अल सुभह गांव के चौराहे वाले चबूतरे पर ननकू नाई उकड़ूं बैठकर अपने औजारों की सन्दूकची खोजने ही जा रहा था कि मिट्ठू आन पहुंचा.
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
– राम-राम ननकू भाई
– राम राम भाई मिट्ठू, बोल कोई काम?
– बाल बनवाने हैं मूंड के और ठुड्डी भी…
– तो आजा वरे कू…
ननकू ने चबूतरे पर अपना भानमती का पिटारा खोला. फिर जीरो मशीन निकालकर कुप्पी से छेदों पर घासलेट डाला, खचपचाया फिर उस्तरा पथरी पर घिसा और फटर-फटर हथेली पर फटकार कर धार टटोलते हुए पूछा-
हां तो मिट्ठू! अस्तुरा फिरा दूं मूंढ पर या जीरो मशीन चलेगी?
मिट्ठू मुस्कराया. जरा झेंप कर उसने कहा – भइया, इबके तो मैं बाल कतराऊंगा अंगरेजी.
धुत्त! क्या बोल रिया तू?
ननकू ऐसे चौंका जैसे उसने भूत देख लिया हो और चौंकने की बात भी थी. आज तक गांव के किसी भी खेतिहर मजदूर ने उससे अंगरेजी बाल बनवाने के लिए नहीं कहा था. हां भय्या, इबकी मेरा नाम भी गांव के गरीबों वाली सुच्ची में से कट रिया है, ग्रामसेवक लाला बता रिया था.
अरे ये तो ठीक लेकिन इसका अंगरेजी बाल से क्या वास्ता?
नहीं समझा ननकू तू, मुझे बकरियां मिलेंगी बकरियां और उनकी खातिर मैं इब फोटो खिंचवाने जो जा रिया हूं कैरेतपुर!
ननकू हंस पड़ा –अरे मूंछें कैसी रक्खेगा? ठाकुर गजबसिंह वाली चढी मूंछ या पंडित परमानन्दवाली भेड़ की पूंछ? मुझे बहुतेरी आती हैं मक्खीकट तितली पंख कुल्हाड़ी छाप पर तेरे पर फबेगी तलवार कट…
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
फिर सस्ते पाउडर के फाहू चेहरे पर थप-थपाकर ननकू ने चदरा खींचते हुए कहा – वाह रे पट्ठे इब तू मिट्ठूलाल नहीं छबीली भाटियारिन वाली नैाटंकी का छैला बांकेलाल लग रिया है बस नगाड़ा बजने कीद देर हैगी…
मिट्ठूलाल ने शर्माते हुए आइना देखा. पैसे दिये और निकल आया सड़क पर. अनोखे लाल का खड़खड़ा तय्यार खड़ा थां उचक कर चढ़ा और पहुंच गया कैरतपुर.
फोटोग्राफर की दुकान के आगे एक नीम का पेड़ था. कई अन्य लोग भी फोटो बनने की इन्तज़ारी में उकडूं बैठकर बतिया रहे थे. कोई भैंस के लिए कोई तांगे के लिए और कोई बैलों के लिए लोन लेने को था. उनमें छोटे किसान खेतिहर मजदूर गड़रिए आदि सभी वर्ग लोग थे. सभी अपने-अपने दुख दर्द के किस्से बीड़ी सूतते हुए सुनए ही जा रहे थे. लेकिन सुनने वाले मशीनवत् हूं-हां करते हुए अपने कल्पना लोक में डूब-उतर रहे थे.
मेरे को बकरी लेनी है फोटू साहब!
अन्दर पहुंचकर मिट्ठू ने फोटोग्राफर से कहा. फोटोग्राफर मुस्कुराया – भय्या, हम बकरी नहीं बेचते. सिर्फ फोटू खींचते हैं. अगर खिंचवानी हो तो बैठ जाओ स्टूल पर.
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
फोटो खिंचवाने के बाद मिट्ठू भी इन्तजारी में अन्य के साथ के साथ नीम के पेड़ के सहारे पसर गया और उसके दिमाग में शेखचिल्ली वाले सुनहरे सपने तैरने-उतरने लगे. सुनहरी खाल और सफेद धब्बेदार चार जमुनापारी बकरियां और एक बकरा मिलेगा उसे. घर में बंधी एक बकारी मिलाकर छै हो जायेंगी उसके पास. खूब दूध बेचेगा और साल भर में मेंमनो से उसका घर छप्पर भर जायेगा. बड़ी-बड़ी बेच देगा. हाथ पर दो पैसे आने लगेंगे. तो रोज कुंआ खोदो और पानी की झंझट से छुट्टी मिल जायेगी उसे. रम्मो की सूनी कलइयों के लिए वह चांदी के कंगना और पैरों के लिए पायजेब जरूर बनवा लेगा और धीरे-धीरे कल्पना के सुनहरे मेमनों की कूद-फांद और ठण्डी पुरवय्या के झौंकों ने उसकी आंखें लगा दी.
ओ ए बकरीवाले! उठ, ले अपनी फोटो सम्भाल. फोटोग्राफर ने उसे कोचकर जगाया. आंखें मलता हुआ मिट्ठू खड़ा हुआ. फोटो का लिफाफा अंगोछे पर बांधा और पैसे देकर पैदल ही गांव की ओर चल पड़ा.
सामने चमकते सूरज की तपन से चेहरे पर चुचसाते पसीने को अंगोछे से पौंछा तो ननकू के सस्ते पाउउर की पपड़ी सी झड़ी और खुशबू का एक भभका-सा उसकी नाक में बस गया. बस फोटो की याद आ गई. चुपचाप डरते-डरते उसने बबूल की एक झाड़ की ओंट में फोटो वाला लिफाफा खेला. फोटो जोरदार थी. तो कानों में ननकू के शब्द गूंजने लगे – वाह रे पट्ठे इब तू मिट्ठूलाल नहीं छबीली भाटियारिन वाली नैाटंकी का छैला बांकेलाल लगे है बांकेलाल…
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
और एक बार चारों ओर देख कर वह सचमुच जैसे बोकेलाल के पोज में कूल्हे पर हाथ रख कर खड़ा हो गया. कान पर दूसरी हथेली लगाई और गा उठा –
सुनले ओ छबीली नार! मति ना डाले रूप का जाल!
आ गिया मैं रूपनगर का छैला बांकेलाल!
और उसके पांव जैसे नगाड़े की कल्पित ताल पर खुद-ब-खुद थिरकने लगे. वह न जाने कब तक न जाने नाचता लकिन उसके पांव में एक बबूल का कांटा चुभ गया और वह एक झटके के साथ कल्पना के फूलों वाले इन्द्रधनुषी संसार से फिर अपनी कांटों भरी असली दुनिया में पहुंच गया.
गांव पहुंचकर न चाहते हुए भी उसने लिफाफा ग्रामसेवक को सौंप दिया और ठीक भी है खूबसूरत तस्बीर लेकर क्या करता? क्योंकि गरीब का बांकापन नहीं पेट मायने रखता है. इसी पेट की खातिर नौंटकीवाली छैलछबीली ने बेबफाई के साथ रूपनगर के सौदागर छैला बांकेलाल का धन और जेब तक निचोड़ कर रख दिया था. सो गरीब को रूप और जवानी की नहीं रोटी की होती है जरूरत. उसे गरीबी हटाने के लिए बकरियां चाहिये थी बांकी तस्वीर नहीं.
ग्राम सेवक ने बिना खोले और देखे ही उसकी फोटो वाला लिफाफा बेरूखी के साथ खाट पर फेंकते हुए कहा – इब तू तहसील जकर तहसीलदार से अपना जाति प्रमाणपत्र ले आ.
यो का कहा लाला परनाम पत्तर…
अरे मतलब ओ कागज जिस पर तेरी जात लिखी होगी.
सो तो आप भी जानों और सारा गांव जवार भी कि मैं…
पर बैंक ता नहीं मानेगा ना? तहसीलदार का जरूरी है. तू पहिले लेखपाल से लिखा ला और फिर कल तहसील चला जा. परसो तक जरूर जामा कर दे, नहीं तो गरीबों वाली सूची से तेरा नाम कट जाएगा.
मिट्ठू उहापोह में रहा थोड़ी देर फिर अर्जी लिखाकर लेखपाल के पास चला गया. लेखपाल ने उसे गांव के प्रधान गजबसिंह से शिफारिश लिखवा लाने को कहा.
