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ये रहा मेरे हाथ लगी ग्यारहवीं की डायरी का पहला पन्ना

पहाड़ और मेरा जीवन – 48

(पिछली क़िस्त: पुराने दोस्त पुरानी शराब से ज्यादा जायकेदार होते हैं)

पुरानी चीजें सहेजकर रखना मुझे मुश्किल काम लगता है क्योंकि अव्वल तो पुरानी चीजें खुद ही खराब हो जाती हैं और एक दिन आप उन्हें फेंकना ही मुनासिब समझते हैं, दूसरा उम्र के साथ पुरानी चीजों के प्रति आपके मन में पहले जैसा मोह नहीं बना रह पाता, उनका भावनात्मक मूल्य कम होता जाता है. इसलिए मेरे पास बहुत पुरानी ज्यादा चीजें नहीं हैं. (Sundar Chand Thakur Memoir 48)

लेकिन पिछले दिनों कुछ खोजते हुए मुझे अपनी ग्यारहवीं की डायरी मिल गई. डायरी क्या वह एक बिना गत्ते के कवर वाला सस्ता-सा रजिस्टर है. उसके कवर पर मैंने अपने फाउनटेन पेन से लिखा है – बीती यादें, बीते दिन, प्यारी बातें, प्यारे दिन, गाता रहूं, यूं ही हर पल, सारी रातें, सारे दिन. इन पंक्तियों को पढ़कर ही अहसास हो जाता है कि लिखने वाले की आंखों में भविष्य को लेकर कितने सपने छिपे हुए हैं और उसका हृदय कितनी कोमला भावनाओं से भरा हुआ है. नाम लिखने वाली जगह सिर्फ नाम नहीं लिखा हुआ. बाकायदा मैंने एक तखल्लुस ईजाद किया हुआ है- सुन्दर ‘परिपक्वता की ओर’ और नाम के नीचे ही दिल से निकले अशआर हैं – अन्जान राहों पर कदम रखना सीख ले, दिल पकड़कर गम में संभलना सीख ले. हालांकि आज मैं सोचने की कोशिश कर रहा हूं कि कक्षा ग्यारह में पढ़ते हुए ऐसा भी क्या गम मेरे जीवन में रहा होगा कि दिल से ऐसी पंक्तियां निकलीं. (Sundar Chand Thakur Memoir 48)

इस रजिस्टर में पहले ही पन्ने पर मैंने एक तारीख लिखी है – 11 अगस्त 1986. और उसी के करीब लिखा है अठारवां जन्मदिन. गौर करें कि अठारवां गलत है. अठारहवां होना चाहिए था. जरूर मैंने हिंदी के इम्तिहान में ऐसी ही गलतियां की होंगी क्योंकि मुझे लगता था कि दसवीं में मैं सौ में से तिरहत्तर अंक, जो संयोग से कक्षा में सबसे ज्यादा थे, से ज्यादा का हकदार था. बहरहाल, इतने सालों बाद इस रजिस्टर में लिखी बातें पढ़कर मुझे अपनी नादानी पर ही प्यार हो आया. सचमुच यकीन न हुआ कि मैं दिल का इतना पवित्र किस्म का बालक था. यकीन इसलिए नहीं हुआ क्योंकि मैं जानता हूं मैं नहीं था, पर डायरी के पन्नों में लिखी बातें ऐसा ही आभास देती हैं. पहले पन्ने के कुछ वाक्य मैं हूबहू दे रहा हूं, जिन्हें पढ़कर लेखक के निश्छल हृदय का अनुमान लगाया जा सकता है.

आज महसूस हो रहा है कि वक्त के साथ मुझमें कितनी शीघ्रता से शारीरिक व मानसिक परिवर्तन आये. भिन्न-भिन्न प्रकृति के लोगों के बीच रहकर, भिन्न-भिन्न प्रकार की पुस्तकें पढ़कर, न जाने क्या मेरे भीतर समा गया है कि मैं प्रतिपल एक अजीब-सी छटपटाहट महसूस करता हूं. मैं अपने एकाकीपन के बीच बहुत कुछ सोचता रहता हूं. मैं सोचता हूं उन लोगों के बारे में जो कभी किसी कवि की कविता का विषय नहीं बन पाए, मैं सोचता हूं मानव प्राण की कीमत के बारे में जिसे मैंने सड़कों पर चन्द कागजी टुकड़ों हेतु बिकते देखा व सुना है, मैं सोचता हूं मानव की भिन्न-भिन्न प्रावस्थाओं में अंकुरित होने वाली हृदयगत भावनाओं के बारे में और मैं सोचता हूं ‘हृदय की चंचलता’ के बारे में जो इन्सान को पूरे ब्रह्मांड की सैर पलक झपकते करा देता है.

