तवाघाट से मांगती के बीच सड़क टूटी थी तो हमें तवाघाट से ठाणी धार चढ़कर चौदास होते हुए आगे बढ़ना था. ठाणी की चढ़ाई किसी भी मुसाफिर के सब्र और हिम्मत का पूरा इम्तिहान लेती है. इस धार में कुछ किलोमीटर ऊपर चढ़ने पर बीच में एक मात्र घर है जहाँ के मालिक फैन्तर से पत्थर मार कर बन्दर भगा रहे थे. उन्होंने हमें बिठाया और एक बेहद खूबसूरत और रसीली ककड़ी चीरी. साथ में हरी मिर्च और तिमूर का झम्म नून. Sinla Travelogue Vinod Upreti
इस ककड़ी ने हमारी मुरझाई प्राण शक्ति को जिला दिया. थोडा सुस्ता कर आगे बड़े तो एक बुजर्ग ढलान में उतरते हुए मिले. हमारे साथ लोकेश दा सबसे आगे चल रहे थे. उन्होंने बुजुर्ग से पूछ लिया कि पांगू कितना होगा. बुजुर्ग कुछ देर चुप रहे और आकास को ताकते हुए इशारा कर बोले वो चील दिख रहा है? जहाँ ये उड़ रहा है उससे थोड़ा ही ऊपर जाना है. समझ नहीं आया कि उन्होंने हमें बताया या डराया.
खैर जो भी हो हम खरामा खरामा बढ़ने लगे. आज हमारा पैदल चलने का पहला दिन था और आज ही सबसे कठिन चढ़ाई ने हमारी परीक्षा लेनी शुरू कर दी थी. हम चढ़ाई खत्म कर पांगू के छोर में पंहुचे तो मोटर रोड के किनारे एक चाय के होटलनुमा घर में कुछ देर सुस्ताये. यहाँ से ज्योति पांगू और छिलमा छिलासु होते हुए नारायण आश्रम पंहुचे. यहाँ पहुचते हमें रात हो गयी. रात होते होते लोकेश दा का नया जूता एड़ी में बुरी तरह काटने लगा.
सुबह उठे तो कोहरे के बीच ज्यादा कुछ दिखना मुश्किल था. हम जयकोट गस्कू होते हुए नीचे पांगला की ओर उतरे और सड़क पर पहुचे. यहाँ से हमारा व्यास घाटी का सफ़र शुरू होना था. लेकिन लोकेश दा के जूते ने परेशानी बहुत बड़ा दी थी. अंतत: लोकेश दा ने जूते को पंजे में पूरा पहना और एड़ी में जूता मोड़ ने अन्दर घुसा कर एडी को खुला छोड़ दिया. तस्मे को एड़ी के ऊपर पैर में बाँध लिया और यह बना उनका डेढ़ जूता जिसे दो सौ किलोमीटर से ज्यादा चलना था और साढ़े पांच हजार मीटर की ऊंचाई तक चढ़ना था. Sinla Travelogue Vinod Upreti
इस जूते के साथ हमने मालपा में एक भयंकर नाले को पार किया जिसमें हमारे हाथों से कुछ सामान बह भी गया. अजब नाला था सबसे लम्बे लोकेश दा को तो कमर तक भिगो दिया पर सबसे छोटा मैं बस जांघों तक भीगा. इस जूते के ऊपर जिस व्यक्ति का पैर फिट था वह हमारे सफ़र का अद्भुत साथी था. हिमालय की वनस्पतियों, जंतुओं और जुग्राफिये का तो जानकार था ही, कल्चर का भी गज़ब अध्येता. फौरी तौर पर गुमसुम दिखने वाला एक युवक जिसके पास पहाड़ के जीवन के गहरे हास परिहास से भरे सैकड़ों किस्से कहानियां थी.
इन किस्से कहानियों के साथ हम चौदास की आधी घाटी को पार कर व्यास में दाखिल हो चुके थे. ठाणी की चढ़ाई ने पहले दिन हमने इस कदर तैयार कर दिया था कि हमें व्यास की सबसे कुख्यात छियालेख की चढ़ाई एकदम बचकाना लगी. यहाँ तक कि सिनला भी डेढ़ जूते में पार हो गया. यह सफ़र हमारे लिए हज़ार किस्म की विविधताओं वाला रहा. हमने किसी दिन गर्ब्यांग से गूंजी का आसान सा हिस्सा पार किया तो किसी दिन नाभीढांग से कुटी तक का लंबा और थकाऊ हिस्सा. कभी हम करबे के बुग्याल में कोहरे के चलते बुरी तरह भटके तो कभी आईटीबीपी की पोस्ट में बहुत खट्टे अनुभव से गुजरे.
इस पूरे सफ़र में लोकेश दा के अद्भुत किस्से, जबरदस्त सेन्स ऑफ़ ह्यूमर और हर स्थिति के साथ मेल खाती कोई शानदार कहानी होती. उनके साथ-चलते चलते हम कम से कम पचास किस्म के पौधों को पहचानना तो सीख ही गए.
