यात्रा पर्यटन

शक्तियों का केंद्र कालीमठ

पिछली कड़ी : पहाड़ों की अति कठिन जिंदगी में सहृदयता

दिन ऐसे ही गुजरते रहे. हर दिन पिछले से ज्यादा व्यवस्थित होता चला गया और रात में हर रात नदी की आवाज के साथ कई ध्वनियां आती, सुनाई देती लगतीं. अगर गीत के अंदाज में कहें तो –

कोई आवाज आती रही रात भर 
चश्मे नम मुस्कुराती रही रात भर

कोई शिकवा गिला कोई मलाल न था. न ऐसी कोई स्मृति थी. मगर हर बार नदी की आवाज विकल करती. गीता गैरोला के शब्दों में इसे समझें तो नदी कोई खुदेड़ गीत गाती लगती थी.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)

ऐसी ही रातें बीततीं रहीं. मन एकाग्र नही हो पाता. समझ से परे था कि दिन भर जो पहाड़, हरीतिमा, आकाश अपनी विराटता से सम्मोहित किये रहते कि जिनको देखते महसूसते उनकी विराटता में होते हुए मन निष्कलुष, निर्विचार हो जाता. इतना कि उनकी विराटता में स्वयं को समाहित कर लेने की इच्छा होती. इच्छा भी तब, जब अंधेरा घिरने लगता. उससे पहले तो इन पहाड़ों के बीच, सरस्वती नदी के निनाद में देह मन के ‘होने’ का ख्याल तक नहीं आता! एक पुलक कि हिमालय में हूं. एक थिरकन कि वहां हूं जहां चाहा था. जैसा चाहा था. ऐसा ही, बिल्कुल यही अतुल्य अनिवर्चनीय एकांत. मगर शाम की आरती के बाद यह क्या हो जाता है कुछ समझ नहीं आता. नदी बहती अब भी सुनाई देती है बंद दरवाजे के भीतर भी लेकिन इस नदी का स्वर क्यों बदल जाता है.

नदी की आवाज संगीत कम खुदॆण गीत की लय ज्यादा लगने लगती. यह समझ से परे था कि ऐसे अनुपम सौंदर्य से भरे भू खंड पर जहां आ कर, जिसे देखकर जीवन अनायास प्रेम की अनुभूति से सराबोर हो जाता है.तो वहाँ ये किस तरह की बेचैनी है!  इतने सुखद दृश्य के भीतर यह मन को मरोड़ता बेचैन करता कैसा अदृश्य है जो सब सुख, संतुष्टि पर भारी है!

यह कैसा जीवन है, किस का जीवन है जो ऐसा विरस हुआ जाता है! और आश्चर्य कि वहाँ, जहां सरस्वती निरंतर गतिमान है. सरस्वती जो जीवन को सरस कर दे. काली, जिसे समेटा ही नही जा सकता. ऐसी शक्तियों का केंद्र कालीमठ.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)

यहां इस सरस्वती या काली नदी की धार से या कहें तो कई धाराओं से ऐसी बेकली, ऐसे खुदेड़ गीत, ऐसी पुकार, क्यों सुनाई देती है. यह आर्तनाद सा क्या गूंजता रहता है हरदम! यह आरती है क्या महाकाली की? आर्त स्वर ही आरती है न. बस ऐसे समय अपना सब छोड़कर दिन दोपहर हो या फिर रात, आधी रात, कमरे से बाहर आ कर चक्कर लगाने लगती बरामदे में और कभी-कभी नदी के किनारे भी.

समय से बेपरवाह चली जाती जानने ,सुनने नदी की भाषा. उसे कुछ समझ नहीं आता. नदी वैसे ही बहती रहती. वैसे ही लहरों से उछल-उछल कर उसे भी रोकती रहती मगर उसे कुछ समझ नहीं आता. नदी के पास जा कर भी उसे नदी ने कुछ भी नहीं बताया. इस बार तो नहीं ही बताया. कुछ था जो समय पर भारी सा था. कुछ कलेजे में आग सा और पीठ पर जलते चुभन सा. लगातार, तर्जनी की चुभती नोंक. वक्रोक्तियों का जहर सा कुछ. जैसे कड़ुआ धुआं आँखों को जलाता नींद से दूर रखता. जैसे भारी धुंध में ऑक्सीजन की कमी, नीम अंधेरे में चुप की घुटन, कहीं एक किसी पर मन नही टिकता. जैसे होम्योपैथिक दवा से रोग उखड़ जाता है वैसे ही जाने किस तल से ये सब बवंडर उठते आ रहे हैं.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)

