समाज

घट के पाट और चोखी बसंतमूली की सब्जी

ह्यून में अच्छा झड़ पड़े और बसंत में डाल न बरसे तो हमारे गाँव में इतना गेहूं तो हो जाता कि छ: साथ महीने तक गुजारा चल जाय. जिस साल चौमास सही बरसा और ह्यून सूखा न जाए तो फागुन चैत तक गाड़ किनारे घट में अनाज पिसता रहता. कुदरत माता ने पहाड़ में अपने फल बगड़ और धूरों में अलग-अलग बांटे. धुरों को काफल मिले तो बगड़ को च्यूर और जामुन. धुरे में माल्टा नारिंग ने रस बरसाया तो बगड़ को आम-अमरुद और केले का पोषण. धुरों को मिला हिमाल के बारहमासी बरफ का दर्शन तो बगड़ के हिस्से आई हिमालय की बेटियां, सदानीरा नदियाँ. घट भी बगड़ के लोगों के हिस्से आया. Story of Gharat

कुछ हम जैसे रहे जो न बगड़ के रहे न धुरे के. हमारे सर ऊपर धुरों की ठंडक थी तो पैरों में बगड़ की गर्माहट. सौड़-भौड़ के किनारे माल्टा के दाने हजारी के फूलों से दमके तो पिछाड़ी में आम के पेड़ों में खूब न्योली गाती रही. धुरों से आने वाली छोटी छोटी जलधाराएं यहाँ पंहुचने तक इतनी जवान हो जाती है कि एक घट को घुमाकर हमारे लिए अनाज पीस सके और हमारे खेतों में धान रोपने लायक नमी पैदा कर सके. ऐसे ही मिलेजुले भूगोल के एक अनजान से टुकड़े में मेरा गाँव है. इस गाँव के नीचे एक छोटी जलधारा बारहमासी बहती है. अगर गर्मी बहुत बेरहम न गुजरे तो साल में सात आठ महीने हम लोग घट में अनाज पीस लेते. जब गधेरे में पानी बहुत ही घट जाता तो हम घर में जातर में ही अनाज पीसते.

घट को चलाने के लिए पानी तो पास ही बहता था लेकिन इसके भारी पाटों के लिए जो पत्थर लगते वह हमारे आस-पास कहीं नहीं होते. इस पनचक्की के पाट हमारे इलाके में लाये जाते बहुत दूर बौराण से. गंगोली में कहीं दूर थ यह इलाका जो अपने रेशे के काम और पत्थर के लिए जाना जाता था. मैंने अपने घट में जो पत्थर देखे वह तब से अब तक वही हैं और बदले नहीं गए हैं. लेकिन जब हमारे घट के लिए पाट लाये गए तब का एक किस्सा मैंने सुना है वह यहां लिख रहा हूँ.

किस्सा इस घट के पाट से जुड़ा है. फोटो : विनोद उप्रेती

कहते हैं घट लाना बहुत कठिन और श्रमसाध्य काम हुआ करता था. गाँव के सभी जवान मर्द इस काम के लिए गए ही साथ में तुजुर्बेदार मिस्त्री साथ गए जो पत्थर की बहुत बारीक परख रखते थे. इतने भारी पत्थर ढोना कोई आसान काम न था इसलिए साथ में गए पड़ोस के गाँव के ढोल बजाने वाले. रास्ते की चढ़ाई-उतराई, सैण-दमसैण के हिसाब के उनके बाजे से अलग-अलग तालें फूटती. जोश कम होता दिखता तो ताल तीव्र हो जाता. साथ ही दूर-दूर गाँवों तक अंदाजा आ जाता कि टोली चढ़ाई में है कि नदी पार कर रही है. इतने लोगों का दल हमारे गाँव से निकला तो द्योरिया की गाड़ के किनारे-किनारे मुवानी और फिर झुलागडा में रामगंगा को पार कर गंगोली के इलाके में पंहुचा. यहाँ से चढ़ाई पार करते-करते पुरानी घोड़िया रोड पर बने पड़ाव मुनकाटा में रात हुई. कहते हैं यहाँ कभी कुछ लुटेरों ने कुछ मुसाफिरों की मुण्डियाँ काट दी थी इसलिए इसका नाम मुनकाटा पड़ गया.

मुनकाटा में रात हुई तो पूरे दल को खाना खाकर आराम कर थकान उतारनी थी ताकि अगली सुबह मुंह अँधेरे उठकर आगे का सफ़र किया जाय और शाम तक बौराण पंहुचकर घट के लिए पत्थर लिए जाएँ. इस दल के अगुवा थे पधान और मेरे बूबू. पधान भी थे और परिस्थितियों के हिसाब से तुरत फैसले लेने वाले भी. इसलिए उनकी बात सभी लोग मानते.

तो हुआ यूँ कि खाने के लिए चावल तो मिल गए लेकिन कोई दाल सब्जी मिली नहीं. सब्जी के नाम पर देशी प्याज के छोटे-छोटे दाने मिले और पास के एक घर से छाछ. लेकिन समस्या तब आई जब गाँव के सभी लोगों ने प्याज खाने से मना कर दिया. बामण कैसे लासण प्याज खाते भला. यह वही ढकोसले थे जिनके चलते हम घर घुच्चू किस्म के रहे और देशाटन और व्यापार जैसे काम कभी न कर सके. Story of Gharat

खैर स्थिति बड़ी विकट आन पड़ी. अब बूबू के पास एक ही रास्ता था या तो सबको प्याज खिलाकर धर्म भ्रष्ट होने की हीं भावना दे दें या भूखे सो जाएँ. दोनों ही रस्ते अभी मुनासिब न थे क्योंकि गाँव में जो घट का पाट था उसके दो टुकड़े हो चुके थे और उनमें से एक टुकड़ा हमारे घर में सिल के बतौर काम आ रहा था. या तो हमारी दादियां और बुवायें जातर में ही अनाज पीसें या लोगों को अच्छे से खाने के लिए राजी किया जाय.

बुबू ने जो रास्ता अपनाया वह इन दोनों से अगल था. उन्होंने सब गाँव वालों को बिठाकर पूछा कि बताओ कि क्या यह प्याज है? पहाड़ में जो प्याज होता है वह बहुत बड़ा और सफ़ेद होता है पर जो मुनकाटा में मिला वह बहुत ही छोटा और लाल-बैंगनी रंग का था. ऐसा प्याज सभी पहली बार देख रहे थे. ऐसे में बूबू ने कहा आज हम इसका ही पल्यो बनाकर खायेंगे क्योंकि यह प्याज है ही नहीं. यह तो बसंतमूली है. यह तो चोखा हुआ खाओ…

लोगों ने खाया भी और घट भी लाये. साल गुजरते रहे. पैदल रास्ते लुप्त होते गए और मोटा गेहूं हरित क्रांति की भेंट चढ़ कहीं लुप्त हो गया. जातर मेरे घर के कोने में सालों से सोया पड़ा है और नासिक का लाल प्याज हमारी रसोई में रुला रहा है. नदी आज भी वैसे ही बह रही है और घट वैसे ही घूम रहा है… घुर-घुर… घुर-घुर… अबके यह पत्थर घिस गए तो नए कहाँ से आएंगे? Story of Gharat

घट- पनचक्की
बगड़- पहाड़ में नदी किनारे के इलाके बगड़ कहलाते हैं
धुरा- पहाड़ों के ऊपरी इलाके
जातर- हाथचक्की

लॉकडाउन के चौदहवें दिन विनोद द्वारा बनाई गयी पेंटिंग.

काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online

विनोद उप्रेती

पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago