Featured

सुंदरढूँगा घाटी से होते हुए बलूनी टॉप और मैकतोली बेस कैंप का ट्रेक

घूमने का मौसम है, यात्राओं का मौसम है. उत्तराखंड में भीड़ बढ़ रही है ऐसे वक्त कुछ सुकून के पल ढूँढने के लिए हमने इस बार एक ऐसी घाटी का रुख किया जिसकी खूबसूरती के बारे में बहुत सुन रखा था लेकिन उसकी अपनी चुनौतियाँ भी थीं जो सुंदरढूँगा को एक मध्यम से कठिन ट्रेक में शुमार करती हैं. हम सभी साथी जो एक दूसरे को “हिमाल एवेंजर्स” कहते हैं क्यूंकि अचानक से किसी ट्रेक को करने के लिए हम इकठ्ठे होते हैं और उसे पूरा कर वापस अपनी जद्दोजहद भरी जिंदगी में वापस लौट जाते हैं ठीक एवेंजर्स की तरह. इस बार हमारा प्लान था सुंदरढूँगा घाटी से होते हुए बलूनी टॉप और मैकतोली बेस कैंप का ट्रेक.

मुझे हरदोई (उ0प्र0) से निकलना था. लू का जोर और जलते हुए दिनों की चुनौती को ध्यान में रखते हुए अपनी बाइक सुबह चार बजे रवाना हुई और रास्तों में मस्जिद से उठती अजान की आवाज के साथ साथ सफर शुरु हुआ. ये रमजान का महीना था. हरदोई से बरेली, हल्द्वानी होते हुए भीमताल के रास्ते मैं अल्मोड़ा पहुँचा. आज हमें सफर की योजना का एक खाका बनाना था और इस काम के लिए मित्र रविशंकर गुँसाई पहले से तैयारी किए बैठे हुए थे. कसार देवी हमारा बेस कैंप होता है जहाँ से हर बार “हिमाल एवेंजर्स” का मिशन शुरु होता है .

रवि ने फटाफट एक कागज पर पूरा ट्रेक का रेखाचित्र बनाकर समूह के हर सदस्य को ध्यान में रखते हुए छः दिन का कार्यक्रम बनाया जिसका हमें पालन करना था. कल सुबह हमारे बाकी सभी साथी आने वाले थे तो तब तक हमारे अनुभवी साथी लकी और चिराग ने कुछ टेंट और स्लीपिंग बैग्स की व्यवस्था की . ये बहुत जरूरी था क्यूंकि इस बार हम ये ट्रेक अनूठे और आत्मनिर्भर तरीके से करने वाले थे. इसलिए सारा सामान हमारे पास होना जरूरी था. शाम तक हमने कमोबेश सारी व्यवस्थाएँ कर ली थी और रात को रवि भाई के संक्षिप्त मुशायरे के बाद हम सो गए अगले दिन के सपनों के साथ.

बागेश्वर के गोगिना से नामिक गांव की यात्रा के बहाने पहाड़ का जन-जीवन

कसार की खूबसूरत सुबह का दीदार करने के बाद अब हम अपनी यात्रा के लिए तैयार थे. हमारे साथी जीवन तिवारी और सोनम रानीखेत से आ चुके थे और थोड़ी देर में निधि भी पहुँच गई. निधि का यह पहला ट्रेक था, इस बात का उत्साह उसके चेहरे पर दिख रहा था.

यहाँ से हम एक कार और दो बाइकों से अपने सफर के लिए रवाना हुए. भराड़ी तक रास्ता सही है लेकिन उसके बाद सड़क के हालात बहुत खराब हैं. बेहतर यही था कि हम यहाँ से लोकल टैक्सी का सहारा लें और धुर पहुँचें. इसलिए अपने गैर जरूरी सामान को हम गाड़ी में छोड़कर भराड़ी से धुर के लिए निकल पड़े. अँधेरा होने लगा था और सड़क हमारी हिम्मत का इम्तेहान ले रही थी. गाड़ी यूँ हिचकोले खा रही थी कि अब गिरी तब गिरी. हमारा आज का पड़ाव धुर था जहाँ हमें रात गुजारनी थी. इन सब डर के माहौल पर विजय पाते हुए हम धुर पहुँचे जहाँ नीरज रावत भाई हमारा इंतजार कर रहे थे.

