सुन्दर चन्द ठाकुर

मुझे जिंदा पाकर मां ने जब मुझ पर की थप्पड़ों की बरसात

पहाड़ और मेरा जीवन -45

पिछली क़िस्त : बद्रीदत्त कसनियाल- जिनके सान्निध्य में कब पत्रकार बना, पता ही न चला

पिछली क़िस्त में आपने मेरे हल चलाने और गांव का जीवन जीने के बारे में पढ़ा. इस बार मैं आगे बढ़ने की बजाय पीछे लौट रहा हूं क्योंकि मुझे लगता है पीछे जो भी उल्लेखनीय है, उसे छूटना नहीं चाहिए.

एक पाठक ने भूतों के किस्सों के बारे में लिखने की दरयाफ्त की है. अब पहाड़ में भूतों के किस्से नहीं होंगे तो कहां होंगे. कुछ मेरे जहन में भी हैं, दूसरों के सुनाए हुए. सुनाए दूसरों ने थे, पर असर तो मुझ ही पर हुआ था. उन किस्सों के बारे में भी एक किस्त तो बनती है. लेकिन उससे पहले इस बार मैं उन दिनों की बात बता रहा हूं जब मैं पांचवीं में रहा हूंगा क्योंकि छठी के बाद तो मां दोनों बेटों को छोड़कर राजस्थान चली गई थी.

उन दिनों हमारे घरों में लैंप हुआ करता था. यह अंग्रेजों वाला लैंप नहीं, पहाड़ का लैंप था, ढिबरी वाला. होने को लालटेन भी हुआ करती थी, पर वह चूंकि महंगी आती थी और उसका शीशा अक्सर चटक जाता था, इसलिए घर में ज्यादातर ढिबरी वाला लैंप ही इस्तेमाल किया जाता था.

लालटेन शब्द लिखते हुए मुझे मंगलेश जी की पहाड़ पर लालटेन और विष्णु खरे की लालटेन जलाना कविताएं याद आ रही हैं. विष्णु जी ने अपनी कविता में लालटेन जलाने को लेकर कई तरह की सावधानियां बरतने की बातें लिखी हैं. मैं कमोबेश वे सभी सावधानियां बरतता था, मगर उसका शीशा फिर भी चटक ही जाता और तब अगले कई दिनों तक हम लोग ढिबरी वाले लैंप की रोशनी में ही पढ़ते थे.

जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं कि किशोर वय तक आने से पहले मेरी नाक बहुत बहती थी और नाक पर पसीना भी बहुत आता था. मेरे घर वाले कभी कभी मजाक के मूड में इस नाक पर पसीना आने के पीछे ऐसी वजह बताते कि मुझसे कोई जवाब देते नहीं बनता. पर अब मेरी नाक पर पसीना नहीं आता. इसलिए कम से कम मैं अपने ही भीतर आश्वस्त हूं कि उन लोगों की बात झूठी निकली. पर अभी नाक पर पसीने से ज्यादा अहम नाक का बहना है. होता यह था कि कई बार जब नाक बहते हुए नाक की उसे वापस ख्रींच लेने की सीमा से बाहर निकल जाती थी, तो वापस नहीं आ पाती थी. लेकिन जब ऐसा होता तो खतरा यह रहता था कि वह जमीन पर नेस्तोनाबूद होने से पहले  मेरी नेकर या पैंट पर अपने स्मृतिचिन्ह छोड़ जाए. यह फिक्र दिमाग में आते ही कुछ ऐसा होता कि मैं ठीक सीमारेखा से उसे वापस खींच लेता.

यह ऐसे ही किसी रोज उसे सीमारेखा से वापस खींचने के दौरान था कि मेरा ध्यान उसके रंग पर चला गया. वह पीले, हरे, या दोनों के मिश्रण, या खाकी रंग का भी न होकर काले रंग का दिखा. मैं यह रंग देख बहुत हैरान हुआ. ऐसा जब कई बार हुआ, तो मुझे समझ आया कि इसका संबंध लैंप से निकलने वाले काले धुएं से है. ऐसा ही था भी.

साल में बाकी दिन तो मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कभी संगठित अध्ययन किया, पर परीक्षाओं के दिनों में तो मां भी कान पकड़कर बैठाए रखती थी. सर्दियों में बाहर इतनी ठंड रहती थी कि खिड़कियां शाम को ही बंद कर दी जातीं. हमारे नीचे वाले घर में तो खैर कोई खिड़की थी ही नहीं.

एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि परिवार के सभी लोगों को कहीं बाहर जाना था. मेरी परीक्षाएं चल रही थीं इसलिए मुझे घर पर ही छोड़ दिया गया, इस भरोसे के साथ कि मैं पढ़ाई करूंगा. जाड़ों के दिन थे, इसलिए मुझे ठंड न लगे इसके लिए मां ने शाम को ही अंगीठी सुलगा ली थी. उसे भी कमरे में रख दिया गया ताकि कमरा गर्म रहे और ठंड पढ़ाई में मेरे ध्यान में विघ्न न पैदा करे.