नदी के पास जाओ तो जैसे नदी भंवर में हो और वह उसमें डूबने लगती, इन सब के साथ अश्रुओं की कोई गणना नही, यह तारी रहा चार दिन पाँच रात. काल के उपर आरूढ़ महाकाली की दिव्य ऊर्जा में. उसके समय के स्फुलिंग में जलती, काँपती वह प्रवाहमान सरस्वती के तीर पर आती और जाने कब तक खिंची प्रत्यंचा की तरह थरथराती रहती किसी प्रत्याशा में.काली ! सरस्वती! नदी बहती रहती अपनी धुन में और वो करबद्ध, वाष्प अवरुद्ध कंठ, मौन पुकारती रहती किसी अज्ञात शापमुक्ति के लिये.

अहो देवि महादेवि संध्ये विद्ये सरस्वती
ब्रहमा शापात विमुक्ता भव! 
विष्णु शापात विमुक्ता भव! 
विश्वामित्र शापात विमुक्ता भव! 
वि..मु..क्ता..भ..व… !!

तीन दिन से लगातार बारिश हो रही है कभी कम कभी ज्यादा. ठंड के साथ मौसम बदला हुआ है कालीमठ का.

यहां आए दस दिन हो गए हैं. लौट आने के लिए हरिद्वार से मां का लगातार फोन आ रहा है. वह बारिश के समाचार देख-देख कर परेशान है. उसे केदारनाथ की भीषण आपदा की स्मृति परेशान कर रही है. जानती हूँ.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)

दीदी को मेरे यहां और रुकने से कोई परेशानी नहीं पर आज उसका भी फोन आ गया कि सामान समेट के तैयार रहना गाड़ी भेजूंगी कभी भी. तुरंत चली आना.

ऐसी हड़बड़ी क्यों? तो पता चला कि बारिश के कारण चार धाम यात्रा अभी रोक दी गई है. लिमिटेड गाड़ियों को ही ऊपर जाने की अनुमति मिल रही है. जैसे ही ओके होगा, गाड़ी चली जाएगी तो तुम तैयार रहना.

मेरे पास वैसे भी इतना सामान नहीं है क्योंकि दीदी ने कहा था खाने-पीने की सारी चीजें वहीं दे देना. प्लास्टिक के सारे डिब्बे भी वही किसी को दे देना. वापसी का सामान बांधना मेरे लिए कोई पहाड़ काम नहीं था.

पर इस बीच में केदारनाथ यात्रा के लिए पूछताछ कर रही थी. यह कहें कि जाना भी चाह रही थी. पहले तो राणा जी एकदम मुकर गए की खड़ी चढ़ाई पर मुझे अकेले जाने नहीं देंगे मगर फिर बाद में मुझे भेजने को तैयार हो गये.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)

बहुत सारे खच्चर वाले यहीं कालीमठ के हैं. दुकान लगाने वाले भी. तुमको जाना है तो एक लड़का यही से तुम्हारे साथ साथ जाएगा. जाओ जहां मन करे रुकना जैसे मन करे जाना. पैदल या खच्चर से. तुम्हें कोई दिक्कत नहीं होगी.

लड़का क्यों जाएगा मेरे साथ और भी तो यात्री होंगे ना साथ में वहां?

तुम्हें खड़ी चढ़ाई और बदलते मौसम का अंदाजा नहीं है इसलिए. जाना है तो बोलो आधार कार्ड दो पंजीकरण के लिए.

सुना है पानी की एक बोतल ₹250 की मिल रही है और रात भर रूकने का भी कई हजार ले रहे है?

ले लो मेरे से पैसे. जाना है तो चली जाओ. लड़का साथ रहेगा तुम्हारे.

और मैं पैसे लेकर भाग गई तो राणा जी.

अरे ले जाओ तुम पैसा, समझूंगा तुम्हारा ही पैसा था मेरे पास.

राणा जी पैसे ले कर भागने की बात पर बहुत देर तक हँसते रहे थे.

इतने गर्म कपड़े तो लाई ही नहीं मैं.

सब इंतजाम हो जाएगा.

सत्तर साल के हाई स्कूल के रिटायर्ड प्रिंसिपल कुंवर सिंह राणा! ऊपर कालीमठ गांव से करीब डेढ़ किलोमीटर रोज ही उतरते चढ़ते हैं पैदल. मुझसे मेरा हाल लेते हुए गुप्तकाशी जाते हैं कि बेकार बेरोजगार नहीं बैठना, हाथ पांव में जंग लग जाएगी जी.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)

मुझे केदारनाथ भेजने के लिए पुजारी बालक हरीश गौड़ भी तत्पर हुए.