3 जून की रात ढल चुकी थी. ये तारीख जीवन तिवारी का जन्मदिन है. खुले आसमान के नीचे हमने आग जलाई और जन्मदिन का जश्न मनाने के बाद हमने कल के ट्रेक के लिए जो नियम कायदे बनाए थे वो रवि भाई ने संक्षिप्त रूप से सबको समझा दिए. दो महिला सदस्यों के साथ ट्रेक को एक साथ लेकर चलना हम सबकी जिम्मेदारी थी. इसी को ध्यान में रखते हुए प्रतिदिन 10 से 12 किमी चलने का ही लक्ष्य रखा गया.

4 जून से हमारा वास्तविक ट्रेक शुरु हुआ. सभी आवश्यक सामान टेंट स्लीपिंग बैग और मैट्रेस आदि की व्यवस्था कर धुर से खरकिया तक लगभग तीन किमी का रास्ता हमने गाड़ी से तय किया. खरकिया से थोड़ा बहुत जरूरत का सामान लेकर हमने अपना पैदल सफर शुरु किया. खरकिया रोड हेड का आखिरी गाँव है. धाकुड़ी और चिल्ठा टॉप ट्रेक के लिए यहाँ से रास्ता शुरु होता है. हमें दूसरा रास्ता पकड़ना था जो हमें आज हमारे पहले पड़ाव खाती तक ले जाएगा. खरकिया से खाती लगभग 7 किमी का ट्रेक है. खाती इस रूट का मुख्य पड़ाव है. यहीं से पिंडारी, कफनी और सुंदरढूँगा तीनों ट्रेक के लिए रास्ता अलग अलग घाटियों में प्रवेश करता है. पिंडारी सर्वाधिक लोकप्रिय ट्रेक है जिसने इस रूट को पर्यटन के मानचित्र पर अलग पहचान दी है और यह ट्रेक व्यावसायिक रूप से अत्यधिक विकसित हो चुका है. खरकिया से खाती तक हमें अनेक ग्रुप मिले जो पिंडारी से लौट रहे थे लेकिन सुंदरढूँगा जाने या लौटने वाला अब तक कोई नही मिला था.

यह बात हमें आश्चर्यचकित कर रही थी. खैर इसका कारण हमें आगे के रास्ते में पता चलना था. फिलहाल तीन चार घंटे के मशक्कत और मस्ती भरे सफर के बाद हम खाती गाँव पहुँचे. यह गाँव बेहद खूबसूरत है और घरों पर हंस फाउंडेशन द्वारा की गयी चित्रकारी दूर से देखने पर एक अलग ही छटा बिखेरती है. खाती गाँव जब पहले पहल आपकी नजरों के सामने आता है तो इसका दृश्य किसी फिल्मी रंगबिरंगे गाँव सा मनमोहक अहसास देता है.

बुग्यालों से होते हुए मुनस्यारी तक का ट्रेक और पांगती मास्साब का म्यूजियम

खाती गाँव पहुँचने तक हम लोग थोड़ा सा थकान अनुभव करने लगे थे और भूख का प्रभाव चाल पर दिखने लगा था. यहाँ रुक कर हमने भोजन किया और थोड़ा सा आराम करने के पश्चात हम आगे के सफर के लिए तैयार थे. निधि का शुरुआती अनुभव बहुत अच्छा नही था लेकिन उसकी हिम्मत और हौसले ने हम सभी को सफर जारी रखने का संबल दिया.

अनुभवी ट्रेकर नीरज रावत और लकी ने अब खाती से जैतोली गाँव तक का लक्ष्य तय करके हम सबका सफर शुरु किया. जैतोली हमारा आज रात का पड़ाव था. हमें हर हाल में अँधेरा होने से पहले वहाँ पहुँचना था. खाती से चलने के बाद हमने सुंदरढूँगा घाटी में प्रवेश किया. रास्ता पहले से कठिन था लेकिन घाटी की खूबसूरती ने सभी साथियों को अब तक इस बात का अहसास नही होने दिया था.

