पहाड़ और मेरा जीवन- 54
(पिछली क़िस्त: उसकी पलकों का क्षितिज न मिला, फूल मेरी नफीस मुहब्बत का न खिला)
पहाड़ और हरियाली एकदूसरे के पर्याय हैं. दो साल पहले जब उन्मुक्त गर्मियों में क्रिकेट खेलने इंग्लैंड गया था, तो पंद्रह दिनों के लिए मैं भी उसके साथ रहने गया. वहां रहते हुए जिस चीज ने मुझे मंत्रमुग्ध किया, वह थी वहां की हरियाली. आसमान जब साफ रहता, तो ऊपर एकदम सफ्फाक नीला दिखता. इतना साफ कि वहां हवाई जहाजों के ईंधन का धुंआ सफेद लकीरें छोड़ता दिखाई देता. कई बार तो कई जहाजों के आने-जाने से कई रेखाएं क्रिसक्रॉस करती हुई आसमान में बिछी दिखतीं. आसमान के उस नीले की छटा में जमीन पर छाया हरा और भी निखरकर उभर आता. (Sundar Chand Thakur Memoir 54)
मुझे याद है पिथौरागढ़ में रहते हुए अक्टूबर का महीना आने तक वहां भी आसमान ऐसा ही झक नीला दिखता था. यह वह समय होता जब आप दूर आसमान पर मुकुट जैसी उठी हुई पंचचूली की सफेद चोटियां भी बहुत साफ देख सकते थे. फोटो खींचने के लिए यही साल का सबसे मुफीद समय होता. दसवीं तक जहां मैं एनसीसी की परेड करने तक और अपने में ही सहमा-सा सीमित था, बारहवीं कक्षा में आने तक मैं अपने परिवेश और लोगों के प्रति भी जागरूक होने लगा था. (Sundar Chand Thakur Memoir 54)
रोज शाम को बाजार तो मैं घूमने जाता ही था, पर ऐसा बहुत कम हुआ था कि मैं रात को भी बाजार जाऊं. पहली बार मैं पिथौरागढ़ में शरदोत्सव देखने के लिए रात को घर से निकला था. उस साल महेंद्र सिंह मटियानी जी ने एक नाटक का मंचन किया था. बाहर से कव्वाली गाने वाले दो धुरंधरों को बुलाया गया था, जिनमें से एक महिला थी. मैं इनकी हाजिर जवाबी सुनकर दंग था. आदमी कव्वाल एक शेर मारता और औरत कव्वाल उसका जवाब दूसरे शेर में देती, जो असल में सवा शेर होता था. शेर के जवाब में सवा शेर के इस गजब सिलसिले ने मुझे पलक न झपकाने दी.
उन दिनों शरदोत्सव में फिल्मी गानों का भी शो होता था, जिसमें बाहर से बुलाए गए गायक अपनी-अपनी अदा में मंच पर ऑकेस्ट्रा के साथ ऐसे-ऐसे गाने गाते कि अगर पूरी रात भी वे सुनाते, तो लोग बैठे ही रहते. कम से कम मैं तो उठकर जाने वालों में न था. इनमें किशोर कुमार जैसा ही दिखने की कोशिश करते हुए उसके ही सुपरहिट गाने गाने वाले लड़के और उनका साथ देने के लिए हीरोइन जैसी दिखती लड़कियां भी होती थीं. इन लड़कियों के सुरीले कंठ से दर्दभरे गाने सुनते हुए ही इनसे इश्क हो जाया करता था. कोई ताज्जुब नहीं कि मुझे इनमें से कई लड़कियों के गाने मूल गाने से ज्यादा सुरीले लगते थे.
मैं उम्र के उस दौर में पहुंच रहा था, जहां हम दुनिया को अपनी खुली आंखों से देखने और समझने की कोशिश करना शुरू करते हैं. एक ओर तो मैं जिला पुस्तकालय से किताबें ला-लाकर पढ़ रहा था और दूसरी ओर नई जगहों और नए दोस्तों के लिए खुल रहा था. शरदोत्सव के कार्यक्रमों का तो ऐसा रंग चढ़ा मुझ पर कि मैं हर साल इसका बेसब्री से इंतजार करता.
बाद में कॉलेज के दिनों में इसी शरदोत्सव में आयोजित पावरलिफ्टिंग प्रतियोबाता में मैंने 55 किलो वर्ग में तीसरा स्थान प्राप्त किया था और मेरी क्लास की लड़कियों ने मुझे भिंडी पहलवान का खिताब दिया था, पर वे बातें बाद में. शरदोत्सव के अलावा पिथौरागढ़ में रामलीला भी बहुत धूमधाम से बनाई जाती थी. जिला पुस्तकालय के बगल में ही खाली मैदान में मंच लगता था. सामने का मैदान लगभग पूरा भर जाता. उन दिनों तक बेतरह ठंड होने लगती थी. ऐसा मुझे इसलिए भी याद है क्योंकि रामलीला मैदान में आग में सिंक रही गर्म मूंगफली मिलती थी.