ठाकुर गजबसिंह नया नया चुनाव जीतकर प्रधान बने थे. उनके बाप-दादा कभी गांव के जमीनदार थे. फिर ठाकुर थे. ठाकुरी ठसके में ही पले और बढे लेकिन पढ़े नहीं थे. तीन हरूफ लिखकर और अंत एक मुर्रा भैंस की सी सींग बनाकर दस्तखत भर कर लेते थे – गजबसींग.
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
जब मिट्ठू हवेली के फाटक पर पहुंचा तो गजबसिंह अपनी बन्दूक की नाल खड़े-खड़े दलान में साफ कर रहे थे फिर हटात उन्होंने नाल उठा कर आंख के पास लगाई जो मिट्ठू की ओर मुड़ गई. मिट्ठू अकबकाया वैसे ही चुनाव में हरिजनों के वोट न मिलने के कारण गजबसिंह खुन्दक खाए बैठे थे. मिट्ठू चिल्लाया –ठाकुर साब! यह मैं हूं… मैं … याने आपका मिट्ठू…
हां हां बरखुरदार, मैं खूब देख रिया हूं – तू मिट्ठू है मिट्ठू! ठाकुर का ठहका हवेली के बरामदे में गूंज उठा. बड़ा दूज का चांद हुए जा रिया है रे आजकल? डर गिया? अभी ना मारूंगा तुम लोगों को…पर एक ना एक रोज…
मिट्ठू ने डरते डरते अर्जी उनकी ओर बढा दी –बकरियां ले रिया हूं मालिक, कागल पर दत्तखत होने कू हैं आपके…
वाह रे मिट्ठूलाल ! काम पड़्या तो हवेली और वोट पड़ा तो पडत परमानन्द कू? क्यूं ठीक कह रिया हूं मैं?
गजबसिंह ने मूंछें चढाते हुए भेदभरी नजरों से घूरा. मिट्ठू सकने में चुप खड़ा रह गया. भय और निराशा से उसका हलक सूखा जा रहा था.
अरे धत उल्लू सा खड़ा क्यों घूरे जा रिया है न. कागज आले पर रख दे. पंचायत सेकत्तरी का दफ्तर हवेली की कोठरी में ही है. जब आयेगा दोपहर बाद तो लिखवा लेना- मैं दस्तखत कर दूंगा. तब तक तु अन्दर ठकुराइन से दराती मांग कर सामनेवाले खेत से दो गट्ठर चरी के काट ला, भैंस सुबै से भूखी खड़ी है खूंटे पर…
मिट्ठू जानता था भेड़ जहां जाएगी, मूंडी जायेगी. चुपचाप कागज आले पर रख कर वह चरी काटने चला गया. लौटा तो दोपहर हो चुकी थी. थकावट और भूख-प्यास से उसकी देह टूटे जा रही थी. ओ तो ठाकुराइन दिल की भली थीं. दो बाजरे की रोटी और कुल्थी का साग लाकर दे गई. खाकर उसने हैंडपम्प का पानी पिया ही था कि पंचायत सेके्रटरी की कोठरी का दरवाजा खुल गया और काइयां नजरवाला मुंशीनुमा आदमी कोठरी में रक्खे मूढे पर बैठ गया. ठाकुर गजबसिंह तब तक दिन का खना खाने के बाद आराम करने बैठकी में चले गए थे.
सो बरामदे के आले से अपना कगल लेकर मिट्ठू कोठरी के दरवाजे पर खड़ा हो गया –मुंशी जी ठाकुर साब ने कहा है इस पर लिख दें. दत्तखत वे कर देंगे…
सेक्रेटरी ने अर्जी पढ़ी फिर झुंझलाकर उसे अपने बस्ते में बन्द करते हुए दो टूक जबाब दे दिया – अगले बीफतबार कू आना अभी फुर्सत ना है. रजिस्टर देखने पड़ेंगे और गरीबोवाली सुच्ची भी…
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
फिर वह दीवार के सहारे पीठ लगा कर बीड़ी धैांकने लगा और गाहे बगाहे कनखियों से अपनी कइयां नजर दरवाजे के चैखट पर खड़े मिट्ठू पर भी डालने लगा. मतलब साफ था. मिठ्ठू ने भी मशीनवत अपनी धोती की गांठ खोलकर चुपचाप एक दस रूपये का नोट उसके हाथ में रख कर फिर हाथ जोड़ लिए. सेक्रेटरी मुस्कराया. फिर बस्ते में से उसकी अर्जी निकाल कर कुछ लिखा और फिर मुहर का ठप्पा मार दिया.
