दीपा धनराज की भारत सरकार के परिवार नियोजन कार्यक्रम की कड़ी आलोचना करने वाली दस्तावेजी फिल्म समथिंग लाइक अ वार की शुरुआत में ही जब स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ जे एल मेहता लेप्रोस्कोपिक नसबंदी के बारे में बता रहे हैं तब बहुत कुशलता के साथ नवरोज कांट्रेक्टर का कैमरा नसबंदी हो रही औरत के जबड़े को अपने वार्ड बॉय के हाथों से दबाया हुआ कैद कर पाता है. मानों किसी औरत को नहीं बल्कि किसी जानवर के जबड़े पकड़ कर जबरदस्ती योजना थोपी जा रही हो. यह पूरी फ़िल्म स्त्री की यौनिकता और नसबंदी कार्यक्रम की व्यर्थता को पूरी गंभीरता से सामने लाती है. 2014 के नवम्बर महीने में छतीसगढ़ में नसबंदी के दौरान सरकारी लापरवाही के कारण मारी गयी औरतें सरकार का कोई नया आइना नहीं बल्कि सरकार की स्थायी छवि की पुनरावृत्ति ही है जो समय के बदलने के साथ और लालची और जन विरोधी हुई है.
1991 में बनी दीपा धनराज की फिल्म समथिंग लाइक अ वार यूं तो मुख्य रूप से परिवार नियोजन प्रोग्राम में महिला की बलि और स्त्री यौनिकता के प्रश्न को केंद्र में रखती है लेकिन इसी क्रम में हमें कुछ महत्वपूर्ण साजिशों के बारे में भी पता चलता है. 1980 के दशक में परिवार नियोजन के लिए स्त्रियों पर नोरप्लांट जैसे हार्मोनल निरोधक का इस्तेमाल भी किया गया. यह ख़ासा नुकसानदायक निरोधक है जिसके बेजे प्रयोग के लिए हर जगह इसकी आलोचना हुई. इस फिल्म में भी दो महिलाओं से बातचीत के जरिये हमें अपनी सरकार की अपने लोगों के प्रति लापरवाही और विदेशी हितों के साथ सीधे जुड़ने के षड्यंत्र का पता चलता है.
समथिंग लाइक अ वार में उद्धृत महाराष्ट्र के परिवार नियोजन विभाग के निदेशक डॉ डी एन पाल का 1976 में दिया कथन गौर करने लायक है : “If some accesses appear, don’t blame me. You must consider it something like a war. There has been pressure to show result.Whether you like it or not there will be a few dead people. “ यानि ज्यादतियों की जिम्मेवारी उस कर्मचारी और सरकार की नहीं है . यह तो नतीजे हासिल करनी की हडबडी में हुई गलतियां हैं जिसे वे गलतियाँ भी न कहकर किसी अघोषित युद्ध की संज्ञा देते हैं.”
यह अघोषित युद्ध असल में किसी और के खिलाफ नहीं बल्कि बेशर्मी से अपने ही लोगों के खिलाफ लादा जा रहा है इसी कारण बेशर्मी से अच्छे दिनों की सरकारी घोषणा के साथ ही जीवन रोधक दवाइयों की कीमतें आसमान छूने लगीं.
संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.
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