बेपरवाह बच्ची
-पद्मिनी अबरोल
”ये देख लो रश्मि मैडम, इस बच्ची का हाल ! मैंने तीन दिन पहले इसे अच्छे बच्चे की कॉपी फोटोस्टेट करवा के दी थी,मगर इसने इनका भी ये हाल कर दिया !” मैंने कॉपी जाँचना बंद करके ऊपर नज़र उठाई. सामने तनिष्का की बाँह पकड़े मिस कनिका खड़ी थी. उनके चेहरे पर परेशानी के भाव के साथ उनके हाथों में बेतरतीब मुड़े-तुड़े कागज़ थे जिन्हें सीधा करके पढ़ना भी मुश्किल था, पर इसके ठीक विपरीत तनिष्का अपने दोनों घुटने इधर-उधर हिलाती हुई बड़े इत्मीनान से अपनी स्कर्ट को हिलाये जा थी, उसके हाथों में छोटे-छोटे कुछ रबर के खिलौने थे,जिन्हें वह गोल-गोल घूमा रही थी. उसके चेहरे पर साफ़ लिखा था, आपको जो करना है करो, मुझे कोई परवाह नहीं.
ठीक है ! आज मैं ही इसके घर फ़ोन करती हूँ, कहकर मैंने स्थिति को टाला. कक्षाध्यापिका होने के कारण सभी सहयोगी अध्यापिकाओ से उसकी शिकायते सुन-सुन कर मैं खुद भी परेशान होने लगी थी. दरअसल हर टीचर ने उसका लाया हुआ इतना सामान जब्त करके मुझे दे दिया था कि उसके लिए मुझे एक थैला ही बनाना पड़ गया था.
तनिष्का दूसरी कक्षा की छात्रा थी. उसकी यूनिफार्म मैली-कुचैली रहती. पतली-दुबली सी वह अपने हमउम्र के बच्चों में छोटी ही नज़र आती थी. दूसरे दिन अपनी कक्षा में मैंने देखा कि वह दस मिनट से डेस्क के नीचे ही बैठी है, बाकी बच्चे प्रश्न उत्तर लिख रहे थे पर वह मेरी आँख बचा कर कुछ मोती,ए टी एम की स्लिप्स,छोटे-छोटे काँच के गोले आदि से खेल रही है. मैंने नाराज़ हो कर सारा सामान ऊपर रखने कहा. ये सामान अब मेरे पास रहेगा. चलो, अब कॉपी निकालो और लिखो, ये कहते कहते मैं उसका सामान समेटने लगी तो मैंने कनखियों देखा कि वह वही ‘ जो करना है कर लो’ वाला भाव लिए मुझे टुकुर-टुकुर देख रही है उसकी नज़रे मानो कह रही थीं कि मैं तो ऐसी ही हूँ, आपको बदलना हो तो बदल लो. उसके पास न कॉपी थी न पेंसिल और डायरी. उसके घर से बुलाने पर भी कोई नहीं आता था. पेरेंट्स मीटिंग में उसके नानाजी से पता चला कि उसकी माँ-पिता का तलाक़ हो गया है और माँ बीमार होने के कारण उसे नहीं देख पाती.
घर आकर भी मैं उसके बारे में सोचती रही. उसके घर से उम्मीद न होने पर अब मैंने खुद उसकी मदद करने का फैसला लिया. अब मैंने हर वक्त उसकी हर गतिविधि को ध्यान से देखने का फैसला किया और उनके पीछे के कारणों को जानने- परखने का प्रयास भी करने लगी. मैंने देखा कि वह हमेशा अपने में ही खोई रहती है. कक्षा में उसका कोई दोस्त भी नहीं था इसलिए वह घर से तरह-तरह की चीजें लाती ताकि साथी बच्चों का ध्यान अपनी ओर खींच सके. पर उसकी यह तरकीब बहुत काम समय के लिए काम करती थी, जल्द ही बच्चे उससे दूर हो जाते. इसका कारण था हर अध्यापिका के आगे उसका गलत प्रभाव. उसका कोई भी काम कभी भी पूरा नहीं होता था. बच्चो ने बताया कि वह लंच ब्रेक में खाने में टिफिन भी नहीं लाती थी बस कभी-कभार उसके पास १० रुपये होते थे. धीरे -धीरे मैंने होशियार बच्चे की मदद से उसका काम पूरा कराके,उससे बाते करके,उसका दिल जीतने की कोशिश की. मुझे पता चला कि उसकी पसंद का खाना राज़मा -चावल है. अगले दिन मैने उसके लिए एक नया टिफिन खरीदा और उसमें राज़मा -चावल लाकर कक्षा में दिया तो उसके चेहरे पर ख़ुशी देख कर मुझे संतुष्टि हुई. एक सुबह उसने बताया कि उसकी माँ नहीं रही. ये जान कर बिन माँ की उस छोटी सी जान के लिए मेरे मन में हमदर्दी का सैलाब उमड़ पड़ा. और मैने एक माँ की तरह उसका ध्यान रखने का खुद से वादा कर लिया. कुछ ही दिनों में ही उसमे पढाई के प्रति सकारात्मक बदलाव था. पर मेरी ये ख़ुशी बहुत देर तक नहीं रही.
जल्द ही मुझे पता चला कि वह मेरा लाया टिफिन नहीं खाती, क्योंकि वह कभी-कभी घर से भी टिफिन लाने लगी है. वह मेरे लाये टिफिन को देख कर कहती- मैडम, मै इतना खाना नहीं खा सकती ! अब मुझसे खाया नहीं जाता और मुझे राज़मा-चावल अच्छे नहीं लगते. उसके कुछ न कहने से भी मैं जान गई कि उसे घर पर ही मना किया गया है. मुझे बहुत दुःख हुआ भी हुआ कि क्यों एक टीचर, माँ की तरह खाना नहीं खिला सकती ? पर मुझे इतनी ख़ुशी थी कि मैं उसका मन पढाई में तो लगा ही सकी.
दिल्ली की रहने वाली पद्मिनी अबरोल पिछले 22 वर्षों से अध्यापन कार्य में संलग्न हैं. वर्तमान में एस. डी. पब्लिक स्कूल पीतमपुरा नई दिल्ली में हिंदी की अध्यापिका हैं.
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Wonderful story....inspiring and heart touching. Keep it up lady.
inspiration for teachers
Thanks a lot Dahiya Sir.
You're a superb writer!