घने जंगल का रास्ता था. चलते चलते गर्मी लगने लगी थी. हम सभी लोग अपनी गति के हिसाब से अलग अलग समूहों में बँट गए थे. जो आगे निकल जाता वो कुछ देर रूक कर पीछे आने वाली टीम का इंतजार करता. इसी तरह से सफर कट रहा था. हमारे दो साथी नीरू और चिराग जैतोली के लिए काफी आगे निकल चुके थे. उन्हें वहाँ पहुँच कर हमारे खाने और ठहरने का प्रबंध करना था. बाकी बचे निधि, सोनम, जीवन, लकी और मैं एक टीम में चल रहे थे और हमारे पीछे संरक्षक की भूमिका में रवि, दिनेश और पोर्टर चल रहे थे.

खाती से जैतोली के रास्ते में एक बेहद खूबसूरत और स्वर्गिक अनुभूति वाला स्थान है सुंदरढूँगा और पिंडर नदी का संगम और उसके किनारे एक सुंदर छोटा सा मैदान. इतना खूबसूरत मंजर देख कर हम थोड़ी देर वहाँ ठहरे और एक एक कर सभी साथियों के पहुँचने का इंतजार किया. यह स्थान तिलिस्मी सा जान पड़ता है जैसे कि दो नदियों ने एक स्थान पर आकर मुलाकात के बाद कुछ देर सुस्ताने के लिए एक खुले आसमान के नीचे हरी घास का बिछौना बना रखा हो. खैर हमारी मंजिल की दूरी हमें लगातार चलने के लिए मजबूर कर रही थी और इस खूबसूरत जगह को वापसी में मिलने का वादा कर आगे बढ़ चले.

इस जंगल में बाँस बहुतायत से मिलता है और स्थानीय लोग उसका प्रयोग अनेक कार्यों में करते हैं. उससे घास और अन्य सामान ढोने हेतु बेहद खूबसूरत डलिया का निर्माण ग्रामीण स्वयं करते हैं.

जैतोली पहुँचते पहुँचते शाम ढल चुकी थी और हम सब बेहद थके हुए थे. ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान भी औसतन नीचे आ गया था. ठंड और थकान के बाद जैतोली में मिली चाय अमृत सरीखी लग रही थी. सभी साथी चाय के साथ हँसी ठिठोली में मगन थे. लम्बे रास्ते के बाद जब ठिकाना मिल जाता है न तो दिमाग भी सारी थकान इस आशा के साथ भूल जाता है कि कम से कम आज तो अब नही चलना है. इसी अनुभूति में सभी साथी खुश थे.

जैतोली गाँव में शाम को यूँ ही सामान्य चर्चा के दौरान पता चला कि यहाँ सभी गाँव वालों ने आपसी सहमति से जैतोली को शराबमुक्त गाँव बनाया है. यहाँ शराब के सेवन और विक्रय दोनों पर खुद ग्रामीणों ने प्रतिबंध लगाया हुआ है. सूबे में जहाँ शराब का इतना गहन प्रकोप हो वहाँ ऐसी पहल निश्चय ही अनुकरणीय है. हल्की फुल्की गपशप के बाद हम सभी ने चूल्हे पर पका हुआ स्वादिष्ट भोजन ग्रहण किया और अगले दिन की यात्रा की योजना बनाकर सोने चल दिए.

