गुमदेश के मेरे पुरखों के किस्से
–बटरोही
मेरा जन्म अल्मोड़ा जिले की मल्ला सालम पट्टी के छानागाँव में हुआ था. पुरखे बताते थे कि कई पीढ़ी पहले वे लोग भारत-नेपाल की सीमा पर बहने वाली काली नदी के किनारे बसे गाँवों में रहते थे, जहाँ से वे मध्य-कुमाऊँ की एक बड़ी नदी पनार के किनारे से इस गाँव में चले आए थे. इस रूप में हमारे पूर्वजों का मूल इलाका ‘काली कुमाऊँ’था, जो अपनी युद्धप्रियता, संगीत प्रेम और परोपकार के लिए प्रसिद्ध था.
काली कुमाऊँ के पश्चिम में खिलपित्ती पट्टी,उत्तर में रेगडूबान,उत्तर के पूर्व की ओर प्रवाहित सरयू नदी, दक्षिण में तल्ला देश और एकदम पूर्व में काली नदी के बीच का क्षेत्र गुमदेश पट्टी का है. चंद राजाओं के समय इस इलाके का अत्यधिक सैनिक महत्व था. प्रत्येक चंद राजा के लिए अपनी शक्ति और सामर्थ्य के प्रदर्शन के लिए डोटी (नेपाल)पर आक्रमण ही प्राथमिकता होती थी. इसलिए इस पूरे क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों का बड़ा महत्व था. दूर-दराज के वन-बहुल क्षेत्र में रहने के कारण ये लोग हमेशा से देश की मुख्यधारा से कटे हुए रहे हैं.
यहाँ के मूल निवासी ‘खस’ या ‘खश’ कहे जाते हैं जो किसी-न-किसी रूप में भारत के समूचे पहाड़ी भूभाग में इसी जाति-नाम (कश+मीर से लेकर आसाम की खासी पहाड़ियों तक) पाए जाते हैं. प्रकृति के बीच उसके हिस्से की तरह रहने वाले ये लोग निर्मल मन और भोले-भाले स्वभाव के कारण शेष समाज के बीच अलग पहचाने जाते हैं. उत्तराखंड के परंपरागत वर्ण-विहीन समाज में इन्हें ‘खसिया’ कहा जाता था, जिन्हें सवर्णों के आगमन के बाद ‘खस ब्राह्मण’ और ‘खस राजपूत’ कहा जाने लगा. बाहर से सवर्ण जातियों के प्रवेश के बाद ‘खसिया’ संबोधन हीनता-सूचक माना जाने लगा जिस कारण यहाँ के मूल निवासियों ने भी उनके जाति-सम्बन्धी वरिष्ठता-क्रम को अपना लिया.
आर्यों के द्वारा जिन जातियों को हीन और तुच्छ श्रेणी में रखा गया है, वे जाति- नाम आज भी यहाँ दिखाई देते हैं. ‘दानव’ ऐसी ही एक जाति है, जिसके अपभ्रंश ‘दानू’ या ‘धौनी’ का प्रयोग गुमदेश के कई लोग आज भी करते हैं.
कौन थे ये ‘खस’ या खश’?