आदमी तो तू समझदार दिखे! ले,ले जा कर ठाकुर के दस्तखत करवा ले,…मुहर के ऊपर …
ठाकुर दिन का आराम करने बाद तब तक दालान के तखत पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाने लगे थे. उन्होंने मिठ्ठू के कागल पर अपने दस्तखत करते हुए कहा –अरे! मिठ्ठू लोन ले रिया है तू पर तेरे कू पापड़ बहुत बेलने कू हैं! वैसे ही सूधा आदमी है तू… मिलता रहियो हवेली पर…
मिठ्ठू नमस्कार करके लेखपाल की चैकी पर पहुंचा – हुजूर,मैं लं आया प्रधान जी शिफारिस अब आप…
अरे! तो मैं क्या करूं? आज ता मुझे पड़ताल पर जाना है परतापुर तू मंगल कू आना…
बहरहाल, हील हुज्जत के बाद पन्द्रह रूपए पर काम सुलट गया लेकिन मिटठू की धोती में बंधी कुल जमा राशि खतम हो गई वैसे भी क्या पिद्दी क्या पिद्दी का शोरवा मजू आदमी के भला जमा पूंजी ही क्या? रोज कुआं खोदो और रोज पानी पियो इस शुरूआती दौड़-धूप से ही उसकी देा दिन की दिहाड़ी मारी जा चुकी थीं अब उसके सामने जैसे तहसील का भयानक अमला सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ा था. अभी तो उसने छोटे-छोटे नाले ही पार किए थे. असली बैतरणी का खैालता हुआ काला पानी ता अब उसके सामने ठाठे मारने को था. वह चलते चलते सोचने लगा कोई तरकीब.
सो कभी-कभी कुपढ गरीब की खोपड़ी भी उर्वर हो जाया करती है. उसके दिमाग में विचार कौंधा कि क्यों न इस वैतरणी को ग्राम सेवक रूपी की पूंछ पकड़ कर ही पार किया जाय.
मिटठू ने गांठ पर बंधे आखीरी तीस रूपए ग्राम सेवक की खाट में डालते हुए कहा – बस लाला अब उस तहसील के काम को जा कर आपको सुलटना है. मुझ सरीखे सूधे आदमी की तो वे खाट ही खड़ी कर देंगे…
धत्! सिरफ तीस रूपये? ग्रामसेवक ने झुंझला कर कहा –अरे नूने तो अभी पनिया नाग ही पूजे हैं- फुफकारने हए करैत तो अब आयेंगे अब सामने…ना बाबा ना,मेरे वश का नहीं है उन्हें मनाना…
लला आप परमेसुर हैं गरीबों की सुच्ची से मेरा नाम आपनक ही काढा है और अब पर भी आप कू ही लगाना है.
अरे मिट्ठू तू समता नहीं कनी के ब्याह और सरकारी काम में दस जोखू होते हैं. सब की नजरें तेरी तीन हजार के लोन और डेढ हजार के मुफ्त के अनुदान पर लगी है. सो डेढ हजार का फायदा मिल रहा है तुझे…
लेकिन लाला ओ तो गरीबी हटाने के लिए रारकार दे रही है गरीबूं कू…तेली का तेल जल रिया है तो इन मसालचियों के दलि काहे जल भुन कर राख हुए जा रिहे हैं?
यहां बात उल्टी है मिट्ठू! ठन मसालचियों के हाथों ही सरकार यह तेल भी बंटवा रही है. जयादा ना नुच करे गाी तो तेरी मसाल तो क्या दिया भी नहीं जल पयेगा. इसीलिए ऋषयों ने कहा है- जाते धन को देख के आधा लीजो बांट. यह कहकर ग्रमसेवक किसी दार्शनिक की मद्रा में ऐसे खो गया जैसे उसके मुंह से कोई एक बहुत ऊंची सूक्ति निकल गई हो.
बहराल रहा-सहा खर्च बाद में देने के मान मनैाअल करने के साथ मामला सुलझ गया ग्रामसेवक तहसील से जाति प्रमाणपत्र लाने में सफल रहा और हलफनामा होने के बाद विकास खण्ड कार्यालय से उसकी अर्जी की फाइल बैंक भेज दी गई. ग्रामसेवक ने उसे बताया कि अब बैंक अफसर जांच पर आयेगा. फिर बैंक मैंनेजर और बकरियां पास करने वाले प्शु डाक्टर रूपी दीवारों को सकुशल पार कर लेने के बाद सुनहरी बकरियों वाले उसके सपने सच्चे हो जाएंगे.