अगली सुबह हम जल्दी-जल्दी तैयार होकर अपने सफर की ओर निकल दिए. आज हमें कठलिया तक पहुँचना था. जैतोली में जो जानकारी मिली थी उसके अनुसार अब असली परीक्षा होने वाली थी क्यूंकि यह रास्ता अत्यंत दुष्कर और डरावना होने वाला था. इस को ध्यान में रखकर हमने सुबह जल्दी ही चलना शुरु कर दिया था. चढ़ाई और ढलान दोनो बारी बारी से हमारी परीक्षा ले रहे थे. रास्ता कठिन था. चढ़ाई और ढलान दोनों ही एकदम खड़े और ऊबड़-खाबड़ थे जिसमें पैर को समतल रख पाना दुरूह कार्य था. इन्ही सब कठिनाइयों से पार पाते हुए हम अब मुख्य घाटी में थे. यहाँ से आगे अब रास्ता जैसा कुछ नही था. हमें नदी के किनारे किनारे पत्थरों में रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ना था. इस रास्ते में चलते हुए हमें ये अहसास होने लगा था कि आखिर क्यूँ सुंदरढूँगा को कठिन लेकिन कभी ना भूलने वाला अनुभव कहा जाता है.

नदी के किनारे किनारे रास्ते जैसी कोई चीज नहीं थी और कई जगह नदी ने खड़ी चट्टानों को काटकर उनकी तलहटी तक अपनी राह बना ली थी. ये हमारे लिए बहुत बड़ी समस्या थी. नीचे उफनाती नदी का तेज बहाव और ऊपर खड़ी चट्टान. चट्टानों पर जहाँ संभव हुआ हमने चढ़कर पार किया और कई जगह जहाँ नदी का पानी कम गहरा और हल्के बहाव वाला था, वहाँ जूते निकाल कर नदी में उतर कर पार किया. नदी का पानी इतना ठंडा था कि हमारे पैर कुछ समय के लिए सुन्न पड़ गए थे. मन ही मन हम खुद को ऐसी मुसीबत में डालने के लिए कोस रहे थे. चट्टानों के ऊपर से रेंगते हुए जब हम नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ रहे थे तो नीचे उफनाती नदी को देखकर कलेजा मुँह को आ रहा था. यह शायद सफर का सबसे डरावना अनुभव था. ऐसे ही एक स्थान को पार करते हुए हमारे साथी रवि का संतुलन बिगड़ा और वो बैगपैक के साथ नदी में जा गिरे. खैर आनन-फानन में उहोंने खुद को सँभाला और किसी तरह किनारे तक पहुँचे. पानी का तापमान शरीर को सुन्न करने के लिए काफी था. लेकिन रवि का हौसला, हिम्मत और मजबूती का असर था कि हम ट्रेक को आगे जारी रखना संभव रख सके.

ये अकेली मुसीबत नही थी. अब नदी के किनारे आए हुए गधेरों में छोट- छोटे ग्लेशियर बन गए थे. यह सामान्यतः 20 से 50 मीटर के ग्लेशियर हमारे लिए और बड़ी मुसीबत थे. इन पर चलना मुश्किल हो रहा था. कदम-कदम फर फिसलना, गिरना और एक दूसरे का हाथ थामकर हमने किसी तरह इनको पार किया. इस रास्ते में कम से कम सात या आठ ऐसे स्थान हमें पार करने पड़े थे जिन्होने हर किसी को इष्ट देव का स्मरण करा दिया था.

सुंदरढूंगा ने अपनी मुँह दिखाई की कीमत हमसे वसूलनी शुरु कर दी थी. इतना आसान नहीं होने वाला था खूबसूरती का दीदार. हम उसकी अच्छी खासी कीमत अदा कर रहे थे. हमारे समूह की दोनों महिला सदस्य जिनका कि सबसे ज्यादा डर था क्यूंकि उन्हें ऐसे कठिन ट्रेक का कोई अनुभव नहीं था लेकिन सोनम और निधि हैरतंगेज रूप से हमारे साथ कदम दर कदम बढ़ते जा रहे थे.

इन्हीं सब कठिनाइयों को पार कर हम कठलिया पहुँचे. यहाँ पहुँच कर जिस संतोष का अनुभव हुआ उसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है. कठलिया सुंदरढूँगा और मैकतोली नदियों का संगम है. यहाँ कोई रिहायश नही है. आपको सारी व्यवस्था खुद करनी है. हमने यहाँ पहुँच कर कुछ देर आराम किया शाम ढल चुकी थी. आज मेरा जन्मदिन भी था तो टेंट लगाने के पश्चात हमने खाने की तैयारी शुरू की और साथ ही साथ जन्मदिन का जश्न भी. इन साथियों के बीच देश दुनिया के संपर्क से परे यह मेरा पहला जन्मदिन था जो एक यादगार बन जाने वाला था. हँसी मजाक गीत संगीत के बीच हमारी ये शाम रात के स्वागत के साथ विदा हो रही थी.