(खसिये का गुस्सा और भैंस की प्यास)
कई इतिहासकार अब इस मत से लगभग सहमत दिखते हैं कि खस जाति आर्यों की वह शाखा थी जो मूलतः तेहरान के उत्तर में कैस्पियन सागर के आसपास या आधुनिक उजबेकिस्तान के पहाड़ी इलाकों में रहती थी. इस पर कोई विवाद नहीं दीखता कि खश एक पहाड़ी जाति थी जिसका मूल स्थान मध्य एशिया था. हमारे समय के शीर्षस्थ इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसंबी उन्हें आर्यों की एक शाखा मानते हुए लिखते हैं, “ईसा पूर्व दूसरी सहस्राब्दी में मध्य एशिया से आर्यों की दो लहरें आईं – पहली लहर इस सहस्राब्दी की शुरुआत में आई और दूसरी अंत समय में. इन दोनों ने भारत को प्रभावित किया और संभवतः यूरोप को भी. उनकी अपनी मातृभूमि (मोटे तौर पर आधुनिक उजबेकिस्तान) के चारागाह, संभवतः लम्बे सूखे के कारण, मवेशियों और उनके मालिकों के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त नहीं थे. भारत में पहुंचे हुए लोगों में से कुछ या तो खदेड़ दिए जाने के कारण अथवा नए प्रदेश की परिस्थितियाँ संतोषजनक न होने के कारण वापस लौट गए. यह बात ईसा पूर्व दूसरी सहस्राब्दी के उत्तरार्ध की कुछ हित्ती मुहरों पर उत्कीर्ण कूबड़ वाले विशिष्ट भारतीय बैल को देखने से स्पष्ट हो जाती है. हित्ती भाषा का मूल भी आर्य भाषा में है. ‘खत्ती’ शब्द, जो हित्ती का ही पर्याय है, संस्कृत के ‘क्षत्रिय’ और पालि के ‘खत्तिय’ शब्द से सम्बंधित जान पड़ता है.” (प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता, पृष्ठ 103)
आर्यों की दूसरी लहर भारत के मध्यवर्ती भूभाग (विशेष रूप से गंगा-यमुना के दोआब) में बसी, लेकिन पहाड़ी भूभाग में पहली लहर में आए कुछ लोग और पहले से यहाँ मौजूद ‘खश’ या ‘कश’ आदिवासियों की सम्मिलित संस्कृति का विकास हुआ. अत्यंत संवेदनशील, भावुक, वीर, युद्ध-प्रिय और वचन के पक्के इन खश आदिवासियों के बारे में कहा जाता था कि गलत काम देखकर जितनी तेजी से ये लोग आक्रामक हो जाते हैं, परोपकारी के लिए अपने प्राण तक न्योछावर करने के लिए तैयार रहते हैं. अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण इनके आचरण में अतिवादिता झलकती है और इनके बारे में अनेक किम्वदंतियां प्रचलित हैं. दैत्य की तरह का भोजन खाने वाले, कभी न बुझने वाली भैंस के जैसी प्यास और बाघ की जैसी अपराजेय ताकत के स्वामी.
जनसंख्या और प्रभाव दोनों दृष्टियों से गुमदेश में धौनी सबसे आगे थे. इन लोगों में प्रचलित ‘भाग’ (आत्म-स्वीकृति) के अनुसार ये लोग उत्तर भारत के किसी ऐतिहासिक नगर से आकर पहले पिथौरागढ़-टनकपुर मार्ग पर ‘धौन’ नामक स्थान पर रुके.
धौनियों के पूर्वज दो भाई थे. दोनों भाई राजा के पास आते-जाते रहते थे. एक दिन एक ‘मौन’ (मधुमक्खी) का झुण्ड उड़ रहा था. बड़े भाई ने राजा से कहा, ये मेरा है. राजा को इस पर आश्चर्य हुआ. उसने पूछा ये कैसे संभव है. बड़े भाई ने एक मौन के पैर में धागा बांध दिया. सायंकाल वह मौन उसके पास आ गया. राजा को वह दिखाया गया. राजा उसकी सच्चाई पर प्रसन्न हुआ. तब से छोटा भाई ‘धौन’ में रहने के कारण ‘धौनी’ और बड़ा भाई ‘मौनी’ कहलाने लगा.
धौनियों के पूर्वज काली-कुमाऊँ के सबसे विश्वस्त क्षत्रियों के गाँव ‘शिलंग’ में बसे. चंद राजाओं ने उन्हें पूर्वी सीमा की देखरेख करने का दायित्व सौंपा और वे वहीँ अपनी गढ़ी बनाकर रहने लगे. मौनी को कुमाऊँ के पश्चिमी क्षेत्र का महत्वपूर्ण गढ़पति बनाया गया जिन्हें दयित्व सौंपकर राजा निश्चिन्त रहता था. कहावत ही है, ‘पूर्वो को धौनी, पश्चिमो को मौनी’ अर्थात चंद राज्य के पूर्व का खंभा धौनी और पश्चिम का मौनी है.
