सुन्दर चन्द ठाकुर

इस विपुला पृथिवी को मैं जानता ही कितना हूं

पहाड़ और मेरा जीवन – 51 (Sundar Chand Thakur Memoir)

(पिछली क़िस्त: वह पहाड़ों की सर्दियों का एक जरा-सा धूप का टुकड़ा)

मुझे मरण की चाह नहीं है सुंदर जग में, चाह रहा हूं मैं भी जीना मानव समुदय में
रवि की इन किरणों में, इस पुष्पित कानन मे, काश, मुझे मिल जाए ठौर जीवन्त हृदय में
धरती पर प्राणों की क्रीड़ा सतत तरंगित, ह्रास अश्रु से पूरित विरह मिलन ये सारे
मानव के दुख सुख का संगीत गूंथकर, रच पाऊं मैं काश अमर आवास यहां रे!

ये पंक्तियां मेरी नहीं रवींद्र नाथ टैगोर की हैं. इन्हें मैंने 31 अगस्त 1986 के दिन अपनी डायरी के पेज पर दर्ज किया हुआ है. मुझे याद है मैंने एक और डायरी बनाई थी, जिसमें पहले ही खाली पेज पर रवींद्र नाथ टैगोर का पैंसिल से चित्र बनाया था और नीचे लिखा था ‘मेरे गुरू’. (Sundar Chand Thakur Memoir)

लेखक की डायरी का हिस्सा.

मैं उन दिनों भर-भर कर डायरी लिखता था. मन में इतने उतार-चढ़ाव रहते थे और आने वाले जीवन के लिए इतनी उत्सुकता थी कि एक बार रवींद्रनाथ टैगोर को गुरू बनाकर कविताएं लिखना शुरू किया, तो जल्दी ही मैं कवि ही बन गया. डायरी के इस पन्ने को पढ़कर समझ आ रहा है कि मैंने रवींद्रनाथ टैगोर की कृष्ण कृपलानी द्वारा लिखी जीवनी पढ़ी थी. इस किताब का और उपरोक्त पंक्तियों का मुझपर कितना असर पड़ा था, ये मेरी डायरी में लिखी इन पंक्तियों से समझा जा सकता है –

सम्मुख पंक्तियां उस महान आत्मा की हैं जिसे मैं अपना गुरू पद अर्पित कर चुका हूं. शायद जीवन भर मैं काव्य क्षेत्र में किसी को यह पद न दे पाऊं. सम्मुख पंक्तियां मेरे हृदय के तार-तार को झकझोर रही हैं. इनमें छिपा संगीत मेरे रोम-रोम को रोमांचित कर रहा है. शायद इन पंक्तियों के पीछे छिपी भावनाएं मेरी ही भावनाएं हैं.

यहां तक तो ठीक था, परंतु इसके बाद मैंने आइंस्टीन की जो पंक्तियां उद्घृत की हैं, उन्होंने मेरे कान खड़े कर दिए क्योंकि मैं देख रहा हूं कि पिछले कुछ सालों से ब्रह्मांड और मनुष्य के जीवन को समझने का जो कीड़ा मुझे काट रहा है, असल में वह स्कूल के उन्हीं दिनों से मेरे भीतर सक्रिय हो गया था, अन्यथा इतनी धीर-गंभीर बातों से उस उम्र में मेरा कोई सरोकार नहीं होना चाहिए था. डायरी की पंक्तियां हैं – 

इस पृथ्वी पर जाने कितने दिल धड़क रहे हैं. कोई दिल उत्तेजना का पुट लिए है, तो कोई आलस्य की अंगड़ाई ले रहा है.. विचित्रताओं से भरे इस संसार में कैसी-कैसी आत्माएं आईं और चली गईं. मुझे अपने भाव अल्बर्ट आइंस्टीन के इन वाक्यों में निहित नजर आते हैं – ‘यदि पृथ्वी की निरंतर परिक्रमा करने वाले चंद्रमा को आत्मचेतना का वरदान मिला होता, तो वह इस बात का पूरा विश्वास कर लेता कि वह अपने किए हुए संकल्प के ही बल पर स्वेच्छा से पृथ्वी की परिक्रमा करता है. इसी प्रकार उच्चतर अंतदृर्ष्टि और पूर्णतर मेधा से सम्पन्न व्यक्ति मानवों और उनके क्रियाकलाप निहारता यह सोचकर मुस्कराता रहता है कि वह अपनी स्वतंत्र इच्छा से काम कर रहा है. मनुष्य सृष्टि की प्रक्रिया में अपने आपको असमर्थ पदार्थ माने जाने से बचाता रहा है. पर क्या हमारे मस्तिष्क की क्रियाओं के आगे घटनाओं की नियमबद्धता, जो जड़ प्रकृति में न्यूनाधिक रूप से स्पष्ट उदघाटित होती रहती है, काम करना छोड़ देगी?’ (Sundar Chand Thakur Memoir)