व्यांस घाटी में अनेक कहानियों को संजो कर हमने पंद्रह अगस्त के दूसरे दिन सिनला को पार किया और हमें मान सिंह ने ऐसी जगह पर छोड़ा जहाँ से आगे जाने का कोई रास्ता हमें सूझ नहीं रहा था. हम सब इस घाटी में नये थे. हमने इतना पता था कि हमने बेदांग में आईटीबीपी कैम्प में पंहुचना है. हमारे एक साथी को बहुत तेज सर दर्द हो रहा था और रास्ते के नाम पर हमारे सामने थी तेज ढलान वाले मलवे की नदी.
हमने धीरे-धीरे उसमें उतरना शुरू किया. पैर टखनों तक धंस रहे थे. किस तरफ जाएँ यह भी समझना कठिन था. लेकिन हम सावधानी से उतरते चले गए. सौ मीटर के लगभग उतरे तो कुछ निशान जमीन में दिखे. साफ़ दिख रहा था कि जूतों के निशान थे. उनकी लीक पकड़ कर चलने लगे तो कुछ देर में ठोस जमीन पर आ पंहुचे.
हमारे बराबर में बांयी ओर बेदांग का अद्भुत ग्लेशियर था जो ऊपर से देखने पर बड़े-बड़े खड्डों, तालों और दरारों से भरा हुआ था लेकिन यह ग्लेशियर अभी तक देखे ग्लेशियरों से बिलकुल अलग था यह अपने पास की जमीन से ऊंचा उठा ग्लेशियर है. इसके किनारे पंहुचे तो हमारा एक साथी चित पड़ गया. दर्द निवारक भी काम न आया. एलेक्ट्रोल आर ग्लूकोज के पानी ने कुछ राहत पंहुचायी तो हम आगे बड़े. Sinla Travelogue Vinod Upreti
रास्ते में एक झुण्ड भेड़ों का दिखा जिसके ठीक ऊपर एक हिमालयन जैकाल घात लगाए घूम रहा था. कैम्प में पंहुचे तो कुछ दवाई और दाल भात मिल गया. यहाँ कुछ देर सुस्ताये और आगे के सफर की योजना बनायी. संसाधनों और समय की कमी से कारण दावे की और जाना रद्द किया और दारमा में नीचे उतरने की ठानी. हमारी आज की मंजिल थी तिदांग. वह गाँव जहाँ पर दावे से आने वाली धर्म गंगा और सिपू की ओर से आने वाली लसर यांगती मिलाकर धौली बनाते हैं.
आज का सफ़र अच्छा ख़ासा थकाने वाला हो रहा था. बेदांग से तिदांग आने तक धर्म गंगा के किनारे बहुत ही सुन्दर और न भूलने वाले नज़ारे देखे. कहीं भोज के घने जंगल तो कहीं हरे तप्पड और उनमे शान से चरते झुपू. बेदांग के पास तवाघाट 90 किलोमीटर लिखा हुआ पत्थर मिला जो कुछ किलोमीटर के बाद हमें बचे हुए रास्ते की लम्बाई बता रहा था.
एक जगह पर आकर हम ऐसे दोराहे पर रुके जहां से एक रास्ता धौली के बांये सीधा गो तक जा रहा था और दूसरा धर्म गंगा को पार करने के बाद फिर लसर यांगती के दांये छोर में तिदांग तक. हमने तिदांग का रास्ता पकड़ा. धर्म गंगा का पुल पार किया और सुबह का बचा आलू पूरी ठिकाने लगाया. शाम ढलने लगी थी. छ: लोगों का झुण्ड लसर यांगती के पुल को पार कर तिदांग में आ पंहुचा था. अब हमने कहाँ जाना है, कहाँ रात बितानी है और कहाँ हमें भोजन मिलेगा इसका कोई अता पता नहीं था. लेकिन हमारे पंहुचने तक लोकेश दा एक आदमी से दोस्ती गाँठ चुके थे.
कल पंद्रह अगस्त थी और हम बकरी की बोटियों के लिए लड़ते कुछ लोगों को देख अपसेट थे. आज हम ऎसी जगह थे जहाँ हमारे लिए घर और दिल के दरवाजे खुले थे और हम चूल्हे के चारों और बैठे परात भर कर आई पुदीने की पकौड़ियाँ जीम रहे थे. घर का स्वामी कुछ कह तो रहा था लेकिन हममें से कोई भी शायद ही समझ पा रहा हो. दरवाजे के बाहर हमारे जूते खुले थे. उनमें कहीं एक वह डेढ़ जोड़ी जूता भी था जिसमें डेढ़ घाटियाँ पार कर ली थी और अब दारमा में गुलाबी खेतों के बीच इसने कुछ दिन और चलना था. व्यास से हम कितनी ही अद्भुत कहानियां लेकर आये थे और साथ में लाये थे एक बेटे का अपनी माँ के लिए भेजा एक लिफाफा. अब देखना यह था कि लिफाफे में क्या निकलता है. Sinla Travelogue Vinod Upreti
पिछली कड़ी : सिनला की चढ़ाई और सात थाली भात
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पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
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