आजकल पहाड़ों में ही नहीं देश-विदेश में “फ्वां बाघा रे” गीत की बहुत चर्चा है. यह गीत इतिहास की एक असली कथा पर आधारित है. यह कथा एक ऐसे खूंखार बाघ की है जिसने आज से कोई सौ बरस पहले पिछली शताब्दी में गढ़वाल में अपना ऐसा आतंक फैलाया था कि लम्बे समय तक लोगों में उसका भयंकर खौफ फैला रहा. (Story of Fwa Bagha Re Leopard Rudraprayad)
9 जून 1918 से लेकर 14 अप्रैल 1926 के दौरान ‘रुद्रप्रयाग के नरभक्षी’ के नाम से कुख्यात हो चुके उस बाघ ने कुल 125 लोगों को अपना शिकार बनाया था. माना जाता है कि 1918 की महामारी के बाद जब लोगों ने कुछ लाशों को बिना जलाए ऐसे ही छोड़ दिया था, उन्हीं को खा कर यह बाघ नरभक्षी बन गया था. सबसे पहले उसने एक चरवाहे लड़के को उठाया उसके बाद एक औरत को उसके घर से. बाद में उसने अपने दोस्तों के साथ बीड़ी पी रहे एक आदमी को अपना शिकार बना लिया. इस नरभक्षी बाघ के किस्से दुनिया भर की पत्रिकाओं में छपना शुरू हो गए थे. एक साधु भी था जिसे सिर्फ इस वजह से अन्धविश्वासी लोगों की भीड़ ने जलाकर मार डाला क्योंकि उन्हें शक था कि उस साधु के भीतर उस नरभक्षी बाघ की आत्मा का निवास था. (Story of Fwa Bagha Re Leopard Rudraprayad)
1921 में दो अंग्रेज अफसरों ने इस बाघ को मारने की कोशिश की लेकिन उस पर सात गोलियां दागने के बाद भी वे उसे ख़तम नहीं कर सके. एक दफा वह सात दिन तक एक पिंजरे में फंसा रहा और उसके बाद भी उसने खुद को आजाद कर पांच सौ दर्शकों पर छलांग लगा दी थी. जिम कॉर्बेट भी अपना हाथ उस पर आजमाना चाहते थे लेकिन इस वजह से गढ़वाल नहीं गए कि वहां पहले से ही बहुत सारे कुशल और अनुभवी शिकारी मौजूद थे. लेकिन जब उन्होंने सुना कि लोग उसका शिकार करने में डरने लगे हैं, उन्होंने वहां जाने का फैसला कर लिया.
रुद्रप्रयाग पहुँचने पर कॉर्बेट का स्वागत इस तरह किया गया जैसे कि वे कोई युद्ध-नायक हों. लोग समझते थे उन्हें कोई ईश्वरीय शक्ति प्राप्त है. उन्होंने लिखा है – “चाहे आप इस बात पर कितना ही कम यकीन करें लेकिन जब जब नरभक्षी बाघों की बात आती है हमारे पहाड़ों के बाशिंदे समझते हैं कि मुझे कोई ईश्वरीय शक्ति प्राप्त है. मेरे पहुँचने से पहले कि यह खबर गढ़वाल में फैल गयी थी कि मैं उन्हें उस नरभक्षी से निजात दिलाने आ रहा हूँ हालांकि मुझे रुद्रप्रयाग पहुँचने में अभी समय लगने वाला था. वहां पहुँचने पर जिस उत्साह और यकीन के साथ लोगों ने मेरा स्वागत किया वह दिल को छू लेने वाला था और संकोच से भर देने वाला भी.” (Story of Fwa Bagha Re Leopard Rudraprayad)
मौके पर पहुँचने के बाद कॉर्बेट ने इस बात की तफ्तीश सबसे पहले की कि बाघ अलकनन्दा नदी के किस तरफ ऑपरेट कर रहा था. यह जान लेने के बाद कॉर्बेट और उनके आदमी दस दिन तक उसकी टोह में रात भर खुले में रहे लेकिन तेंदुआ उन्हें चकमा देकर भाग निकला. इस पहली असफलता से कॉर्बेट बहुत दुखी हुए.
अब बाघ को मार सकने की अपनी संभावनाओं पर विचार करते हुए कॉर्बेट ने फैसला किया कि अलकनन्दा के दोनों पुलों को बंद कर दिया जाय ताकि बाघ घाटी के उसी तरफ रहे जहां वे थे. नदी किनारे बनाई गयी एक मीनार पर बीस दिन तक उन्होंने पहरा दिया. ग्रामीण लोग घरों के भीतर रहते थे और पुल से होकर केवल एक भेड़िया गुजरा. प्रशासन ने कॉर्बेट के लिए कलकत्ता से एक नाइट-शूटिंग लाइट भी इस दौरान भिजवाई. तेज ठंडी हवाएं चला करती थीं जिनकी रफ़्तार मीनार के ऊपर बने एक चबूतरे पर खड़े कॉर्बेट को कभी भी नीचे 60 फीट गहरी खाई में धकेल सकती थी. पहली रात बाघ बगल के एक पेड़ पर चढ़ आया और एक रसोइये के चीख-पुकार मचाने के बाद किसी तरह सब की जान बची. इसके बाद इस पेड़ को काट दिया गया. एकाध दिन बाद जिन-ट्रैप की मदद से बाघ को मार गिराया गया लेकिन जिम कॉर्बेट को पक्का नहीं था कि वह वही बाघ है. सरकार को इस बारे में सूचित करने के बारे में सोचा ही जा रहा था कि पता चला नजदीक के गाँव में एक महिला को निवाला बना लिया गया है. बाघ फिर से बच गया और कॉर्बेट वापस नैनीताल आ गए. (Story of Fwa Bagha Re Leopard Rudraprayad)
इसके बाद कॉर्बेट 1926 में वापस गढवाल आ सके. इस बार बाघ न केवल जिन ट्रैप से बच निकला सायनाइड ट्रैप तक से उसका कुछ नहीं हुआ. उसने काफी देर तक खुद को मारने निकले शिकारियों की टीम का पीछा तक किया. एक बार उसने खुद को फंसाने के लिए रखे गए मांस के उस हिस्से को छुआ तक नहीं जिस में विष भरा गया था. उसकी ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक और दफा वह अपने लिए बिछाए गये 80 पौंड वजन के जिन-ट्रैप को अपने साथ काफी दूर तक घसीटता ले गया और आखिर में आजाद हो गया.
इधर बाघ का आतंक बढ़ता जा रहा था. बैरिस्टर मुकुन्दी लाल ने भी उसे मारने का एक असफल प्रयास किया. एक बार यह भी हुआ कि बारिश में भीगते अपने कैम्प लौट रहे कॉर्बेट का पीछा भी उस बाघ ने बहुत देर तक किया. भयभीत कॉर्बेट ने अपनी डायरी में लिखा – “मैं पहले भी कई बार डरा हूँ लेकिन उस रात जैसा कभी नहीं जब अचानक आई बारिश की वजह से मैं पूरी तरह असुरक्षित हो गया था.” (Story of Fwa Bagha Re Leopard Rudraprayad)
इधर बद्रीनारायण के मंदिर जाने वाले तीर्थयात्रियों का सीजन शुरू हुआ और उधर बाघ ने नए शिकार करने शुरू कर दिए. उसने एक बारह साल के बच्चे को अपना शिकार बना लिया. खबर सुनते ही कॉर्बेट 18 मील का दुर्गम पहाड़ी रास्ता पर कर वहां पहुंचे. उन्होंने बच्चे की माँ को दिलासा दिया और बालक के अवशेषों को कुत्ता बाँधने वाली जंजीर से बाँध कर बाघ का इंतज़ार करने लगे. जब बाघ अपने शिकार के लिये आ रहा था, वहां एक दूसरे बाघ की आमद हुई और दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ. नरभक्षी घायल होकर भाग गया.
एक बार पुनः असफल होकर जब कॉर्बेट वापस लौट रहे थे तो उनसे ग्रामीणों ने कहा कि सब कुछ भगवान के हाथ में है क्योंकि चाहे जानवर हो या इंसान उसकी मौत तभी आयेगी जब विधाता ने उसे रचा होगा.
