात्माओं की भांति उन्होंने अमूर्त चिंतन पर कोई बहस नहीं की और न ही अपने चेलों को उपदेश दिए. उनकी विख्यात रचना है ‘कैलाश मानसरोवर’ जिसमें हिमालय की भौगर्भिक दशा, पारिस्थितिकी, पर्यावरण, फ्लोरा-फोना व नृतत्व शास्त्र के साथ ही यहां की सांस्कृतिक-सामाजिक दशाओं व पारिस्थितियों का विशद व प्रमाणिक विवेचन है. स्वामी प्रणवानन्द लन्दन की रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी के फैलो रहे. भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म श्री’ से अलंकृत किया.
केन्द्रीय हिमालय में अल्मोड़ा व पिथौरागढ़ जनपद में स्वामी जी 1928 से जीवनपर्यन्त 1988 तक रहे. पिथौरागढ़ में वह पहले रामदत्त चिलकोटी वकील के आवास फिर जनार्दन पुनेड़ा सिलथाम के मकान में रहे. नागाबाबा रामेश्वर दयाल वत्स से उनका परिचय 1954 में हुआ जिनका कैलाश भोजनालय उन्हें भोजन हेतु अत्यंत प्रिय था. पिथौरागढ़ से उच्च अध्ययन हेतु अन्यत्र बड़े शहरों में जाने वाले विद्यार्थियों की स्वामी जी अपने विशाल समर्थकों से बहुत सहायता प्रदान करते थे. विशेषतः लखनऊ में अपने अनन्य भक्त लक्ष्मीनारायण गुप्त के कृष्णनगर स्थित मकान में वह टिकते थे. यहीं से वह अपने पिथौरागढ़ अल्मोड़ा के युवा विद्यार्थियों के संपर्क में रहते थे व उनके बौद्धिक रचनात्मक उत्थान में उत्प्रेरक की भूमिका निभाते थे.
स्वामी जी सीमांत हिमालय उपत्यका में हो रही अवैध वन गतिविधियों व दुर्लभ वन्य पक्षियों के अंधाधुंध हो रहे शिकार से बहुत विचलित और व्यथित रहे. बहुमूल्य कस्तूरी के लिए कस्तूरा मृगों को निर्ममता से मारा जाता था. बाघों के दांत, हड्डी व खाल के लिए विष दिया जाता था. भालू की पित्ती बहुत महंगे दामों में बिकती थी. मोनाल घुरड़, काकण, चंवर गाय मारे जाते थे. उन्होंने अपनी पैनी कलम से इलेस्ट्रेटेड वीकली व धर्मयुग के साथ अन्य कई पत्रिकाओं व अखबारों में निरीह प्राणियों के आखेट पर प्रतिबन्ध लगाए जाने संबंधी लेख लिख प्रबल प्रतिरोध किया. साथ ही भारत-तिब्बत एवं भारत नेपाल सीमा पर विदेशियों द्वारा पर्यटन एवं अनुसन्धान की आड़ में की जा रही ख़ुफ़ियागीरी के बारे में भी स्थानीय प्रशासन व भारत सरकार को लगातार सचेत किया. गांव-गांव शहर-शहर अपनी बात पहुंचाई. इस संदर्भ में उन्हें अनेक बार अदालती कार्यवाही के चक्रों में फंसना पड़ा. भ्रष्ट नौकरशाह, नेता व ठेकेदारों की गतिविधियों का वह पर्दाफाश करते रहे. उनके लंबे व अनकथ प्रयासों से अवैध पोचिंग पर प्रतिबंध कड़े हुए तथा साथ ही सीमा पर सुरक्षा हेतु सरकार संवेदनशील बनी. स्वामी प्रणवानंद को कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर भारत के नेपाल-तिब्बत सीमा क्षेत्र के विशेषज्ञ के रूप में मान्यता मिली.
लखनऊ विश्वविद्यालय को प्रसिद्ध नृत्व शास्त्री प्रोफ़ेसर मजुमदार ने रूपकुंड झील में समाए कंकालों की उपस्थिति से परिचित कराया तो स्वामी जी ने इस क्षेत्र का व्यापक पैदल भ्रमण कर साक्ष्य जुटाए. विश्व की शीर्षस्थ संस्थाओं से संपर्क कर कार्बन डेटिंग व अन्य प्रक्रियाओं द्वारा वैज्ञानिक विश्लेषण कर नवीनतम तथ्य सामने रखे. तदन्तर लखनऊ स्थित राज्य संग्रहालय ने उनके द्वारा एकत्रित मानव कंकाल अवशेषों हेतु एक विशेष प्रकोष्ठ ही स्थापित कर दिया. साथ ही उन्होंने तिब्बत के पंगटा क्षेत्र की परित्थक्त गुफा, बस्ती के पुरातात्विक अध्ययन के साथ भागलपुर के समीप बरारी प्रागैतिहासिक काल की खोहों, तिब्बत की विविध नदियों से प्राप्त जीवाश्मों की परावानस्पतिक संघटकों की पहचान का उल्लेखनीय व दुरूह कार्य संपन्न किया, अल्मोड़ा जनपद से चोरी गई मूर्तियों की जब प्रशासन सही जांच-पड़ताल नहीं कर पाया तब स्वामी प्रणवानंद के छायाचित्रों व साक्ष्यों के आधार पर ही इन्हें पहचाना गया.