निकलना है तो जाने से पहले हरीश जी से पूजा करा ली. सुबह हरीश ने रात्रि भोजन के लिए आमंत्रित किया. मना करने के बावजूद उन्होंने मुझसे हां करवा ली रात के भोजन की. दो दिन पहले दो कंबल भी दिए, जब बातचीत में पता चला कि मुझे कमरे में मिली रजाई से नवरत्न तेल की तेज गंध आती है और मैं सो नहीं पाती हूँ. उसे बस पैरों पर डाल लेती हूँ जब बहुत ज्यादा ठंड लगती है तो.

मूसलाधार बारिश में छतरी लगाकर संकरी और खड़ी सीढ़ियां उतरकर पानी में छप-छप करती गुड्डी के बरामदे से होती नीचे उतर के भोजन करने गयी दोपहर में. आज नोवा नहीं थी. आज मैं अकेली थी उस भोजनालय में. वीरेंद्र सिंह राणा बीच-बीच में आ कर देखते पूछते रहे. सब्जी ले लो जी. दाल लो और रोटी क्यों निकाल दी? कुछ और लाऊं. कुछ तो और ले लो.

सुबह पूजा हो चुकी थी. आज शाम आरती से काफी पहले नीचे उतर गयी. यूं ही घूमती रही मंदिर के आसपास. बारिश हो कि रुकी थी. मंदिर के सामने वाले लाल बेंच पर बैठ गयी.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)

यात्री लगातार तो आ रहे थे पर भीड़ नहीं होती यहां. पूजा भी एक साथ कई पुजारी मंदिर के चारों ओर कहीं भी बिठाकर करा देते हैं.पूजा विधि सरल है संक्षिप्त भी. एक बात देखा कि यहां फूल और बेलपत्र या और कोई भी पत्र नहीं चढ़ रहे थे. चंदन रोली , इलायची दाना और बड़े से दीपक में सरसों का तेल आपके बजट से छोटी या बड़ी चुन्नी बस इतना ही चढ़ावा है यहां, इस महाकाली मंदिर में.

मंदिर के सामने बैठे ढोली भी आपसे कुछ नहीं मांगते सारा दिन ढोल बजाने के एवज में. कोई भीख मांगता नहीं दिखा यहां. कोई साधु सन्यासी यूं ही कहीं पड़े सोए नहीं दिखे मुझे इन दस दिनों में. हर वक्त कानफोड़ू भक्ति संगीत भी नही बजता.ढोली भी भक्तों के चाहने पर ही उनकी पूजा में ढ़ोल बजाते हैं. वो भी मधुर और मद्धम. नदी का स्वर अहर्निश है और सुखद भी.

यात्री भक्तों की दो श्रेणी है. एक जो यहां के लोकल हैं और दूसरे जो केदारनाथ से आ रहे हैं. दोनों ही यात्री अपनी वेशभूषा से पहचाने जा रहे हैं. लोकल लोग बहुत सहज निश्चल भक्ति भाव से आंखें बंद किए हाथ जोड़े मंदिर से बाहर निकलते हैं. इनकी औरतें प्रसाद बांटते गले मिलती खुश होती हैं. शगुन के तौर पर एक दूसरे को चूड़ी सिंदूर भेंट करती हुई गले मिलती हैं. पुरुष उनके साथ साथ मुस्कुराते चलते हैं.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)

केदारनाथ से आने वाले लकदक यात्री. मत्था टेकने में भी हड़बड़ी. महंगे सूट, जैकेट, लोअर पहनी महिलाएं माथे पर चुन्नी, मफलर रखकर हाथ जोड़ती अक्सर हां खुद भी हड़बड़ी में होती हैं. या परिवार वालों, पुरुषों से झिड़की सुन रही होती हैं. यह सारे यात्री नए बने महंगे शीशे वाले ‘स्टे’ से निकलते हैं. जब तक यह मंदिर में माथा टेकते या झुकाते या पूजा ही कराते तब तक इनका सामान उठाने वाले लोग आ चुके होते. सड़क पर इनकी गाड़ियां खड़ी होती इन के इंतजार में.

पुजारियों और यात्रियों के बीच दक्षिणा को लेकर कोई चिक् चिक् नहीं देखा सुना मैंने. कुछ छोटे बच्चे शाम को मंदिर प्रांगण में खेलते हैं जिनकी हंसी और खेलने की आवाज मंदिर के घंटियों की तरह अच्छी लगती है.

