कौन बनेगा हमारा ठांगर? जिसमें हम लगूले, हरे-भरे से, ऊपर चढ़कर अपनी सफलता पर इतरायेंगे. फल देंगे और फिर एक दिन उसी संपन्नता को भोग कर झड़ जाएंगे. लेकिन हमको हमारे झड़ कर सूखने के बाद भी अपने बीजों (आने वाली पीढ़ी) की चिंता नहीं रहेगी क्योंकि जब हमारे बीज बिखर कर उगने लगेंगे तब उनको भी वही ठांगर चाहिए होगा. क्या तब किसी के द्वारा एक और ठांगर घेंट दिया जाएगा, उनकी सुरक्षा और सफल वृद्धि के लिए? या नहीं घेंटा जाएगा और उन्हें यूं ही बिखरे हुए छोड़ दिया जाएगा? (Story by Neelam Pandey)
ठांगर एक मजबूत पेड़ का तना या शाखा है जिसको लगुलों (बेलों) के पास वाली जगह पर घेंटा (जमीन में अच्छा गड्ढा करके खड़ा किया जाता है) जाता है, जिससे बेलों को उपर चढ़कर खूब फैलने का मौका मिलता है.
ये ठांगर घेटने वाले लोग कौन होंगे? ये वही लोग होंगे जो ये जानते और समझते हैं कि आगे बढ़ने के लिए एक मजबूत ठांगर की जरूरत होती है. मजबूत ठांगर वो होता है, जो निस्वार्थ भाव से नन्हीं-नन्हीं क्षमताओं को अनदेखा नहीं करता है बल्कि उनमें अपार संभावनाएं देखते हुए अपना कंधा लगा देता है. नन्हीं बेलें उसमें चढ़कर खूब फल, फूल देती हैं. कुछ बेलें भी समय के साथ संघर्ष करते-करते अपनों के लिए ठांगर बन जाती है. किन्तु ऐसा कम ही हो पाता है कि वो कभी तूफानों में टूटकर ना गिरें. कभी फलों से लदी बेलों को देखकर कोई भी ठांगर की तारीफ नहीं करता, सब तो बेल के सौन्दर्य और फल देने की क्षमता की तारीफ करते हैं या उसके मालिक की. ऐसे में चिढ़कर कोई ठांगर अपना कंधा हटाकर बेल को धराशायी भी नही करता है. सच है कि ठांगर नहीं होता तो कई नन्हीं क्षमताएं अपनी पहचान के बिना ही संसार से अलविदा कह देतीं.
पहाड़ में ठांगर का बहुत महत्व है, चूंकि बिना पानी वाली खेती मानसून पर निर्भर रहती है अतः मानसून एक ऐसा समय है, जब पहाड़ में भी खूब सब्जियां और बेलें होती हैं और बेलों के लिए अच्छे ठांगर की आवश्यकता होती है. एक अच्छे ठांगर में खूब फलने-फूलने और फैलने की जगह के साथ आकाश की ओर का लंबा, छितरा हुआ छोर भी होना चाहिए. ठांगर का कच्चा-पक्का (परिपक्व व अपरिपक्व) खास प्रजाति आदि का होना उतना मायने नहीं रखता जितना कि उसका मजबूती के साथ खड़ा रहना या बने रहना.
दोस्तों ! कभी- कभी मैं सोचती हूं कि ठांगर चुनना और देश, समाज का नेता चुनना भी क्या कुछ-कुछ समान नहीं होता जा रहा है? कहीं हम भी नेता की परिपक्वता, अपरिपक्वता अथवा शिक्षा, दीक्षा, रहन सहन, वर्तमान, इतिहास कार्य तथ्यों और व्यावहारिकता के तथ्यों आदि से ज्यादा, उनके मजबूती से मुद्दों पर अड़े-खड़े रहने की क्षमता के आधार पर विश्वास के साथ चुन तो नहीं लेते हैं? ताकि वे मुद्दों पर बने रहे, अड़े-खड़े रहें तो कुछ मुद्दों के हल होते ही, लोग आगे बढ़े और सफलता को चूमने लगे. इस तरह आने वाली पीढ़ी विकास के नए दौर का स्वाद ले सके जिसमें अपनी मौलिकता का हनन करे बगैर, नए समाज का निर्माण हो सके.
मुझे लगता है अब कई बार या अकसर हमारे चुने हुए ठांगर हमारे ऊपर चढ़ने पर ही झुकने लगते हैं. जब हम उलझकर वापस जमीन पर आ जाते हैं तो ये ठांगर कई अपरिपक्व मुद्दों की बेलों को साथ लेकर आगे बढ़ने लगते हैं और वास्तविकता पीछे छूट जाती है. विकास के भ्रम में हम भूल जाते हैं कि हमारे मुद्दे अभी वहीं हैं, जहां पर हमारे द्वारा ठांगरों को घेंटने की शुरूआत हुई थी. वे जब ताड़ जैसे लंबे हो जाते हैं तो हमारे फल तोड़ने के साहस से बाहर हो जाते हैं. झड़े हुए फल भी जिनके हाथ लगते हैं वे उनकी जड़ों में बैठे हुए लोग होते हैं.
इसका कारण यही हो सकता है कि ठांगर चुनने के वक्त ये ठांगर बहुत कच्चे थे. या फिर जहां घेंटे वहीं धीरे-धीरे इनकी जड़ें निकल आती हैं और वे आसमान हो जाते हैं. कुछ ठांगर जिन्दगी भर हमारी पहुंच से बहुत बाहर होते हैं. ऐसे ठांगर हमारे काम नहीं आते हैं और न वे हमको जानते, समझते हैं. हम सालों तक दम खम भरते हैं कि ये ठांगर हमारे घेंटे हुए हैं. लेकिन फिर भी हम आने वाली पीढ़ी की सुरक्षा के लिए आशंकित ही होते जाते हैं. अतः ठांगर घेटने का सगुर होना भी जरूरी होता है, नहीं तो फलों की बेल की जगह बनाण (जंगली बेल) लगने में देर नहीं लगती. फिर बनाण तो भरे-पूरे, हरे पेड़ को भी ठांगर बना देती है. अब ऐसा ठांगर किस काम का जिधर पैदावार की संभावना शून्य होने लगे और ठांगर भी बित्ता भर अपनी जगह से हिलने को तैयार न हो.
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नीलम पांडेय ‘नील’ देहरादून में रहती हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं छपती रहती हैं
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बहुत अच्छी. कई प्रसंग उभर जाते हैं.
पहाड़ के परिवेश की झलक के साथ चयन सम्बन्धी सतर्कता के बारे में आगाह करता अच्छा प्रतीकात्मक लेख।
बहुत प्रासंगिक