हे प्रभु! मेरे इस सरल हृदय में अशुद्ध भाव न आने देना. मेरे हितचिंतकों की समस्याओं का निराकरण कर देना, उनके दुख-दर्द हर लेना. प्रभु इस लघु जीवन का 18वां वर्ष पूरा करते हुये मुझे महसूस हो रहा है कि मेरे घर के बाहर अज्ञान की खूब वेगवती आंधी चल रही है. मेरे गुलशन में खूनपसीने से सींचे गये पौधों के सुन्दर पुष्प इस आंधी में झड़ने लगे हैं. हे प्रभु! मुझे बचा ले! मुझे बचा ले! इस अज्ञान के अंधकार में इससे पूर्व कि मैं अपना अस्तित्व खोऊं, तू मुझे बचा ले!

अब यह जो बचा ले, बचा ले कर आर्तनाद है, मुझे इसकी कोई वजह नहीं दिखती. बल्कि यह थोड़ा हास्यास्पद ही लग रहा है. क्योंकि इस आर्तनाद से लेखक के बहुत भीरू प्रकृति का होने का आभास मिल रहा है. पर लेखक तो मैं ही था. और मैं ही कुछ वर्षों बाद फौज में अफसर बना. मैं भीरू तो नहीं था. तो फिर क्या था वह मेरे मन में कि मैं अज्ञान की आंधी से इतना घबरा रहा था. असल में यह मेरा भविष्य को लेकर डर और संशय ही रहा होगा, जो इस रूप में बाहर आ रहा था. मैंने कक्षा छह से कॉलेज तक माता-पिता से दूर अकेले ही जीवन जिया, सिर्फ एक साल को छोड़कर जब मैं आठवीं कक्षा की पढ़ाई के दौरान राजस्थान में परिवार के साथ रहा था. पिताजी अपने व्यसनों में इतना लिप्त थे कि उन्होंने कभी मार्गदर्शन जैसा कुछ नहीं किया. वे साथ रह ही नहीं पाए, तो मार्गदर्शन क्या करते. मेरा मार्गदर्शन बहुत हद तक बड़े भाई ने किया, पर वह भी अपनी पढ़ाई और अपने संघर्षों में डूबा रहा. मुझे अपनी और अपने भविष्य की चिंता स्वयं करनी थी. शायद यही वजह थी कि मैं अपने समय को लेकर बहुत सचेत रहता था. उस उम्र तक मैं ईश्वर और धर्मों की उत्पत्ति की वजह को समझा नहीं था इसीलिए प्रभु का नाम पुकारने की वजह मेरी वह मन:स्थिति रही होगी, जिसे किसी शक्ति की शरणगाह चाहिए थी.

आज मैं जब अपने अंत:करण की विवेचना करता हूं, तो पाता हूं कि वह जो हितचिंतकों की रक्षा वाला तत्व था, अब वह पूरी तरह अध्यात्म की राह पर चलते हुए अपने परिचितों और अन्य लोगों को भी अज्ञान के अंधकार से बाहर निकाल उनमें ज्ञान की रोशनी भरने की दिन पर दिन बलवान होती इच्छा के रूप में विकसित हो चुका है. जिस ‘हृदय की चंचलता’ का मैंने डायरी में जिक्र किया है, उसका मैं हर उम्र, पड़ाव पर अध्ययन करता रहा हूं और अब जाकर उस स्थिति में पहुंचा हूं जहां मैं उसे समझने और उससे निपटने के तरीकों की बात कर सकता हूं. पर यह देखना मेरे लिए कम हैरान करने वाला नहीं है कि जिस तरह हमारे नैन नक्श बचपन के नैन नक्श से मिलता-जुलता रूपांतरण ही होते हैं, हमारी बाद में विकसित होने वाली प्रवृत्तियों के बीज भी बहुत पहले ही हमारे भीतर अपनी उपस्थिति बना लेते हैं और धीरे-धीरे ही विकसित होते हैं. वह जो किशोर वय में दूसरों को दुख न देने की प्रभु को की जा रही प्रार्थना है, अब वह जीवन में एक नया थोड़ा आध्यात्मिक किस्म का रूप ले रही है क्योंकि अब मैं सोच विचार के केंद्र से स्वयं को हटाकर वहां दूसरों को स्थापित करने की कोशिश कर रहा हूं क्योंकि अब मुझे यह बात समझ आई कि दुखों की सबसे बड़ी वजह ही यह होती है कि हम हमेशा अपने ही बारे में सोचते रहते हैं कि कैसे हर स्थिति से हमें लाभ मिले, हर व्यक्ति से हमें कुछ न कुछ फायदा हो, सब कुछ हमेशा हमें ही मिले, किसी दूसरे को कुछ भी नहीं मिले, तो भी कोई बात नहीं. यह जो मेरी ऐसे आत्मकेंद्रित जीवन से मुक्त होने की कोशिश है, इसके बीच किशोर वय में ही पड़ गए थे लगता है. डायरी के पन्नों पर आगे खजाना बिखरा हुआ है. धीरे-धीरे मजा लिया जाए उसका.

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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