बच्ची अपने नेपाली गीतों में ही खोई हुई थी. तभी मेरे मित्र डी.एस.कुटियालजी आते दिखे. मैं उनकी ओर लपक लिया. वह तब बागेश्वर में वायरलेस विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर थे. मैंने उन्हें बताया था कि इस बार मैं अपने साथियों के साथ व्यास-दारमा घाटी में आ रहा हूं. वह हमारा इंतजार कर रहे थे. चाय के बाद उन्होंने गांव में घूमने का आग्रह किया और हम अपना सामान वहीं छोड़ उनके साथ हो लिए. गांव की बाखलियों से होते हुए हम उनके पुश्तैनी मकान में पहुंचे. इस बार वह अपने मकान की मरम्मत के लिए लंबी छुट्टियां लेकर आए थे. मकान की हालत ठीक नहीं थी और घर में भी कोई नहीं था. इस पर कुटियालजी हमें गांव की ग्रामप्रधान रसमा कुटियाल के वहां ले गए. रास्ते में उन्होंने हमें गांव के पंचायतघर में रहने को कहा लेकिन तब तक हमारी गज्जूभाई से उसके पास में ही घर में रहने की बात हो चुकी थी. (Sin La Pass Trek 14)
पचास का दशक पार कर चुकी रसमा कुटियाल के चेहरे में हमें देखते ही एक आत्मीय मुस्कान उभर आई. व्यास, दारमा, जोहार आदि क्षेत्रों में अतिथि का स्वागत घर में बनी मदिरा-चकती (जाण) या छांग आदि से करने की परंपरा रही है. कुटियालजी और प्रधानजी की आपसी बातों से मुझे यह समझ में आया तो हम सभी बोल उठे कि चकती फिर कभी. फिलहाल यहां की चाय पीने का मन है.
रसमा कुटियाल एक जागरूक महिला थीं. बातचीत में वह हमें कुटी का इतिहास भी बताती जा रही थीं- ‘ कुटी नदी को यहां कुटी मांगती के साथ ही काली नदी के नाम से पुकारा जाता है. सामने ‘गालथांग’ यानि सिनला पास है. पहले इस रास्ते से भी दारमा को आना-जाना लगा रहता था. चीन की पम्पा, यरपा, ज्ञानिमा आदि मंडियां हुआ करती थीं, जहां दोनों देशों के व्यापारी कारोबार करते थे. वहां जाते वक्त लम्पिया व मकस्यंग दर्रों को पार करना पड़ता था. भारत की सीमा में निरकुच मंडी में भी काफी व्यापार होता था. लेकिन 1962 की लड़ाई के बाद सब बंद हो गया.
1990 में एक बार फिर से व्यापार के लिए लिपुलेख को खोला गया. लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं रही.’ गांव के पीछे की ओर इशारा कर उन्होंने बताया कि, ‘इस कुटी पर्वत के बगल में गंधारी दर्रे से एक रास्ता तिब्बत को जाता है. हमारे दादाजी लोग किस्से सुनाया करते थे कि एक बार किसी महिला के बच्चे के इस मार्ग में गिर जाने से मौत हो गई तो उसने इस रास्ते को श्राप दे दिया, तब से यह रास्ता बंद हो गया है.’ उनके किस्से मानो इतिहास और मिथकों का उलझा हुआ मिश्रण थे.
पुरानी यादों में डूबी हुई वह बता रही थीं- ‘पहले हम गांववाले बर्फबारी से बचने के लिए धारचूला में चार महीने के लिए चले जाते थे. अब तो यहां कम और नीचे धारचूला में ही ज्यादा रहना होता है. धारचूला में 1950 के बाद लोगों का गांव छोड़कर बसना शुरू हुआ जो अब तक जारी है. धारचूला में कुटियाल और गर्ब्याल खेड़ा हम लोगों के ही हुए. जब रजवारों का राज चलता था तब हम उन्हें टैक्स दिया करते थे. होने को तो हमारी कर्मभूमि यह व्यास घाटी ही हुई लेकिन अब रिश्तों की जड़ें मुनस्यारी, दारमा, चौंदास के साथ गढ़वाल तक फैल गई हैं. यहां व्यासघाटी में ‘रं’ कल्याण संस्था कई काम कर रही है.’