इसके बाद कॉर्बेट ने अगली दस रातें तीर्थयात्रियों के लिए बनी एक धर्मशाला के नज़दीक एक पेड़ पर गुजारीं. कोई फायदा नहीं हुआ. सरकार ने देश भर के शिकारियों को इस बीच गढ़वाल आने का न्यौता दे दिया था हालांकि उससे कुछ परिणाम नहीं निकला. खुद जिम कॉर्बेट भी इस दौरान लगातार अनियमित जीवनचर्या के कारण बहुत कमजोर हो गए थे. इसके अलावा लम्बे समय तक यहाँ रहते-रहते अनेक जगहों पर उनके अनेक काम अटके हुए थे.
रात की पहरेदारी की अपनी उस आख़िरी रात कॉर्बेट उसी आम के पेड़ पर गए जहां उन्होंने दो साँपों की लड़ाई देखी. उनमें से एक को उनके साथी ने लाठी से मार डाला. धर्मशाला में रह रहे डेढ़ सौ तीर्थयात्रियों को बाघ के मूवमेंट की बाबत पहले से ही आगाह कर दिया गया था. रात नौ बजे के आसपास एक तीर्थयात्री लालटेन लेकर सड़क से गुजरा. शिकारी कुत्तों ने बाघ को देख लिया और वे बेतरह भौंकने लगे. कॉर्बेट को आभास हुआ कि बाघ पेड़ की जड़ पर बंधी बकरी के लालच में वहां आ गया है. कॉर्बेट की टॉर्च एक बार चमकी जिसकी रोशनी में उन्होंने एक फायर किया. अगली सुबह पौ फटने पर मौके पर बहे खून की मात्रा देख कर कॉर्बेट ने अंदाजा लगाया कि उनका निशाना सही लगा था. थोड़ी ही दूर एक गड्ढे में वह मरा हुआ मिला. (Story of Fwa Bagha Re Leopard Rudraprayad)
सात फुट दस इंच लम्बाई का वह दुर्दांत नरभक्षी बाघ तकरीबन आठ सालों के संघर्ष के बाद आखिरकार मार डाला गया था. कुछ समय पहले आर्सेनिक के जहर को खा चुकने के कारण उसकी जीभ काली पड़ चुकी थी.
इस खबर को सुन कर दूर-दराज की पहाड़ियों से हजारों लोगों के जत्थे कॉर्बेट को बधाई देने और आभार प्रकट करने आये. कॉर्बेट ने अपनी किताब में जिक्र किया है कि किस तरह वे उनके पैरों पर फूल रखते जाते थे.
“मैंने आभार व्यक्त किया जाता कई बार देखा है लेकिन वैसा कभी नहीं जैसा उस दिन रुद्रप्रयाग में हुआ. पहले डाक बंगले पर और फिर बाजार में. एक के बाद एक दुखद कहानियां सुनाई जा रही थीं और मेरा रास्ता फूलों से अट गया था.” (Story of Fwa Bagha Re Leopard Rudraprayad)
झोग्गी नाम के भिखारी ने गाया था पहली बार ‘फ्वां बाग रे’ गीत
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ये रुद्रप्रयाग के तेंदुए की कहानी है। तस्वीर भी तेंदुए यानी leopard की है। फिर पूरे आलेख में बाघ क्यों लिखा गया। बाघ टाइगर को कहते हैं। उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में यह गलत नामकरण प्रचलित है, जिस से अन्य इलाके के पाठक धोखे में पड़ जाते हैं।
मानक हिंदी में स्पष्ट नाम हैं -
बाघ - Tiger
शेर - Lion
तेंदुआ - Leopard
उत्तराखंड में तेंदुए को ही बाघ कहते हैं, जबकि बाघ अलग जानवर है,शायद पहाड़ों में बाघ होता ही नहीं है, ये तो जीम कार्बेट में ही मिल सकता है, वैसे कहानी अच्छी लगी।
बाघ गढ़वाल में भी होता है हमारे गांव में पकड़ा गया था।