मैं बैठी हुई हूँ चुपचाप, पीछे नदी अपने प्रवाह में है, मंदिर और पुल की घंटियां रह-रह के किसी ना किसी यात्री के द्वारा बजाई जा रही हैं. काला कुत्ता जो मुझे हमेशा भैरव मंदिर के सीढ़ियों पर मिलता था और जो अब इसीलिए भैरू है वह भी जाने कब आ कर मेरे पास बैठ गया है. यह अपने आपको मेरा कमांडो समझता है. उसे देखते हुए मुस्कुराती हूँ. भैरु ss उसे बुलाती हूँ और वह उठकर बिल्कुल मेरे पैरों के पास आकर बैठ जाता है. मुझे कुत्तों से प्रेम जैसा नहीं रहा कभी पर यह जाने कैसे तो मेरा प्रेम पात्र बन गया है.

तो मैं और भैरू बैठे हैं लाल बेंच के ऊपर, नीचे और देख रहे हैं. बस देख रहे हैं. शाम हो चुकी है. अब फिर से हल्की फुहारें शुरू हो गई है कि तभी एक बूढ़ी अम्माँ आती हैं मेरे पास. सिर पर सामान ढोने के लिए रखा हुआ कपड़ा अभी भी वैसे ही उनके सिर पर है. चेहरा झुर्रीदार. हथेलियां खुरदरी. सुंदर रही होंगी मैं सोचती हूँ उन्हें देखते हुए.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)

वह भी मुझे यहां कई दिन से देख रही हैं. वे पहली व्यक्ति हैं जिन्हें मेरे यहां अकेले आने और रहने पर हैरत है. मुँह खुला, आंखें फाड़ के अपने मुट्ठी से तर्जनी खड़ी करके पूछा अकेले ही?

जी! मैंने भैरू से खेलते हुए कहा.

फिर उन्होंने घर परिवार, मायका ससुराल की तस्दीक की. मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर एक बार फिर मुझे देखा और

अकेली आई हो यहां इतनी दूर !! उनकी आवाज में कैसा कंपन था हाथों में भी बता नहीं सकती. मैंने उन्हें आश्वस्त किया.

कहां अकेली हूं आप सब भी तो हो यहाँ

डर नहीं लगा तुमको!

कैसा डर !

औरत को अकेले नहीं रहना चाहिए!

औरत हमेशा अकेली ही रहती है अम्माँ!

मैं हंसी थी. पर इस बार जैसे कुछ समझते हुए उन्होंने सिर हिलाया था.

सई कैती हो एकदम सई ..! मैं हंसी और उन्होंने अपनी खुरदुरी हथेलियों से मेरा चेहरा पकड़ा और कुछ देर तक मुझे ऐसे देखती रहीं कि असहजता होने लगी. एक बार फिर सई कहती हो कहा और बेंच पर अपने दोनो हाथ अपने दोनों ओर टिकाये अपना सर नीचा किये बार बार हिलाती रहीं यही कह-कह के. बारिश की फुहारें तेज हो गयीं थीं. हम दोनों स्त्रियाँ उसमें भीगने लगीं, बिल्कुल अकेली…
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)

 जारी…

स्मिता वाजपेयी

बिहार के प.चम्पारन में जन्मी स्मिता वाजपेयी उत्तराखंड को अपना मायका बतलाती हैं. देहरादून से शिक्षा ग्रहण करने वाली स्मिता वाजपेयी का ‘तुम भी तो पुरुष ही हो ईश्वर!’ नाम से काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है. यह लेख स्मिता वाजपेयी के आध्यात्मिक यात्रा वृतांत ‘कालीमठ’ का हिस्सा है. स्मिता वाजपेयी से उनकी ईमेल आईडी (smitanke1@gmail.com) पर सम्पर्क किया जा सकता है.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

पहाड़ों में मत्स्य आखेट

गर्मियों का सीजन शुरू होते ही पहाड़ के गाड़-गधेरों में मछुआरें अक्सर दिखने शुरू हो…

21 hours ago

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जिंदगानी के सफर में हम भी तेरे हमसफ़र हैं

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक भरी उमंग भरी हम…

1 day ago

स्वयं प्रकाश की कहानी: बलि

घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…

2 days ago

सुदर्शन शाह बाड़ाहाट यानि उतरकाशी को बनाना चाहते थे राजधानी

-रामचन्द्र नौटियाल अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा…

2 days ago

उत्तराखण्ड : धधकते जंगल, सुलगते सवाल

-अशोक पाण्डे पहाड़ों में आग धधकी हुई है. अकेले कुमाऊँ में पांच सौ से अधिक…

3 days ago

अब्बू खाँ की बकरी : डॉ. जाकिर हुसैन

हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे.…

3 days ago