रसमा कुटियालजी के पास किस्सों का खजाना भरा पड़ा था. अंधेरा घिरने को आया तो उनसे इजाजत मांगी. कुटियालजी एक बार फिर हमारे साथ गज्जू के घर तक आ गए. कुछ देर ठहर वह हमसे विदा ले नीचे गांव को चले गए. हमने गज्जू से फाफर की रोटी के बावत पूछा तो उसने अपनी पत्नी से रं भाषा में कुछ कहा और बोला- ‘आप लोग कमरे में चलें खाना वहीं बनेगा.’
गज्जू के दोमंजिले मकान की सीढ़ियां चढ़कर अंदर गए तो मकान उनका भी मरम्मत की मांग करता दिखा. एक कमरे को हमने अपना आशियाना बना लिया. मैटरस, स्लीपिंग बैग से हमने बिस्तर तैयार कर लिया. कुछ देर बाद गज्जू भी ढाबे में सबको खाना खिला कमरे में आ गया. चाख के बीच बने चूल्हे में हरी सब्जी बना दी गई. बच्ची थककर सोने लगी तो उसे दूध पिलाया गया. उनींदे से उसने आधा-अधूरा दूध पिया. (Sin La Pass Trek 14)
एक परात में फाफर को गीलाकर चूल्हे में तवा चढ़ा. उसमें फाफर के घोल से रोटीनुमा आकार बना मजेदार रोटियां बननी शुरू हुई. हम सब उन्हें यह सब करते देखते रहे. गज्जू ने थालियां निकाल सब्जी परोसी और एक-एककर फाफर की गर्मागर्म रोटियां देनी शुरू कर दीं. हरी सब्जी के साथ उन रोटियों का स्वाद अद्भुत लगा. उस वक्त चाख में खाना खाते वक्त उस परिवार के प्रेम को सिर्फ महसूस ही किया जा सकता था. उनके व्यवहार से कहीं से भी यह नहीं लग रहा था कि कहीं दूर से कुछ अपरिचित लोग उनके घर में आए हैं.
खाना खा हम अपने बिस्तरों में घुस गए. जल्द ही नींद की थपकी हमें मिल गई. सुबह सिर में कुछ टकराने पर टार्च लगाकर देखा तो पाया कि मांस की अनगिनत लड़ियां टंगी हुई थीं. दरअसल उच्च हिमालयी क्षेत्र छः महिने बर्फ से ढके रहते हैं और तब खाने के लिए यहां के वाशिंदे अपने लिए सूखा मीट और अन्य साधन जुटाकर रखते हैं ताकि ठंडे महीनों में कोई दिक्कत न हो. अब ज्यादातर परिवार जाड़ों में नीचे धारचूला चले जाते हैं लेकिन सूखा मांस रखने की उनके पुरखों की यह परंपरा आज तक भी जिंदा है.
गज्जू भाई ने सिर्फ खाने के ही पैसे लिए तो हम भी अपने पास से हल्दीराम की मिठाई का डिब्बा चुपचाप उनके चूल्हे के पास छोड़ आए. उनसे विदा लेकर हम आगे ज्यौलिंगकांग की ओर बढ़ चले. गांव के छोर में आईटीबीपी के कैंप में भी अपने आगमन की सूचना दर्ज कराई. संजय के रकसेक का बोझ मुझे तेज चलने नहीं दे रहा था. सभी मुझे पीछे छोड़ काफी आगे निकल गए थे. (Sin La Pass Trek 14)
जारी…
– बागेश्वर से केशव भट्ट
पिछली क़िस्त: हिमालय की तरह विशाल हृदय वाले होते हैं वहां रहने वाले लोग
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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