फरवरी का पहला दिन था. साल उन्नीस सौ साठ. सत्रह से उन्नीस बरस के चार लड़के अमरीका के उत्तरी कैरोलिना के ग्रीन्सबोरो शहर के एक रेस्टोरेंट ‘वूल्सवर्थ लंच काउन्टर’ में आए और खाना माँगा. जैसा कि उस समय का अमरीका था, अश्वेत लोगों को सार्वजनिक स्थानों पर श्वेत लोगों के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं होता था, उन्हें उस रेस्टोरेंट में खाना खाने की इजाज़त नहीं थी, न मिली. उन्हें खाना नहीं परोसा गया बल्कि उठकर वहाँ से जाने के लिए कहा गया और उसके बाद जो हुआ वो अमरीका के इतिहास में सबसे बड़े सामाजिक संघर्ष और बदलावों में दर्ज है. उन छात्रों ने वहाँ से जाने से मना किया और शांतिपूर्ण असहयोग की शुरुआत हुई. पीसफुल प्रोटेस्ट. कुछ याद आया? एक महादेश और सहारे की लाठी लिए एक बूढ़ा? खैर! (Student Protests in Historical Perspective)
महज़ चार छात्रों के धरने से शुरू हुआ ये प्रोटेस्ट तीसरे दिन तक तकरीबन तीन सौ छात्रों और सिविल सोसाइटी के लोगों के धरने में और धीरे-धीरे तीन-चार माह में पचास शहरों और हज़ारों अश्वेत लोगों के एक बहुत बड़े आन्दोलन में तब्दील हुआ. (Student Protests in Historical Perspective)
वो चार लड़के जिन्हें इतिहास ने `ग्रीन्सबोरो फोर’ के नाम से दर्ज किया ‘नार्थ कैरोलिना एग्रीकल्चर एंड टेक्नीकल कॉलेज’ के छात्र थे. उनकी इस छोटी सी शुरुआत ने एक ऐसी अहिंसात्मक क्रान्ति को जन्म दिया जिसने गरीब, असहाय और शोषित अश्वेत लोगों को अन्याय, गैर-बराबरी और अराजकता के ख़िलाफ़, सत्ता की आंखों में आंखे डालकर देखने का बूता दिया. कि जैसे-
‘वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला हो कुकुरमुत्ता’.
ये वही अहिंसात्मक आन्दोलन था जिसके साथ चलकर मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने रोज़गार और आज़ादी के नाम से ‘मार्च ऑन वाशिंगटन’ जैसा बड़ा प्रोटेस्ट और ‘आई हैव अ ड्रीम’ जैसे ऐतिहासिक भाषण से अपनी आँखों के ख्वाब को वहां मौजूद ढाई लाख अश्वेत आँखों में संजो दिया था. यस, दिस वाज़ ‘अ ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ फ़ॉर देम. हासिल? अंततः चार साल के अन्दर सरकार को ‘सिविल राइट्स एक्ट 1964’ बनाने और अश्वेत लोगों को बराबरी के साथ जीने के सारे वाजिब हक़ दिए जाने पर मजबूर होना पड़ा. (Student Protests in Historical Perspective)
साठ का दशक छात्र राजनीति और बड़े पैमाने पर स्टूडेंट एक्टिविज़्म का दौर था. दो ध्रुवों में बंटा वैश्विक परिदृश्य मानव जीवन के राजनैतिक इतिहास के सबसे व्यापक असर वाले शीत युद्ध की ठंडी आग में झुलस रहा था. इसकी पहली आंच युवाओं ने महसूस की. विश्व भर में छात्रों के बहुत से आन्दोलन हुए. उनमें से कुछ सफल हुए, कुछ अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर पाए. यद्यपि बहुत से आंदोलनों ने सौ प्रतिशत सफलता प्राप्त नहीं की फिर भी मोटे तौर पर वो एक ऐसा विचार बनाने में कामयाब हो सके कि युवाओं की एकजुटता बड़े राजनैतिक बदलाव ला सकती है.