कपड़े कितने भी पहन लें, ठंड फिर भी लगती थी, मूंगफली इस ठंड को भगाने के लिए हमारा सबसे कारगर हथियार होती, मनोवैज्ञानिक ही सही. शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि मैं रामलीला देखने जाकर बिना मूंगफली-रेवड़ी खाए वापस लौटा होऊं. पिथौरागढ़ में दूसरी रामलीला टकाना रोड में होती थी. वहां भी एक-दो बार मेरा जाना हुआ. नवीं-दसवीं में तो वहां मेरी क्लास के लड़के मुंह पर लाल रंग पोत वानर सेना में घुसे होते थे. इन रामलीलाओं को देखने में मुझे उतना लुत्फ नहीं आता था. मुझे संवाद बहुत धीमें लगते थे. कई बार तो वे समझ में भी नहीं आते थे. यह भी था कि मैं रामलीलाओं को दिल्ली के दिनों में जबकि मैं बहुत छोटा था, अच्छी तरह चाट चुका था. (Sundar Chand Thakur Memoir)
तब मैं सबसे आगे बैठकर अपने पूरे वजूद को आंख बनाकर रामलीलाएं देखता था. मैं तब कुछ-कुछ संवाद भी कंठस्थ कर उनका घर के और पड़ोस के बड़े लोगों के बीच पूरे अभिनय के साथ पाठ किया करता था और लोग मंत्रमुग्ध होकर मुझे देखते, सुनते थे. कुछ दृश्य थे जो मुझे बहुत मजेदार लगते. मेरा सबसे पसंदीदा दृश्य अंगद के पांव वाला था जब वह रावण के भरे दरबार में रावण को ललकारता है कि है दम तो मेरा जमीन पर जमा यह पांव हिला कर दिखा. सीता के स्वयंवर के लिए धनुष तोड़ने की प्रतिस्पर्धा वाला दृश्य भी मुझे हमेशा याद रहा क्योंकि दिल्ली में इस दृश्य में हमेशा सर्कस के जोकरों की तरह रामलीला का जोकर बहुत हंसाता था.
पिथौरागढ़ की रामलीलाओं में लगभग हर दृश्य के बाद घोषणाएं होती थीं कि फलाना साहब ने रामलीला कमेटी को इतने रुपये दिए हैं. देने वाले लोग अलग-अलग किरदारों के रूप में काम कर रहे अदाकारों से खुश हो उन्हें भी पैसा देते थे, जिसकी बाकायदा घोषणाएं होती थीं. ये घोषणाएं एक तरह से विज्ञापन की तरह थीं क्योंकि अमूमन इनमें पैसे देने वालों में शहर के जाने-माने दुकानदारों, बिल्डरों और सेठों के नाम होते थे. कई बार देने वालों की लिस्ट इतनी लंबी होती कि घोषणा करने वाले को कहना पड़ता कि दर्शक कृपया उठकर कहीं न जाएं, अगला दृश्य तैयार है…रावण साधु के भेष में सीता की कुटिया के बाहर से उसे पुकार रहा है….क्या सीता उसकी पुकार सुनकर बाहर आएगी? देखते रहें और सिमलगैर से पंत साड़ी स्टोर ने सीता का किरदार निभा रहे मोहन सिंह राणा को अपनी ओर से बीस रुपये नकद दिए हैं…
अब मुझे समझ आता है कि हर दृश्य के बाद होने वाली इन घोषणाओं का मतलब यह है कि वे पिथौरागढ़ में रामलीलाओं के अच्छे, सुखद दिन थे. तब बहुत से ऐसे लोग थे, जो इन रामलीलाओं को संभव करने के लिए अपना सबकुछ त्यागकर पूरे मनोयेग से तैयारी करते थे. मकसद संस्कृति और परंपराओं को बचाने का भी था. ऐसे ही एक हैं जगदीश पुनेरा, जिनसे मेरा गहरा परिचय रहा. वे आज तक इन रामलीलाओं से जुड़े हुए हैं. शरदोत्सव और रामलीलाओं को रात में आकर देखने का एक मतलब यह भी था कि मुझे रात देखने को मिलती थी, कभी अमावस की रातें तो कभी पूनम की रात. (Sundar Chand Thakur Memoir 54)
मैं जब कुजौली गांव में अपने कमरे से निकलता था, तो कंक्रीट के दो फुट चौड़े रास्ते के साथ करीब तीस मीटर नीचे बह रहे नाले के किनारे से मेढकों की टर्र टर्र मेरे साथ हो लेती. अमावस की रात में तो कई बार जुगनुओं की झप-झप के बीच गुजरना होता. पर असली मजा नजर उठाकर आसमान की ओर देखने में आता था. तारों की नीली-पीली रोशनी से आसमान ऐसा भरा रहता था कि एक बार नजर उठाई तो वह गिरने का नाम न लेती. मैं उन घनी रातों में सुनसान सड़कों पर मंत्रमुग्ध चलते हुए अपना सफर तय करता था. राह पर इतना सन्नाटा बिछा रहता था कि कई बार अपनी ही सांस की आवाज डरा जाती थी. मेरी आत्मा में बसीं पहाड़ की वे रातें मुझे पुकारती रहती हैं और मैं जानता हूं जल्दी ही मैं जीवन के रहस्यों को समझने इन गहरी शांत रातों की आगोश में जरूर जाऊंगा.
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सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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