धौनी लोगों की एक पुरखिन ‘भागा धौन्यानि’ के नाम से कुमाऊँ की कुछ लोक कथाओं में चर्चित है. उसके वीरतापूर्ण कृत्यों और शारीरिक बल से सम्बंधित गाथाओं को धान इत्यादि की गुड़ाई के समय ‘गुड़ोल’ गीतों में लोगों को उत्साहित करने के लिए गाया जाता था. धौन के वर्तमान बस अड्डे के पास चार-पांच कुंतल भारी ग्रेनाईट की चपटी एक आयताकार शिला पत्थरों के चबूतरे पर स्थापित है. इस पर प्रायः घसियारिनें अपनी दराती घिसकर उनकी धार तेज किया करती थीं. इसे ‘भागा धोन्यानिको उध्युनो’ (भागा धोन्यानी का दराती की धार तेज करने का पत्थर) कहा जाता है. कहते हैं कि वह इतनी शक्तिशाली थी कि इतने भारी ‘उध्यूने’ को, जो उसके लिए एक मामूली पत्थर का टुकड़ा मात्र था, अपनी घाघरी (लहंगे) के फेटे में लपेटकर घास काटने जाया करती थी.
एक धौनी ने अपनी बेटी फुंगर के बोरा से ब्याह दी. फुंगर का बोरा अपनी ससुराल शिलंग में प्रायः आया करता था और जब भी ससुराल आता, अपनी पत्नी को ताने देता रहता, ‘गरखा जै ऊनो, करडा चून खै ऊनो, पुरानो करकिल्लो खै ऊनो’. (अर्थात अपने ससुराल की ‘गरखा’ भूमि (ठीक-ठाक भरण-पोषण करने वाली जमीन) को देख आऊंगा, लाल चावल का भात और पुराने करबिल्ले का साग खा आऊंगा.) ऐसा कहकर वह अपनी पत्नी को जतलाना चाहता था कि तुम्हारे मायके वालों का खाना-पीना बहुत घटिया किस्म का होता है. रोज-रोज के इन तानों से उसकी पत्नी तंग आ चुकी थी. उसने अपने मायके वालों को सन्देश भिजवाया कि ‘अगर ‘आप लोगों’ ने मेरे पति को उसकी हरकतों के लिए मुंहतोड़ जवाब नहीं दिया तो मैं अपने मायके के चमल देव के झूले से लटककर आत्महत्या कर दूँगी.’
इस पर दोनों कुलों में शत्रुता हो गयी. फुंगर के बोरा को जब पता चला कि धौनी लोग उसकी हरकतों से चिढ़े हुए हैं, वह अपने दल-बल के साथ धौनियों की ‘धाड़’ (लूटपाट) करने के इरादे से चढ़ आया. धौनियों के चारों धड़े बोरा का सामना करने के लिए तैयार हुए. सबसे आगे शिलंग के धौनी, उसके बाद बसकूनी, नौढुंगा और चौपता के धौनी लोग एकत्र होकर ओल्का फरश्यां नामक स्थान पर आ गए. इनकी सहायता के लिए किमसौन का दांग (दल) भी आ पहुँचा. यहाँ पर बोरा को पराजित कर उसके सिर के बाल मूंड दिए गए और उसे बंदी बना लिया गया.
छह मास तक वह बंदी रहा. उसके बाद उसकी पत्नी ने सन्देश भिजवाया कि ‘यह ‘धाड़’ तो साले-भिना (जीजा-साले) का मजाक था. अब सिर के बाल उग आए होंगे, वापस चले आओ.’ बोरा वापस तो चला आया पर वह अपमान का बदला लेना नहीं भूला. उसने धौनियों के लिए माल (तराई-भाबर) से आने वाला नमक रोक दिया. नमक न मिलने से धौनी लोग परेशान हो गए. धौनियों ने पुनः अपने योद्धा तैयार किये और बेलखेत (लध्यों और क्वेराला गाड़ का संगम-स्थल) में बोरा के योद्धाओं को पुनः पराजित कर दिया.
खसिया मधिया सौन रंगोड़ पट्टी के सौन डूंगरा का वीर सामंत था, जिसने सालम, चालसी और काली-कुमाऊँ के कई वीरों को परास्त किया था. वीर मल्ल (पैक) के रूप में उसका दूर-दूर तक नाम था. मधिया सौन राजा लक्ष्मी चंद (1597-1621) का समकालीन था, जिसे राजा उसकी वीरता और स्वामिभक्ति के कारण बहुत मानता था. मधिया सौन की दो पत्नियाँ थीं, जिनके साथ वह सुखी गृहस्थ जीवन बिता रहा था.