उन्नीस सौ अढ़सठ में होवार्ड यूनिवर्सिटी या उसके तुरंत बाद कोलंबिया यूनिवर्सिटी में विद्यार्थियों ने अपने आप को डोर्मिटरी में बंद कर शान्तिपूर्वक कुछ मांगे रक्खीं जिनमें से कुछ स्वीकृत हुईं कुछ नहीं लेकिन शिक्षा को लेकर शुरू हुए इस आंदोलन ने एक बड़ा राजनैतिक प्रभाव डाला. फ्रांस और पोलैंड में भी यही वक्त था छात्र आंदोलनों का. वारसा में जनवरी से मार्च के बीच सरकार की सेंसरशिप के विरुद्ध बड़ा छात्र आन्दोलन हुआ मगर ज्यादा सफलता नहीं मिली. उन्हीं दिनों पेरिस में छात्रों ने राष्ट्रपति के खिलाफ़ हल्ला बोला. उन्हें शिक्षकों और लेबर संगठनों का भी सहयोग प्राप्त हुआ लेकिन कोई बहुत बड़ी सफलता नहीं मिल सकी.
साठ के दशक में युद्ध के खिलाफ़ जो वैश्विक माहौल बना वो मुख्यतः यूनिवर्सिटी और कॉलेज में छात्रों के एकजुट होकर मुख़ालिफत करने से ही बना. विएतनाम वार के ख़िलाफ़ एक संस्था बनी ‘स्टूडेंट्स फॉर अ डेमोक्रेटिक सोसाइटी’ जिसने अमरीका के लगभग सभी बड़े कॉलेज में छात्रों को अमरीका की नीति के खिलाफ़ एकजुट किया. यहाँ तक कि कई बार सरकार को उन्हें चुप कराने के लिए कठोर कार्यवाही करनी पड़ी. ऐसी ही एक कार्यवाही में उन्नीस सौ सत्तर में केंट स्टेट यूनिवर्सिटी के चार छात्र पुलिस की गोलियों का शिकार हो गए. इसके बाद तो इस आन्दोलन ने आग पकड़ ली. पूरे अमरीका में जगह-जगह यूनिवर्सिटी और कॉलेज के छात्रों ने सिविल सोसाइटी के प्रबुद्ध नागरिकों के सहयोग के साथ प्रोटेस्ट किया. विएतनाम से उन्नीस सौ तिहत्तर में अमरीकी फ़ौज के हटने के कारणों में इस स्टूडेंट्स प्रोटेस्ट का नाम भी लिया जाता है. (Student Protests in Historical Perspective)
उसी तरह से अफ्रीका में रंगभेद के ख़िलाफ़ उठने वाले आन्दोलन की नींव भी छात्रों की पीठ पर रक्खी हुई है. उन्नीस सौ अड़तालीस से इक्यानबे तक रहने वाले इस दमनकारी रंगभेदी शासन को पहली चुनौती `सोवेतो विद्रोह’ से मिली थी जो वस्तुतः छात्रों का ही विद्रोह था. इस विद्रोह का तात्कालिक कारण तो ‘बांतू एजुकेशन एक्ट, 1953’ था लेकिन इसके मूल में चली आ रही बहुत सी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक रंगभेदी नीतियाँ थीं, जिसने अश्वेत लोगों को दूसरे दर्जे के नागरिक हो जाने पर मजबूर कर दिया था. `बांतुस्तान’ बनाने जैसी शर्मनाक ‘होमलैंड पॉलिसी’ भी इसी रंगभेदी नीति का नतीजा थी.
हुआ कुछ यूं कि सोलह जून उन्नीस सौ छिहत्तर की सुबह एक शांतिपूर्ण मार्च के लिए दक्षिण अफ्रीका के सोवेतो कस्बे में स्कूल के छात्र एकत्र हुए. शुरुआती दौर में दो स्कूलों के कुछ सौ छात्रों की टुकड़ी बैनर्स, पोस्टर्स और नारों के साथ सोवेतो की गलियों में निकली और दिन होते-होते कई हज़ार आम लोगों का हुजूम प्रोटेस्ट में शामिल हो गया. अहिंसात्मक प्रोटेस्ट करने वाले छात्रों पर दमन की कार्यवाही हुई, कहीं-कहीं छिटपुट हिंसा शुरू हुई और देखते ही देखते डेढ़ सौ से ज़्यादा आन्दोलनकारियों की मौत हो गयी. इनमें से ज़्यादातर छात्र और युवा बताए जाते हैं. इस आन्दोलन का बहुत व्यापक असर दक्षिण अफ्रीका और बाहरी मुल्कों में देखने को मिला. अमरीका, इंग्लैण्ड और बहुत से अन्य देशों के विश्वविद्यालयों ने प्रोटेस्ट को नैतिक सहयोग दिया और अपने देश के विश्वविद्यालयों को रंगभेदी सरकार की संस्थाओं से संबंद्ध विच्छेद करने के लिए बाध्य किया. हालांकि लंबे समय तक लड़ी गई इस लड़ाई और संयुक्त राष्ट्र द्वारा रंगभेद को `मानवता के ख़िलाफ़ अपराध’ कहते हुए 1966 में रेजोल्यूशन भी पास किये जाने के बाद भी नब्बे के दशक तक दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार कायम रही. रंगभेद के खिलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय माहौल बनाने में इस ‘सोवेटो अपराइज़िंग’ को हमेशा याद किया जाएगा उसी तरह से जैसे दक्षिण अफ्रीका इस आन्दोलन के दिन, सोलह जून को ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में याद करता है.