मैंने अंगीठी के रखे जाने से गर्म हुए कमरे में कितनी देर तक पढ़ाई की याद नहीं पर इतना याद है कि जब आंख खुली तो कोई मेरे गालों पर थप्पड़ों की बारिश कर रहा था- तू आदमी है या कुंभकरण. इतनी देर से दरवाजा खटखटा रहे हैं, सुन नहीं रहा क्या! मुझे वस्तुस्थिति समझने में कुछ समय लगा. मैंने देखा कि मां बहुत आक्रामक होकर मुझपर थप्पड़ों की बरसात कर रही है.

ऊपर मकान मालिक के घर के लोग भी बाहर दरवाजे पर खड़े थे. उनकी पत्नी जिन्हें मैं आंटी जी बोलता था, मुझे उनकी आवाज सुनाई पड़ी – रन दिय हो गोविंदी क इज्या. नींद आ गै हो. (रहने दो गोबिंदी की मां, नींद आ गई होगी) मुझे बाद में मालूम चला कि असल में मां और भाई घंटे भर तक दरवाजा खटखटाते रहे. उन्होंने यहां तक दरवाजा तोड़ने की कोशिश भी की. शोर सुनकर ऊपर मकान मालिक के घरवाले भी बाहर जमा हो गए. सबने अपनी-अपनी तरह से दिमाग लगाया कि अगर मैं सो गया हूं तो मुझे किस तरह उठाया जा सकता है.

कांसे की परात को दरवाजे पर मारकर आवाज भी पैदा की गई. लेकिन भीतर से उन्हें कोई जवाब नहीं मिला. अब मां का दिल घबराने लगा क्योंकि उसने कमरे के अंदर जली अंगीठी से बच्चों के मरने की खबरें सुनी थी. बाहर से अगर ऑक्सीजन आने के रास्ते बंद हो जाएं और कमरे में अंगीठी जलती रहे, तो जल्दी ही कमरे की ऑक्सीजन खत्म हो सकती है और तब कमरे में मौजूद व्यक्ति धीरे-धीरे बेहोशी में चला जाता है और उसकी मृत्यु भी हो जाती है. कमरा छोटा हो तो लैंप के धुएं से भी ऐसी दुर्घटना घट सकती है और मेरे मामले में तो अंगीठी भी जली हुई थी. जितना बाहर से मुझे जगाने की कोशिशें हो रही थीं, मेरी मां उतनी रुआंसी होती जा रही थी. उसे इस बात की चिंता सता रही थी कि कहीं उसके बच्चे को अंगीठी का धुआं तो नहीं लील गया.

जब दरवाजे के बाहर खड़े लोगों के सारे उपाय फेल हो गए, तो आखिरकार मेरे भाई को दूसरी ओर से छज्जे पर जाकर और खिड़की तोड़कर कमरे में प्रवेश करना पड़ा जहां मैं बेसुध सो रहा था. उसने अंदर से दरवाजे की कुंडी खोली और तब मां भीतर घुसी. उसके भीतर आने तक भाई मुझे हिलाकर उठा चुका था. मुझे आंखें मिचमिचाते उठते देख मां पहले तो खुश हुई होगी कि चलो मुझे कुछ हुआ नहीं और तब उसके भीतर पिछले एक घंटे में मिली मानसिक, भावनात्मक प्रताड़ना गुस्से में तब्दील हुई होगी और उसने थोड़ी खुशी और थोड़े गुस्से में भरकर मुझपर थप्पड़ों की बरसात की होगी.

आज जब उस घटना को याद करता हूं तो एकबारगी थोड़ा सिहर भी जाता हूं. इसलिए नहीं कि मां ने मुझ पर थप्पड़ों की बरसात की थी, पर इसलिए कि अब मैं जानता हूं वह कितना खतरनाक था. बिना हवा वाले कमरे में लैंप और अंगीठी के धुएं के साथ घंटों तक सोए रहना वाकई बहुत ही जोखिम भरा था और यह कोई करिश्मा ही था कि मैं उस रोज भीतर जीवित मिला. बाद में मैंने अंगीठी के धुएं से लोगों के मरने की बाकायदा खबरें पढ़ीं. जीवन इसी रूप में विस्मयकारी लगता है कि कई बार वह कैसी-कैसी दुर्घटनाओं से हमें बचा लेता है और कई बार जरा-सी बात मौत की वजह बन जाती है. लेकिन इस घटना में सबसे विलक्षण मां के मन की स्थिति थी.

जिस तरह कई बार धूप भी होती है और बरसात भी हो रही होती है, मां कमरे में मुझे जिंदा पाकर खुश भी हो रही थी और गुस्से में मुझ पर थप्पड़ भी बरसा रही थी. अब ये बात अलग है कि उन थप्पड़ों से हुई शारीरिक पीड़ा की मेरे पास कोई स्मृति नहीं, बस इतना याद है अगली सुबह मां ने अकारण बिना त्योहार के खीर बनाई थी और सबसे पहले मुझे बुलाकर खिलाई. इसका क्या कि उस खीर में उसने ढेर सारा ताजा बना घी भी डाल दिया था क्योंकि मुझे घी डाली हुई खीर बहुत पसंद थी.

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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