महानगरों से आने वाली अधिकतर बस पहाड़ी इलाकों में तड़के सुबह ही प्रवेश करती है. सुबह की ताज़ी हवा में चाय की ख़ास सुगंध आपका स्वागत करती है. पहाड़ी चाय की पहली घूट आपके शरीर को इस कदर तरोताजा कर देती है कि आप घंटों बस के सफ़र की थकावट एकपल में भूल जाते हैं. Special Tea of Uttarakhand and Hills
अगर आप पहाड़ से हैं और चाय नहीं पीते हैं तो आपको हिकारत भरी नज़र से देखा जा सकता है. कहने को आज इस देश का राष्ट्रीय पेय चाय है लेकिन पहाड़ी इसे सदियों पहले अपना चुके हैं. पहाड़ियों के चाय प्रेम के कारण ही यह माना जाता है कि पहाड़ियों के शरीर में खून से ज्यादा चाय मिलती है. Special Tea of Uttarakhand and Hills
चाय के बारे में कुमाऊनी में बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि ‘जै च्हा ले मल थोल है तल थोल नैं चिपकिछ उले कि च्हा भ्यो’ (जिस चाय से ऊपर वाला होंठ नीचे वाले होंठ से न चिपक जाय वो भी क्या चाय हुई) कुल मिलाकर पहाड़ियों की चाय भी उतनी ही मीठी होती है जितना उनका स्वभाव मीठा होता है.
करीब अस्सी के दशक तक पहाड़ी घरों में देखा जाये तो नमक और कपड़ा दो ऐसी चीजें थी जो घर पर नहीं मिलती थी. इसके लिए परिवार का कोई एक सदस्य बाहर नौकरी के लिए जाता बाकि घर पर ही हो जाता था. यह बड़े आश्चर्य की बात है कि मीठे के लिए गुड़ तक गाँव घर में बनाया जाता था. चाय के साथ गुड़ को ही कटकी या टपकी कहते हैं.
गाँव के सभी परिवार अपने खेतों में गन्ने लगाते थे और गुड़ बनाने के लिए हर गांव में गन्ना पेलने वाली मशीन हुआ करती थी जिससे सभी परिवार गुड़ बनाते थे. यही कारण है कि आपने इक्कीसवीं सदी से पहले तक पहाड़ों में चीनी वाली चाय कम ही देखी होगी.
गांव में बाज़ार के प्रवेश के साथ पहले मिसरी और चीनी प्रवेश करते हैं और आत्मनिर्भर ग्रामीण परिवारों को कमजोर करते हैं. कटकी में गुड़ की जगह पहले मिसरी को मिलती है और मिसरी की जगह चीनी. हालांकि पहाड़ों में मिसरी और गुड़ वाली चाय की जगहआज भी चीनी वाली चाय नहीं ले पाई है.
पहाड़ों में आज भी गुड़ की कटकी वाली चाय बनती है. चीनी वाली चाय गांव के सेठ लोगों के घर पर ही मिलती थी. कुल मिलाकर आज हर घर में बनने वाली चीनी की चाय एक समय लक्सरी थी क्योंकि इसके लिए आपको बाज़ार पर निर्भर होना पड़ता था और बाज़ार पैसों से चलता है.
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पूरी तरह से गलत लेख है
पहाड़ के इतिहास में कभी भी कहिं गन्ना नही उगाया गया उधमसिंह नगर हरिद्वार देहरादून को पहाड़ की श्रेणी में नही जोड़ा जा सकता
कटकी वाली चाय पी जाती थी पर गुड़ कभी किसी पहाड़ में नही बना
हा यह बात सही है गुड़ तो हल्द्वानी मैं भी अधिकतर दड़ियाल रामपुर से आता था पहाड़ो मैं तो केवल मोटा गन्ना केवल पूजा पाठ के रस्मो या चूसने के लिए उगाते थे वो भी दो चार पौधे|
पहाड़ में पहले व्यापार रुपये आधारित न होकर वस्तु या फसल विनिमय (अदल-बदल) आधारित होता था । अनाज तो स्थानीय रूप से उगा लिया जाता था । हर परिवार वर्ष भर की अपनी जरूरत का अनाज रखकर शेष विनिमय कर चाय, गुड़, तम्बाकू, नमक एवं कपड़ा ले लेते थे । क्योंकि पहाड़ों में चाहे गढ़वाल हो या कुमाऊँ हर जगह इन्ही पांच सामग्री की मांग रहती थी क्योंकि इनका स्थानीय स्तर पर पहाड़ों में उत्पादन अतिसीमित या नगण्य ही था ।
महोदय लेखक ने ठीक ही कहा है, कि पहाड़ों में गुड़ बनता था, मेरा गांव गुमदेश पट्टी जिस, चम्पावत में है आज से करीब ८०..९० वर्ष पूर्व वहां काली नदी के किनारे की बसासतो मैं रिखू ( गन्ना ) लगाते थे, कुछ मात्रा में गुड़ बनता था कुछ राब तम्बाकू बनाने में प्रयोग किया जाता था, हमारे वह खेत अब बंजर हो चुके हैं, लेकिन गुड़ बनता था यह वास्तविकता है,