गामा पहलवान अब हमारे महादेश की किंवदन्तियों का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं. उन्हें याद करना अन्तहीन नोस्टैल्जिया जगाता है. बचपन में मेरे पास एक छोटी सी किताब थी जिसमें भारत की चुनिन्दा विभूतियों के बारे में छोटे-छोटे आलेख थे. गामा पहलवान वाला टुकड़ा मुझे बेहद लुभाता था. किताब तो खैर अब न जाने कहां की कहां गई.
पहलवानों और उनकी ताक़त के बारे में तमाम झूठे-सच्चे क़िस्से हमारी भारतीय सांस्कृतिक-सामाजिक परम्परा के अभिन्न हिस्से हैं. मिसाल के तौर पर पंजाब के मशहूर पहलवान कीकर सिंह सन्धू को लेकर यह क़िस्सा चलता है कि एक बार उनके उस्ताद ने उनसे दातौन करने के लिए नीम की पतली टहनी मंगवाई. कीकर सिंह पहलवान को लगा कि गुरु के लिए एक टहनी लेकर जाना गुरु की और स्वयं उनकी तौहीन होगा. सो कीकर सिंह ने समूचा नीम का पेड़ जड़ से उखाड़ डाला और कांधे पर धरे उसे ले जा कर अखाड़े में पटक डाला.
दस साल की आयु में गामा ने जोधपुर में आयोजित शक्ति-प्रदर्शन के एक मुकाबले में हिस्सा लिया. इस आयोजन में क़रीब चार सौ नामी पहलवानों ने भागीदारी की थी और गामा अन्तिम पन्द्रह में जगह बना सकने में क़ामयाब हुए. इस से प्रभावित जोधपुर के तत्कालीन महाराजा ने गामा को विजेता घोषित कर दिया. इस के बाद के कुछ साल गामा की कड़ी ट्रेनिंग का सिलसिला चला. उन्नीस साल की आयु में गामा ने भारतीय चैम्पियन रहीम बख़्श सुलतानीवाला को चुनौती दी और दो राउन्ड तक चले कड़े मुकाबले के बाद क़द अपने से कहीं बड़े रहीम बख़्श को धूल चटा दी.
इस कुश्ती के बाद गामा का रुतबा बढ़ता गया और 1910 के आते-आते भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद सारे पहलवान उनसे हार चुके थे. इसी साल आर. बी. बेन्जामिन नामक एक प्रमोटर गामा और उसके छोटे पहलवान भाई इमाम बख़्श को लेकर इंग्लैंड पहुंचा जहां यूरोप भर के पहलवानों को गामा ने चुनौती दी कि वे तीस मिनट के भीतर किसी भी भार वर्ग के किन्हीं तीन पहलवानों को हरा देंगे. इस चुनौती को किसी ने भी गम्भीरता से नहीं लिया. गामा ने पोलैंड के विश्व चैम्पियन स्टेनिस्लॉस बाइज़्को और फ़्रैंक गोच को भी ललकारा. आख़िरकार अमरीकी पेशेवर पहलवाम बेन्जामिन रोलर ने गामा की चुनौती स्वीकार की. 1 मिनट 40 सेकेण्ड चले इस कुश्ती के पहले राउन्ड में गामा ने रोलर को चित कर दिया. इसके बाद गामा ने फ़्रांस के मॉरिस डेरिआज़, स्विट्ज़रलॅण्ड के जॉहन लेम और स्वीडन के जेस पीटर्सन को पटखनी दी.
अन्ततः गामा की चुनौती को स्टेनिस्लॉस बाइज़्को ने स्वीकार किया. 10 सितम्बर 1910 को हुए इस एकतरफ़ा मुकाबले में गामा ने अपना झण्डा गाड़ दिया. 17 सितम्बर को इन्हीं दो के बीच एक और मुकाबला होना था पर बाइज़्को डर के मारे आया ही नहीं और गामा को विश्व-चैम्पियन की जान बुल बेल्ट से नवाज़ा गया. इसके बाद गामा ने कहा कि वह एक के बाद एक बीस पहलवानों से मुकाबला करना चाहते हैं. उन्होंने शर्त रखी कि एक से भी हार जाने पर वे इनाम का सारा खर्च उठाएंगे. लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई.
भारत वापस आने के कुछ समय बाद गामा का एक और मुकाबला रहीम सुलतानीवाला से हुआ. गामा ने यह मुकाबला जीता और रुस्तम-ए-हिन्द का अपना ख़िताब महफ़ूज़ रखा. इसके बाद उन्होंने एक और बड़े पहलवान पंडित बिद्दू को मात दी. बाद के सालों में गामा के करियर का सबसे उल्लेखनीय साल है 1927 जब उन्होंने स्टेनिस्लॉस बाइज़्को को मात्र 21 सेकेन्ड में पराजित कर दिया था.
विभाजन के बाद गामा पाकिस्तान चला गए जहां 1960 में उनका देहावसान हुआ. मृत्यु के कुछ वर्ष पहले दिये गए एक इन्टरव्यू में गामा ने रहीम सुलतानीवाला को अपना सबसे महान प्रतिद्वंद्वी बताते हुए कहा था: “हमारे खेल में अपने से बड़े और ज़्यादा क़ाबिल खिलाड़ी को गुरु माना जाता है. मैंने उन्हें दो बार हराया ज़रूर, पर दोनों मुकाबलों के बाद उनके पैरों की धूल अपने माथे से लगाना मैं नहीं भूला.”
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