आइंस्टीन ने जो सवाल अंत में छोड़ा, मैं इन दिनों उससे मिलते-जुलते सवालों के ही जवाब तलाशने की कोशिश कर रहा हूं. हैरानी यह है कि यह तलाश उस उम्र में ही शुरू हो चुकी थी. लेकिन तब और अब में एक बहुत बड़ा फर्क मुझे महसूस होता है. तब मैं संवेदनशील तो खैर था ही, बहुत हद तक भावुक भी था. दूसरों के सामने भले ही मैं अपने पुरुष-अहं के चलते अपनी भावुकता की नुमाइश नहीं करता था, पर अकेले में रोने से मुझे कोई गुरेज नहीं था.

उम्र के साथ भावुकता में कमी आई. पिता की मृत्यु पर मैं सबसे ज्यादा रोया था. करीब बारह साल पहले दिल्ली में एक फिल्म देखी थी होटल रवांडा. अपने भतीजे उन्मुक्त को इस फिल्म के बारे में फोन पर बताते हुए मुझे बेतरह रुलाई फूटी थी. पर धीरे-धीरे वह भावुकता वाला तत्व खत्म होता गया, पर संवेदनाओं में इजाफा होता गया. पहले बहुत ही आत्मकेंद्रित था, पर बाद में दूसरों को जगह देनी शुरू किया और दूसरा ज्यादा महनत्वपूर्ण होता गया.

कक्षा ग्यारह की डायरी के इन पन्नों को पढ़ते हुए मुझे जहां-तहां वही भावुकता दिखती है. कई जगह मैंने ईश्वर से लगभग गिड़गिड़ाते हुए जीवन में एक अदद प्रेमिका की मौजूदगी की याचना भी की हुई है.

जीआईसी में तो लड़कियां पढ़ती न थीं. उस मामले में जो होना था, वह कॉलेज में जाने के बाद ही शुरू हो पाना था, जिसके बारे में मैं आगे थोड़ा बहुत बताने का जोखिम उठाऊंगा क्योंकि यह पिथौरागढ़ की बात है, जहां अगर आप लड़की से बात करते हुए देख लिए जाते थे, तो दूसरे लड़कों को लगता था जैसे आपकी तो लॉटरी ही लग गई.

डायरी के इस पन्ने पर अंत में एक बार फिर मैंने यह कहते हुए कि उन्होंने मृत्यु से कुछ दिनों पूर्व निम्न पंक्तियां लिखी थीं जो मेरे हृदय के सम्पूर्ण क्षेत्र को घेरे, मुझे जीवनपर्यन्त सत्य का दर्शन करवाती रहेगी, उनकी कविता उद्धृत की है –

 इस विपुला पृथिवी को मैं जानता ही कितना हूं
देश-देश के न जाने कितने नगर राजधानियां
मनुष्य की कितनी कीर्तियां
कितनी नदियां, गिरि, सिंधु, मरू
कितने अज्ञात जीव कितने अपरिचित तरू
अनदेखे रह गये, विश्व का आयोजन विशाल है
मेरा मन उसी के एक कोने में सिमटा रहता है.

इस कविता की पहली पंक्ति- इस विपुला पृथिवी को मैं जानता ही कितना हूं- मुझे पैंतीस साल पहले जैसी उस उम्र में लगी थी, ठीक वैसी ही आज भी लग रही है. उसमें लैश मात्र फर्क नहीं आया है. इस बीच दुनिया जहान घूमा तो हूं, पर कितना?

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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Girish Lohani

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