दो पत्नियों के अलावा मधिया की कमला पंथ्याण (पन्त का स्त्रीलिंग) नामक एक प्रेमिका भी थी जो बेहद सुन्दर और विदुषी थी. कमला सौन-डूंगरा के पास भनोली गाँव में अपने राज-पुरोहित पिता के साथ रहती थी. जातिगत बंधनों के कारण वे दोनों विवाह नहीं कर सकते थे लेकिन हमेशा एक-दूसरे की यादों में खोये रहते और मिलने के लिए आतुर रहते. जब इन दोनों के प्रेम-सम्बन्ध सार्वजनिक हो गए तो कमला ने आजीवन अविवाहित रहने का फैसला कर लिया. राज-परिवार, राज पुरोहित और स्वयं मधिया सौन की पत्नियाँ इस सम्बन्ध को लेकर खुश नहीं थे.
राजा के आदेशानुसार उस ज़माने में योद्धाओं के सारे मंत्र-पूजित अस्त्र-शस्त्र राज पुरोहित के घर में ही रहते थे, जिनमें किम्वदंती के अनुसार कुछ अजेय ब्रह्मास्त्र भी शामिल थे. ये अस्त्र अनाज से भरे हुए बाईस मन के विशालकाय ‘भकारों’ (टोकरों) के नीचे दबे रहते थे, जिन्हें केवल ये ‘पैक’ (मल्ल) ही उठा सकते थे.
अपनी आखिरी लड़ाई में राजा के आदेश पर मधिया सौन को डोटीगढ़ के राजा से युद्ध लड़ने के लिए जाना पड़ा. यात्रा की पहली रात को मधिया सौन की छोटी पत्नी लाडिली को सपना हुआ कि उसका पति भनोली के रास्ते जाएगा तो घर वापस लौटकर नहीं आ पायेगा. (भनोली में मधिया की प्रेमिका कमला पंथ्याण रहती थी.) सुबह लाडिली ने अपने पति को भनोली के रास्ते जाने से मना किया तो प्रेमिका की आसक्ति और ताकत के अहंकार में चूर मधिया ने उसकी एक नहीं सुनी और वह भनोली के ही रास्ते राजधानी चम्पावत नगरी की ओर चल पड़ा. रात को वह अपनी प्रेमिका के पिता राज पुरोहित के घर पर ही ठहरा क्योंकि वहीँ से उसे युद्ध के लिए ब्रह्मास्त्र ले जाने थे.
पुरोहित पुत्री कमला ने मधिया मल्ल के स्वागत में सोलह तरह के पकवान तैयार किये. कमला ने जब लाडिली के सपने के बारे में सुना तो उसके मन में भी अपने प्रेमी को लेकर अनेक शंकाएं होने लगी. अपने प्रेमी की कुशलता को ध्यान में रखते हुए उसने मधिया को एकांत में बुलाकर कहा कि वह खाना खाने से पहले उसकी माँ से यह वचन ले ले कि वह खाना तभी खायेगा, जब वह उसे भकार के नीचे रखे मंत्र-पूजित ब्रह्मास्त्र को उसे देगी. पुरोहित पत्नी जानती थी कि मधिया सौन सच्चा पैक होगा, तभी बाईस मन का अनाज तले दबे खड्ग को निकाल पायेगा. उसने मधिया को अनुमति दे दी. मधिया ने पल भर में ही अनाज से भरा बाईस मन का भकार उठाया और उसे किनारे रख दिया. मगर वह नीचे रखा ब्रह्मास्त्र लेना भूल गया.
भोजन परोसा गया. दिन भर का भूखा मधिया खाने पर लपका. ज्यों ही मधिया ने थाली से पहला कौर उठाया, कमला ने उसे सचेत करने के अंदाज में बिल्ली को भगाने का बहाना करते हुए आवाज दी, ‘शिरू-शिरू. बाग ल्ही जाल तुकें, खान बखत आँख बुझि लिछै.’ (भाग जा बिल्ली, तुझे बाघ ले जाएगा, खाते समय हमेशा आँखें बंद कर लेती है.) मधिया सौन कमला का व्यंग्य तुरंत समझ गया और उसने पुरोहित-पत्नी की अनुमति से खड्ग लेकर अपने बगल में रख लिया.