हम सब काफी थके हुए थे और रात काफी हो चुकी थी इसलिए आज का सफर एक बेहद गहरी नींद के साथ मुकम्मल हुआ.

अगली सुबह उठते ही हमें नीरू भाई दिखे जो आग जला चुके थे. ठंड काफी ज्यादा लग रही थी. मैं तुलना कर रहा था कि जून के महीने में हरदोई के 46 ° तापमान से कठलिया के तीन डिग्री तापमान के बीच जिंदगी कितना खूबसूरत सफर तय करके आई है.

चाय नाश्ते के बाद हमने आगे के कार्यक्रम को लेकर बहुत देर तीन विकल्पों में विमर्श किया. किसी निर्णय पर न पहुँच पाने के कारण हमने अपने पुराने लॉटरी सिस्टम को अपनाते हुए तीन पर्चियाँ उछाली जिसमें मैकतोली बेस कैंप कानाकाटा पास और बलूनी टॉप का नाम था. आखिरकार बलूनी टॉप ने बाजी जीती और हमारा निर्णय हो गया कि हम बलूनी टॉप से शुरू करेंगे.

कठलिया से बलूनी टॉप का ट्रेक कठिन और खड़ी चढ़ाई वाला है. ये सीधी चढ़ाई कुछ मीटर चलते ही आपके फेफड़ों का माइलेज चेक करने लगती है. यहाँ से आगे जाने के लिए हम पाँच लोगों की टीम थी रवि, चिराग, जीवन, दिनेश और मैं. शुरू करने के एक किमी बाद ही लगने लगा कि शायद हमने गलत निर्णय ले लिया है. हम नहीं चल पाएँगे लेकिन सभी साथी रुक-रुक कर आगे बढ़ते रहे और घने जंगलों को पार करने के पश्चात हमें बलूनी टॉप की झलक दिखाई दी. बादलों में घिरा बलूनी टॉप एक स्वर्गिक छटा बिखेर रहा था.

बर्फ काफी जमी हुई थी जिससे हम फिसलते गिरते पड़ते आगे बढ़ रहे थे लेकिन किस्मत ने खेल खेला और मौसम ने अपना मिजाज बदलना शुरु कर दिया. हल्की बूँदाबाँदी की जगह अब तेज हवाओं और कड़कती बिजली ने ले ली. इंद्र देव पर गुस्सा होते हुए हम मैकतोली के एक नजदीक से दर्शन को लालायित थे कि मौसम जरा सा मेहरबान हो तो हमारी इच्छापूर्ति हो सके. आप जब भी ऐसी जगह आएँ तो कोशिश करें कि सुबह जितना जल्दी हो सके ट्रेक शुरु कर टॉप तक पहुँचे क्यूंकि दोपहर और उसके बाद मौसम अक्सर कुछ ऐसा ही रहता है. यहाँ का दृश्य मनोरम था. नीचे की ओर फैली सुंदर घाटी और जंगल. हमारे आस पास चारों तरफ बर्फ की सफेद चादर और बादलों के बीच में आँख-मिचौली करती चोटियाँ. ये सब मिलकर मैकतोली के दर्शन न कर पाने के मलाल को कुछ कम कर रहीं थीं. बारिश और हवाएँ बहुत तेज हो चुकी थीं. हमने कुछ देर वहीं बैठकर इंतजार किया लेकिन मौसम हमें बख्शने के मूड में नहीं था. हार कर हमने कठलिया लौटने का फैसला किया. बरसात की वजह से रास्ता और खतरनाक हो गया था. एक जगह पर हम पाँच के पाँच ने पटकी खाई और कपड़ों को झाड़कर फिर चल दिए. इतनी कठिन चढ़ाई चढ़ने का बावजूद हमें मैकतोली के दर्शन न कर पाने का मलाल था जो हमारे साथ साथ सारे रास्ते बेताल की तरह पीछा करता रहा.