स्वामी प्रणवानंद देश व विदेश के पुरातत्व विद्वानों के निकट संपर्क में रहते थे और अपनी खोजों के बारे में उनसे पत्र व्यवहार कर सटीक व सार-गर्भित अचूक निष्कर्ष प्रदान करते थे. विज्ञान को उन्होंने सत्य को परखने का माध्यम माना तो हिमालय को आध्यात्मिक चेतना व साधना का केंद्र. आध्यात्म को समर्पित उनकी कृति ‘श्री भगवतगीता’ का तेलगगु भाष्य थी. उन्होंने भारतीय तंत्र साधना में श्री यंत्र पर उल्लेखनीय कार्य किया और प्रमाणिक श्रीयंत्र निर्मित कर चमोली जनपद के नौटी गांव में स्थापित किया. इसके साथ ही उन्होंने ‘मेरुयंत्र’ पर भी अपने गहन अध्ययन व अनुसंधान से तात्विक विवेचन प्रस्तुत किया.
स्वामी प्रणवानंद भले ही वेशभूषा और मुखाकृति से बाबाओं जैसे प्रतीत होते थे परन्तु आध्यात्मिक व धार्मिक विषयों पर वह न तो प्रवचन देते तह और न ही निराकार संबंधी अमूर्त धारणाओं की चर्चाओं में भाग ही लेते थे. उन्होंने तो बस हिमालय के अज्ञात रहस्यों व स्थलों को अपने चिंतन-मनन का केंद्र बनाया और एक वैज्ञानिक की भांति तर्कसंगत आधार पर अपने विश्लेषण व निष्कर्ष प्रदान किये. व्यर्थ के सांसारिक प्रकरणों, राजनीतिक उठापटक और दालरोटी की बातचीत में उन्होंने कभी समय नष्ट नहीं किया. ऐसे प्रकरणों में उन्हें घेरने वालों के लिए वह साक्षात दुर्वासा थे. एकनिष्ट हो जीवन पर्यन्त वह स्वाध्याय व लेखन में रमे रहे. शरीर जब तक है तब तक बोध है का सूत्र पकड़ वह स्वस्थ्य बनाए रखने और निरंतर उर्जायुक्त व सृजनात्मक बनाए रखने के लिए वह सात्विक आहार के नियत समय व आयुर्वेद के प्रबल समर्थक थे. स्वानुभूति से उन्होंने भेषजों, जड़ी-बूटियों, रस भस्मों का साधिकार परीक्षण किया व इनके गुण-अवगुणों का रहस्य समझाया. वह ग्रहस्थ थे पर अपने अध्ययन व खोजों की प्रक्रिया में अपने परिवार से एक सुरक्षित दूरी बना एक सिद्ध पुरुष बन गए.
स्वामी प्रणवानंद जिज्ञासु खोजी थे जिन्होंने पर्यटक की भांति हिमालय के सौन्दर्य को आत्मसात किया. परिव्राजक की भांति पैदल चल हिम उपत्यकाओं में रची-बसी संस्कृति-सभ्यता के साथ लोक-थात व लोक परम्पराओं की जांच परख की. वह सर्वत्यागी मनीषी थे जिनके लिए एक वय के पश्चात भाई-बंधु-परिवार-समाज बस हिमाच्छादित चोटियां और उसके दुर्लभ अबूझ रहस्य रहे. उन्होंने साधुओं और तपस्वियों की भांति कैलाश मानसरोवर को अपनी आराधना स्थली बनाया. मोह,अहंकार और कामनाओं से विरत रह ऊर्ध्वरेता बने. वैज्ञानिक सोच से विद्वान महिषी की भांति उन्होंने भारत की अस्मिता की खोज को हिमालय चुना. गांव-गांव भटके. हर दस-कोस पर बदल जाने वाली बोलियों को समझा. स्थानीय जनों से घुले-मिले, उनके घरों पर टिके. गांव-देहात की सौंधी खुशबू के साथ वहां की समृद्ध परम्परा, कला शिल्प जीवन शैली को जाना समझा. इसी डोर के सहारे अनगिनत हिमनद पार कर कैलाश के अबूझ रहस्यों को सुलझाने की रुड़ी बन गए स्वामी प्रणवानंद.
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ. स्वामी सत्यदेव परिव्राजक, राहुल सांस्कृतायन और सालिम अली की तरह हिमालय के स्वाभिमान की अलख जगाने के साथ उन्होंने हिमालयी क्षेत्र की विशिष्ट संरचना जलवायु, पर्यावरण-पारिस्थितिकी, जीव जंतु व नृतत्व के साथ निवासियों के रहन-सहन व जीवन स्तर को अपने वृहद अनुसंधान का केंद्र बनाया. उनके भीतर गहरी अंतर्दृष्टि थी जिसके सूत्र पकड़ने की जरूरत आज भी है. जिससे हिमालय की अस्मिता सुरक्षित रह सके. वही हिमालय जो तेजी से रौखड़ बना दिया जा रहा है. विकास की असंतुलनकारी नीतियों की चपेट से त्रस्त आहत और घायल है आज.
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