कुछ दिनों के बाद मधिया सौन युद्ध में शत्रु को पराजित करने के बाद अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए इतना उतावला था कि उस ब्रह्मास्त्र को युद्ध भूमि में ही भूल आया. चम्पावत से भनोली लौटते हुए लोहाघाट, रैधाव, शिमलखेत और बडियाड़ गाँवों को पार करने के बाद ढेकुली के जंगल से गुजर रहा था मधिया सौन कि गौली नामक स्थान पर गजुवा लाटा ईधन की लकड़ी काट रहा था. (लाटा अर्थात सीधा-सरल, बुद्धू, अनाड़ी-सा). गजुवा ने सोचा, मधिया उसे मारने के लिए आ रहा है, वह डर के मारे पेड़ पर चढ़ गया. ज्यों ही मधिया उसके पास से गुजरा, गजुवा ने अपने कुल्हाड़े से मधिया के सिर पर वार किया जिससे उसका सिर बीच से फट गया.
मधिया सौन इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था. उसने फ़ौरन अपने कमर में बंधे फैंटे को खोला और फटे हुए सिर को जोड़कर फैंटे से कस कर बांध दिया. उसके बाद गजुवा लाटे को उसी के कुल्हाड़े से काटकर मधिया अपनी प्रेमिका के घर पहुँचा. राज पुरोहित के घर पहुँचते ही मधिया ने अपनी प्रेमिका कमला पंथ्याण की गोद में आखिरी साँस ली.
किम्वदंती के अनुसार, मधिया सौन की चिता पर उसकी दोनों पत्नियों के साथ प्रेमिका कमला भी सती हो गई.
गुमदेश में पुराने समय में एक दैत्य लगा हुआ था. वह बारी-बारी से प्रत्येक परिवार के एक व्यक्ति की बलि लेता था. लोगों ने दैत्य का वध करने के लिए अपने कुलदेवता चौंमू से प्रार्थना की. चौंमू ने उनकी सहायता के लिए लाटा और भरंगड़ा को बुलाया. लेकिन वह दैत्य बड़ा ही शक्तिशाली था, उसने लाटा-देवता की जीभ काट ली; वह लाटा (गूंगा) हो गया. भरंगड़ा का एक पैर तोड़ दिया किन्तु देवताओं ने मिलकर दैत्य का वध कर डाला और उसे चमलदेव (चौंमू देवता) के आंगन में गाढ़ दिया. आज भी जब चौंमू देवता का डोला चमलदेव में पहुँचता है, चौंमू देवता का धामी (जिसके शरीर में देवता अवतरित होता है) उस स्थान पर प्रहार करता है.
एक और कथा के अनुसार, चमदेवल के पूर्व में स्थित चबूतरे की आकृति का एक ऊंचा टीला गुमकोट के नाम से प्रसिद्ध है. ‘गुमदेश’ के नामकरण का आधार भी इसी गुमकोट को माना जाता है. कथा के अनुसार यहाँ जाख (यक्ष) नामक एक राजा रहता था. एक बार इस क्षेत्र में चौंमू देवता का डोला चमलदेव की ओर जा रहा था. उसकी सज-धज निराली थी. राजा ने अपनी रानी से पूछा, ‘इस समय कौन अच्छा लग रहा है, मैं या चौंमू देवता?’ रानी ने सहज भाव से उत्तर दिया, ‘इस समय तो चौंमू देवता ही अच्छा लग रहा है.’ इस पर राजा कुपित हो गया और चौंमू देवता को अपमानित करने के लिए उसके डोले की ओर बढ़ा. उसके इस दुस्साहस से चौंमू देवता नाराज हो गया और इससे राजा का वंश नाश हो गया.
आज भी उस राजा की रानी को सम्मान देने के लिए चौंमू देवता का धामी चमदेवल में डोला पहुँच जाने का बाद डोले से उतर जाया करता है. इसके बाद उसका डोला बिना धामी के घुमाया जाता है.