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
खेतों पर काम करके एक गोधुली बेला को जैसे ही वह अपने घर में पहुंचा, ग्रामसेवक और एक चश्मेंवाला साहब मोटर साइकिल से उसके पास के दगड़े की धूल उड़ाते हुए उतरे मिट्ठू समझ गया जरूर वह चश्में वाल बैंक अफसर होगा.
तुम्हारा ही नाम मिट्ठनलाल है न? अफसर ने छूटते पूछा.
जी साब…
जमनापारी बकरियां चाहते हो न?
जी साब…
बकरी पालना जानते भी हो या नहीं?
खूब जानता हूं साब, घर की सामने बंधी भी है
लेकिन रात में कहां बांधते हो?
जी छप्पर में सामने दीख रहा है…
हूं… अफसर ने घूरते हुए प्रश्नवाचक बनाया – घर तुम्हारा गांव के किनारे है,बकरी खुले और कच्चे छप्पर में रखते हो…भेड़िये-उड़ये तो क्या लोमड़ी तक नहीं आ सकती…
भेड़िये होते जरूर हैं साब, लेकिन हमारे गांव के चारों ओर भैरों बाबा की केर है. नाले के इस पार भेड़िया क्या, कोई लोमड़ी तक नहीं आ सकती.
बैंक अफसर ने आंखों से रंगीन चश्मा हाथ में लेकर रूमाल से पोंछा. कुछ देर कनखियों से देखा और फिर लाल तमतमाए चेहरे के साथ उसने मोटरसाइकिल स्टार्ट कर दी. फिर दोनेां जैसे आए थे वैसे ही दगड़े की धूल उड़ात हुए लौट भी गए.
कुछ दिन बाद मिट्ठू ग्राम सेवक के घर पूछताछ को गया तो उसने उसकी अर्जीवाली फाइल निकाल कर पटकते हुए कहा – ले भई अपनी फाइल! ळो गई न आखिर खारिज! बैंक मैनेजर ने लिख दिया है कि पक्का बाड़ा नहीं है. भेड़ियों का खतरा है.इसलिए योजना सफल नहीं हो सकती. मैंने ता पहिले ही कह दिया था. आदमी अच्छा नहीं है ओ सारा खर्च और मेहनत बेकार-ही रही…
मिट्ठू के कान में ग्रामसेवक के शब्द जैसे गरम पिघलते हुए सीसे के घेल की तरह पड़ रहे थे. उसकी नज बार-बार अर्जी पर चिपकाई अपनी फोटो पर पड़ रही थी. जिसके उपर अनेकों लिखावटों और मुहरों की स्याही के धब्बे पड़े हुए थे. उसे लग रहा था जैसे उसके चेहरे पर वे धब्बे नहीं बल्कि इन्सानी भेड़ियों के गन्दे पंजों के निशान थे जिन्होंने उसके सुनहरे सपनों को लहूलहान करे रख दिया था.
उसके शरीर के पुर्जे-पुर्जे दुखने लगे. वह अपनी लाठी के सहारे धीरे-धीरे सड़क पर निकल आया. उसे ऐसा लगता था जैसे उसकी टांगें नहीं बल्कि सड़क पर सिर्फ उसकी लाठी ही चल रही थी. ठक्-ठक्-ठक्-ठक्….
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
बेखुदी में वह अनोखे के तेजी से सड़क पर दौड़ते खड़खड़े से बाल-2 बचा. अनोखे चिल्ला रहा था – ओय ससुरे मिट्ठू मरने कू ही है तो कोई और हौर ठौर देख क्यूं फंसा रिया है मुझ गरीब कू भी…
उसे लगता जैसे सब आते-जाते चेहरों पर उसे देखकर एक चुभती हुई मुस्कुराहट आ-जा रही हो. जैसे सड़क चलते जानवर भी उसे देख कार मुंह चिढा रहे हों और जैसे आस-पास खड़े पेड़ों तक की विद्रूप भरी आंखें निकल आई हों. आगे बढा तो चौराहे वाले चबुतरे से ननकू की आवाज सुनाई दी – कहो बांकेलाल मिल गई न बकरियां? वह बिना कुछ जबाब दिए और आगे बढ़ गया. लेकिन ननकूकी आवाज अब मद्धिम पर साफ सुनाई दे रही थी – लो भई, बेचारे ने अग्रेजी बाल कटवाए फोटो खिंचवाईं और बकरियों के पीछे दीवाना बना फिर्या पर साली बकरियों ने भी किसी वेबफाकी तरह आखिर उसे दुम दिखा ही दी… और उसके पीछे चबेतरे पर जैसे एक हंसी का फव्वारा फूट पड़ा था.
मिट्ठू को ऐसे में लगता जैसे वह सचमुच नौंटंकी छबीली भटियारिन का छैला बांकेलाल हो. जो आखी री सीन में धन-जीवन गंवाकर झुकी कमर और लाठी के सहारे चलते हुए, यह शेर गाता है –
न खुदा ही मिला न विशाले सनम
न इधर के रहे ना उधर के रहे..
और फिर करड़-बरड़,कड़क-कड़क,धम् की ताल वाला नगाड़ा जैसे लगातार उसके दिमाग में धमाधम बजने लगा. वह सिर पकड़ कर एक कटे पेड़ के तने पर बैठ गया.
दोष सरकार का नहीं था. योजना अच्छी थी लेकिन जब व्यवस्था के कुंए में ही भ्रष्टाचार की भांग पड़ चुकी हो तो कोई भी क्या करे? इसी बैंक अफसर ने उसी गांव के गुल्लू गडरिए को भेंड़े बदलू को बकरियो और मुरली को मुर्गियां दिलाई थी. उनके भी पक्के बाड़े नहीं थे तो क्या भेड़ियों का डर सिर्फ मिट्ठू के बाड़े के लिए ही था? साफ था कि मिट्ठू की गरीबी का. अगर वह भी गुल्लू, बदलू और मुरली के लिए नहीं? तो दोष किसका था. साफ था कि मिट्ठू की गरीबी का. अगर वह गुल्लू और बदलू की तरह बैंक अफसर को पैसे दे पाता तो आल उसके में भी बकरियां मिमयाती होती. मिट्ठू को किसी ने बताया कि वह सदर जा कर डी.एम. से शिकायत करे इस पक्षपात की. लेकिन बिना पैसे के उसे कौन मिलने देगा उनसे भी फिर शिकायत हुई भी तो उसी की तरह गरीब गुल्लू, बदलू और मुरली का अहित होगा और दुश्मनाई होगी अलग से उसके अन्दर से जैसे कोई चीख रहा था – अब कुछ नहीं हो सकता,अब कुछ नहीं… कि तभी जैसे उसके कानां में ठाकुर गजबसिंह के शब्द गूंजने लगे
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
मिट्ठू तू सूधा आदमी है…मिलता रहियो हवेली पर…
और जैसे जेठ की दोपहरिया में किसी गर्मी से परेशान राही को घना काकड़ का पेड़ एक पेड़ दिख जाये ऐसी राहत हुई उसे. खड़े होकर उसने धोती का फेंटा कसा और लाठी को ठक-ठक जमीन पर चढाया और बगटूट भागा हवली की तरफ.
ठाकुर गजबसिंह उस समय हवेली के बरामदे में एक टांग बांधे मुर्गे और छुरी को हाथों में थामें किसी पशोपेश में पड़े थे. मिट्ठू दलान में पहुंचा तो उनके चेहरे के भाव बदल गए.
बड़ी उमर है तेरी! ठाकुर मुस्कराए – अरे उस मुए जुम्मन का नाम गरीबों की सुच्ची से कढा था, परेशान था. सो मैंने उसे बैंक से घोड़ा-तांगा दिलवा दिया. अब वो शुकरियाने में यो ससुर मुर्गा थमा गिया. सोच रिया था कि काट दूं इसकी गर्दन! पर फिर सोचा कि अरे क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरवा! अरे ठाकुरों को शोभा नहीं देता यह काम! होता कोई शेर, तो दो हाथ दिखाता भी… इब तू सम्भाल यो काम…
मिट्ठू मुर्गा और छुरी लेकर दलान मे उतर गया थोड़ी देर में धो-धा कर लाया और फिर बोटियां काट-काट कर फर्श पर रक्खी ट्रे में डालने लगा.
क्यों रे, मिल गई बकरियां? या अभी सिट्टो-पिट्टो ही चल री हैगी?
अर्जी ता खारिज हो गयी ठाकुर साब… मिट्ठू ने रूआंसा हो कर कहा – बैंक अफसर ने लिख दिया है कि धर बस्ती के किनारे है,पक्का बाड़ा नहीं है, इसलिए भेड़ियों का खतरा है…
ठाकुर ने ठहका लगा कर कहा –ले भई! भली कही भेड़ियो की! जभी तो कह रिया था कि सूधा आदमी है सूधा. आखिर मांग क्या रिया था ओ?
सौ रूपए! ऊत है तू ऊत! सैादा बुरा नहीं था. लोग पटामट दे रिए हैं और फटाफट ले कर गरीबी हटा रिए हैं. लेकिन तू है गोबर गणेश कि सारा गुड़गोबर किए दे रिया है!
पर मालिक मेरे पास तो पैसा है ही नहीं,दूं तो कहां से?
अरे ससुर चोरी कर डाका डाल चाहे कुछ भी बेंच, मुझे पैसे लाकर दे तो मैं चांदी का जूता मार मार कर इन भेड़ियो के भगा दूंगा नू ओर तुझे दिलवा दूंगा सुनहरी बकरियां… ठाकुर ने चुटकी बजाई.
चोरी-डकैती तो मालिक मेरे खून में ना है ओर बेचने जोग मेरी मेहरारू के हाथ में कोई चांदी तका टुम-टाम नहीं बस बच्चे की परविरिश के लिए खूंटे पर दो साल से दूध देने वाली एक बकरी बंधी है और काम करने के लिए सिर्फ मेरे दो हाथ हैं.
अबे बस निकल आया रास्ता! ठाकुर तखत में उछल पड़े –अरे कल बीफतबार को गांव का बाजार लगेगा. बस तू आपने खूंटे पर बंधी उस ससुरी बकरी को बेच आ. बैसे ही वर्षों से तेरे दरवज्जे पर बंधी-बंधी बुढा रही है. इन मानुसी भेड़ियों का एक बूटी बकरी की बलि चढा कर अगर तुझे छूट के साथ पांच जबान बकरियां मिलती हों-तो सैादा बुरा नहीं है रे मिठवा!
हवेली से मिट्ठू घर तो चला आया लेकिन रात भर वह उहापोह में करवटें बदलता रहा. एक ओर घर में पली दुधारू बकरी का मोह दूसरी ओर थी अर्जी खारिज होन से बिरादरी में होन वाली बदनामी की चिन्ता कि गये थे हरि भजन को और औटने लगे कपास! टाज बकरियां मिलने की खुशी में जा रम्मो तितली सी बनी उड़ी-उड़ी फिरती हैल जब सुनेगी अर्जी चारिज होने की बात तो परकटी हो कर गिर पड़ेगी किसी निराशा के गहरे गड्ढे में.
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
तो क्या गांव जवार में होने वाली बदनामी और पांच मिलने वाली बकरियों की खातिर वह अपने घर में पली-पुसी मोतिया बकरी को बेंच दे? उस मोतिया बकरी को जो वर्षों से उसके छोटे परिवार की अभिन्न सदस्य सी बन चुकी है – उस मोतिया बकरी को जिस पर उसकी घरवाली रम्मो और चार बरस का बेटा मंगो अपनी जान छिड़कते हैं, जिसके गले में खुद रम्मो ने अपने हाथों मनकों की रंगीन माला बना कर पहनाई है जिस पर लबहियां उाल कर मंगो हरी पत्तियां खिलाता हुवा तुतलाता है – खाले-खाले मुतिया! तेले लिए लाया हूं मैं घात… और मोतिया भी सुबह शाम थन भर-भर कर बड़े जतन से लाती है उनके लिए दुध. ऐसी मोतिया के जाने से उसका सूना छप्पर काटने नहीं दैाड़ेगा? पर तभी रह रह कर ठाकुर गजबसिंह की आवाज़ – अरे तू ऊत है तू ऊत!…इन मानुसी भेड़ियों को एक बूढी बकरी की बलि चढा कर अगर तेरे कू छूट और पांच जवान बकरियां मिलती ता सैादा बुरा नहीं है रे मिठवा…
सुबह होते ही रम्मो ने कोतिया का गाढा-गाढा दूध दुहा फिर चार बाजरे की रोटियां और बकरी के दूध की दही का कटोरा मिट्ठू के सामने रख दिया. बिसूरत हुए से मिट्ठू ने किसी तरह रोटियां हलक में उतारी और फिर मुंडेर पर बैठ गया. बीड़ी सुलगाते हुए अनायास ही उसकी नजर बार बार मोतिया पर ही पड़ी जा रही थी. मंगे के बप्पू! गुमसुम क्यों बैठे हो आज? काम पर नहीं जाना है क्या? रम्मो ने पूछा.
नहीं नहीं आज नहीं, बीरमपुर में लवाई कल से है, मिट्ठू ने कहा और फिर उकड़ू बैठ कर बीड़ी सूतता चला गया. दिन चढे तक गांव का बाजार जमने लगा था. उसके घर से सटे दगड़े से गांव-गांव के लोग अपना सामान ले-ले कर बाजार की बढ रहे थे. भेड़, बकरी, भैंस ऊंट आदि डंगरों का तांता सा बंधा था.
मिट्ठू उठा और अपने ही घर में चोर सा चुपचाप मोतिया के खूंटे के पास आ कर खड़ा हो गया फिर उसने अपने कांपते से हाथ खूंटे की ओर बढाए और एक नजर चारों ओर घुमाई कि कहीं रम्मो तो नहीं देख रही. खैर रम्मो तो नहीं उसका चार बरस का बालक मंगो खड़ा-खड़ा उसको देख रहा था. सो कुछ नहीं उसने खूंटे से निकाल कर मोतिया के गले में बंधी रस्सी हाथ में थाम ली. ऐसा लगा उसे कि जैसे वह रस्सी नहीं बल्कि किसी सांप का ठंडा और लिजलिजा शरीर उसने मुट्ठी पर भींच लिया हो. उसकी हथेलियों के अन्दर पानी छनक आया. वह बिना रम्मो से तकरार बढाए चुपचाप बकरी गांव के बाजार ले जाना चाहता था. मन पक्का बनाने के बाद उसने झटके के साथ बकरी को खींचा तो सहम के बकरी मिमियाई. मंगो ने देख लिया था – बाप्पू! कहां ले जा रहं हो बकली’’ मंगो ने पूछा. मिट्ठू बिना कोई उत्तर दिये बकरी को खींचे जा रहा था.
बकरी फिर मिमयाई तो रम्मो चली आई दरवाजे पर – कहां ले जा रहे हो बकरी? उसने अपना प्रश्न दुहराया.
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
कहीं नहीं…कहीं नहीं…आज काम पर नहीं जाना है न सो नालं पर की हरी हरी निमियां काट-काट खिलाऊंगा इसे. बहुत कमजोर हो गई है न….बहुत….कमजोर. मिट्ठू की आवाज जैसे कि गड्ढे में धंसी जा रही थी.
फिर प्रतिवाद के स्वर शान्त हो गए. रम्मो ने सिर्फ इतना कहा – ठीक है लेकिन लाठी और हसिया तो भूले जा रहे हो… नीम कटोगे काहे से?’’मिट्ठू की झूठ की पोल खुलते-खुलते बच गई और वह रम्मो से सदेसिया लाठी लेकर नाले की ओर बढ चला. नाला पार करके फिर बेहया के झाड़ों के बीच बकरी को चुगाता-छिपाता आखिर मवेशी बाजार की ओर निकल गया.
बकरी दुधारू थी पूरे चार सौ में बिकी इन रूप्यों से आखिर गजबसिंह और इन्सानी भेड़ियों की हबिश पूरी कर ही दी. बकरियां बैंक से मंजूर हो गई और पशु डाक्टर ने सेंत मेंत लगा कर एक बकरा मिट्ठू को दिलवा दिया.
और मिट्ठू बतैार शुक्रियाने के दस दिनों मुफ्त में ठाकुर गजबसिंह के खेतों में काम कर रहा है और कब तक करता ही रहेगा न जाने कब तक!
(Story by Bhagwati Prsaad Joshi)
स्व. भगवती प्रसाद जोशी द्वारा यह कहानी 1978 में लिखी गयी थी जिसे उनके पुत्र जागेश्वर जोशी द्वारा उपलब्ध कराया गया है.
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