ऐसा ही एक महत्वपूर्ण साल था उन्नीस सौ नवासी. चीन में तियानानमेन चौक पर छात्रों के नेतृत्व वाले आंदोलन को बुरी तरह कुचला जा चुका था. दूसरी तरफ बर्लिन की दीवार गिर चुकी थी और ये घटना इस दीवार के गिरने एक हफ्ते बाद की बात है. जर्मनी के दाहिने सटे हुए `एक पार्टी सत्ता’ वाले देश चेक्लोसोवाकिया में एक असहयोग आन्दोलन खड़ा हुआ. असहयोग, वो भी शान्तिपूर्ण, बिना किसी हिंसा के. बिना खड्ग बिना ढाल. सरकार की सारी कोशिशों के बाद भी इस आन्दोलन को सबका सहयोग मिला. राजधानी प्राग में एक हफ्ते के अंदर पांच लाख लोगों का अहिंसक जमावड़ा हुआ और सिर्फ पन्द्रह दिनों के अंतराल पर वस्तुस्थिति में इतना बड़ा बदलाव हुआ कि संविधान में कम्युनिस्ट पार्टी की आधिकारिता वाले अनुच्छेदों में संशोधन हुआ, पश्चिमी जर्मनी और आस्ट्रिया के साथ खिंची सीमा पर कंटीले तारों में ढील दी गयी, और देश एक संसदीय लोकतंत्र में तब्दील हो गया. इतिहास इस अभूतपूर्व क्रान्ति को ‘वेलवेट क्रान्ति’ के नाम से जानता है. जानते हैं इस क्रान्ति का सूत्रपात किसने किया था? यूनिवर्सिटी के छात्रों ने. ‘इंटरनेशनल स्टूडेंट्स डे’ यानी सत्रह नवम्बर को प्राग यूनिवर्सिटी के छात्र इकट्ठा हुए इस दिन शहीद हुए छात्रों की याद में. पचास साल पहले जर्मनी की नाज़ी सरकार ने इसी दिन इस यूनिवर्सिटी पर कहर बरपाया था. आन्दोलनरत स्वतंत्रचेता नौ छात्रों की मौत हुई थी और तकरीबन बारह सौ छात्रों को कंसंट्रेशन कैम्प में डाल दिया गया था. उन्नीस सौ नवासी में छात्र उनकी याद में इकट्ठा हुए और धीरे-धीरे उनका जमावड़ा तत्कालीन सरकार के खिलाफ़ होता गया. समाज के हर तबके, हर वर्ग, हर पक्ष का विश्वास मिलता गया एंड रेस्ट, इज़ वेलवेट! (Student Protests in Historical Perspective)
इट मे नॉट बी वेलवेट एव्रीटाइम माई फ्रेंड, समटाइम्स इट मे बिकम रगेड. क्योंकि उन्हें छात्र राजनीति करते अच्छे नहीं लगते. छात्रों को पढ़ना चाहिए. लेकिन इतिहास नहीं पढ़ना चाहिए उन्हें. इतिहास पढ़ते-पढ़ते छात्र राजनीति से प्रेम हो जाता है. छात्र प्रेम करते भी अच्छे नहीं लगते. दरअसल उन्हें तुम्हारा ‘कू-ए-यार’ से निकलना नहीं पसंद, उन्हें तुम्हारा ‘सू-ए-दार’ चलना नहीं पसंद. उन्हें पसंद है तो बस तुम्हारा कूएँ में पड़े रहना.
सो, अब त दादुर बोलिहैं…
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अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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