इतिहासकार डॉ. राम सिंह अपनी किताब ‘राग-भाग काली कुमाऊँ’ में लिखते हैं, “गुमदेश में मानव सभ्यता के विकास का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कत्यूर घाटी, जागेश्वर, ढिकुली (रामनगर), चौखुटिया-बैराठ (अल्मोड़ा) का. किन्तु यह एक जीवित सच्चाई है कि प्राचीनता की दृष्टि से शिलंग, चमदेवल, जो गुमदेश का प्रमुख स्थल है, पिथौरागढ़ सहित चम्पावत जिलों में अग्रणी है. चमदेवल अर्थात चौंमू के देवालय के रूप में इसकी ख्याति होने से यह ‘चमदेवल’ कहलाता है. चौंमू देवता मूलतः लोकदेव के रूप में स्थापित और पूजित है. संभव है, यहाँ पहले चतुर्मुख (चौमुंह – चौंमू) शिव की स्थापना की गयी हो. कुछ भी हो, यहाँ पर आठवीं-नवीं सदी का बना प्राचीन शिव मंदिर है. यह एक विशाल चबूतरे पर मजबूती से स्थानीय परतदार बालुज शिलाओं से बना है. ये शिलाएं कुछ पीलापन लिए हैं और तरासने में कुछ कोमल हैं. इसी प्रकार की शिलाओं का प्रयोग सीताबनी (रामनगर और कोटाबाग के मध्य में स्थापित मंदिर समूह) जिला नैनीताल में भी मंदिरों के निर्माण के लिए किया गया है. मंदिर पूरी तरह कुमाऊँ-गढ़वाल की कत्यूरी शिखर शैली में बना है. मंदिर के शीर्ष पर गजसिंह की मूर्ति बनी है. तत्कालीन स्थापत्य का यह अनूठा उदाहरण है. उसके सामने के प्रवेश द्वार को हाल में बनाई गयी धर्मशाला की दीवारों को खड़ा करके उसके मौलिक स्वरूप को ओझल कर दिया गया है.
“धर्मशाला की भौंडी दीवारों से मंदिर का तत्क्षण कला से अलंकृत प्रवेश द्वार और विभिन्न अभिप्रायों से सज्जित उसका सामने का भग आगे नहीं दिखाई पड़ता है जो कि वास्तुकला एवं निर्माण कौशल की सूक्ष्मताओं के कारण दर्शनीय था. यहाँ पर प्रारंभ में संभवतः यह अकेला मंदिर नहीं, पूरा मंदिर-समूह रहा होगा, जिसकी उचित देख-रेख न होने से गिरता गया. समय-समय पर इधर से गुजरने वाले अज्ञानी, धर्मांध, यश लोलुप साधुओं व उनके भक्तों ने मिलकर गिरे हुए मंदिरों के मलवे से जीर्णोद्धार के नाम पर अकुशल कारीगरों तथा सौन्दर्य एवं सौष्ठव के संस्कारों से रहित लोगों से धर्मशालाओं, चबूतरों, बाहरी दीवारों को बनवा डाला, जिससे सदियों पुराने अवशेष सदैव के लिए मिट गए. वास्तुकला, स्थापत्य, मूर्तिकला के अनूठे नमूनों की दुर्दशा कुमाऊँ में सर्वत्र दिखाई देती है. धार्मिक रूप से अति उत्साही बाबाओं, कलात्मकता से अनभिज्ञ उनके भक्तों के सहयोग से ये प्राचीन केंद्र उनकी कारगुजारियों का केंद्र बने. फलतः इतिहास का वह उदात्त रूप दृष्टि से ओझल होता गया. साथ ही इन्हीं स्थलों को पुजारियों तथा अन्य प्रभावशाली लोगों ने अतिक्रमण करके उनके बचे-खुचे चिह्नों को भी मिटा दिया.”
(कुछ तथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए आभार : ‘राग-भाग काली कुमाऊँ’ – डॉ. राम सिंह, कुमाऊँ का इतिहास – बद्री दत्त पांडे और प्रोफ़ेसर शेर सिंह बिष्ट)
– काफल ट्री डेस्क
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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Bahut sunder g