कठलिया में रूके हमारे साथी ऊपर मौसम के तांडव के देखकर परेशान हो रहे थे. हम पाँचों को लेकर कैंप में चिंता थी. जब हम मिट्टी में लथपथ भीगे भागे पहुँचे तो सबने राहत की साँस ली.

अभी तक का हमारा सफर काफी रोमांचक और कमोबेश खूबसूरत रहा था. छिटपुट खरोचों के अलावा हम ठीक थे. मैं बलूनी टॉप के बाद सरेंडर कर चुका था. इसलिए अगले दिन रवि दिनेश और चिराग के मैकतोली बेस कैंप के ट्रेक से अपना नाम वापस लेना ही उचित समझा.

अगले दिन की सुबह ये तय हुआ कि एक टीम वापस जैतोली से होती हुई खाती को रवाना होगी जिसमें नीरू और लकी के नेतृत्व में पहले जैतोली और फिर संभव हुआ तो खाती तक पहुँचने की कोशिश की जाएगी. दूसरी टीम दिनेश देवतल्ला के नेतृत्व में रवि और चिराग के साथ मैकतोली बेस कैंप जाकर वापस हमें रास्ते में ज्वाइन करेगी.

हम सारा सामान बाँधकर धीरे धीरे वापसी के सफर पर निकले. गति की हमें कोई चिंता नही थी क्यूंकि दूसरी टीम को हमसे पीछे आना था और मैकतोली बेस कैंप से वापस आकर हमें रास्ते में मिलना था. इसलिए हम कदम दर कदम धीरे धीरे बढ़ते जा रहे थे. जैतोली पहुँच कर हमने चाय नाश्ता किया. शाम होने में अभी थोड़ा सा वक्त था और सभी साथियों ने सलाह करके खाती की ओर बढ़ने का निश्चय किया. आगे रास्ते में हमारी दूसरी टीम ने तेजी से चलते हुए हमको ज्वाइन कर लिया था. अब सारे अवेंजर्स फिर से एक साथ थे. सफर के समापन की ओर बढ़ते हुए. खाती पहुँचते पहुँचते हमें रात हो चुकी थी. ये सफर एक सपने की तरह अपने मुकाम को पहुँचने वाला था. कल तक जो साथी सफर के जल्दी खत्म होने की दुआएँ कर रहे थे. अब उन्हें उसी सफर के खत्म होने का डर सता रहा था. सबका मन यही था कि यूँ ही खूबसूरत वादियों का सफर जारी रहे. हम सब थके थे लेकिन फिर भी किसी की आँखों में नींद नही थी. खाना खाकर सब यूँ ही आसमान को तक रहे थे. कितना खूबसूरत होता है रात के आँगन में चाँद और सितारों का खिलखिलाना. आज की रात को खाती खाँव में इन्ही खूबसूरत अहसासों के साथ गुजारा.

अगली सुबह हमने खरकिया तक का सफर जल्दी ही पूरा कर लिया और वहाँ से शाम को अल्मोड़ा पहुँचे. यहाँ “हिमाल अवेंजर्स” की आज की रात को इस ट्रेक की आखिरी मुलाकात हुई और अगले दिन सब अपनी अपनी जिंदगी में वापस लौट चले फिर किसी दिन किसी ट्रेक के वादे के साथ.

(सभी स्केच : एस. पी. यादव)

वाट्सएप में पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

एस. पी. यादव बैंककर्मी हैं. अल्मोड़ा से स्कूली व उच्चतर शिक्षा के दौरान करीब बारह वर्ष तक रहे. इसी दौरान अल्मोड़ा और पहाड़ से जो गहरा रिश्ता बना उसने दिल को उत्तराखंड से कभी दूर नही होने दिया. आज भी पहाड़ को और नजदीक से जानने के लिए घुमक्कड़ी जारी है.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

View Comments

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago