समाज

सिलोर का शिव मंदिर और प्राचीन शिलाओं से निर्मित नौले

तीन साल पहले सहधर्मिणी व बच्चों को अपना मकोट और बच्चों का बुड़ मकोट दिखाकर लाया था. आज फिर मन में अचानक मकोट की पुरानी यादें आ गई तो चला गया. हिनौला बाजार से लगभग एक किलोमीटर के पैदल रास्ते से सिलोर के नौहले में पहुंचा, नर्मदेश्वर महादेव मन्दिर में जलाभिषेक, सीस नवाकर शिवलिंग पर पुष्प चढ़ाएं. छोटे से शिव मंदिर के साथ में नौला देखकर पानी पीने की इच्छा हुई, जैसे ही नौले की तरफ़ बढ़ा तो मां की वह पुरानी बात याद आ गई.
(Silor Shiv Mandir Anand Dhyani)

इजा और मैं सिलोर नौले में बने शिवमंदिर को प्रणाम करते हुऐ आगे बढ़ते थे. इजा ने अपने दोनों हाथों की अंजली से या फिर तिमिल के पत्तों का पतखुच (दौना) बनाकर नौले से पानी निकालकर पीना हुआ. मुझे इस नौले का पानी पीने के लिए सख्त मनाही थी, तो मैं मकोट पहुंचकर ही पानी पिया करता था. घर में भी इसी नौले का पानी इस्तमाल होता था. मुझे इजा कहती थी कि तू मकोट पहुंचने के कुछ देर बाद ही पानी पीना. लेकिन इजा ने खुद नौले में से पानी निकालकर जरूर पीना हुआ. जैसे ही इजा नौले का पानी पीती थी, ठीक कुछ ही समय के बाद से उन्हें छींक पर छींक आनी शुरू हो जाती थी. तब इजा बड़े भावुक होकर कहती थी-

म्यर मैतक पाणी मिफरि जै लागन, जबकि जन्म बटी मल य नहोईक पाणि पी

बस यही कारण था कि बर्फ जैसे ठंडे पानी को नौले से एकदम निकालकर पीने के लिए इजा मुझे मना करती थी. लेकिन मैं तो नानछिना से ही जिद्दी आदमी ठैरा. जिद येसी कि पत्थर की लकीर, जो खींच दी, सो खींच दी फिर चाहे लगे सिसोड़ या कनपट्टी पर चांटा. गाल में चांटा पड़े तो दृश्य होता था जैसे कोई न्यौली गा रहा हो. न्यौली भी ऐसी की गला फट जाए लेकिन वेदना के साथ लय काफी समय तक निरंतर चल रहा होता था. एक हाथ नौहले में और एक हाथ गाल पर. सिसोड़ लगने के बाद का नृत्य ऐसा होता था जैसे कत्थक नृत्य चल रहा हो. कत्थक नृत्य भी ऐसा, कि न रोड़े दिखे राह पर और न पत्थर, बस 160 अंश का कोण बनाकर दोनों हाथों से थिरकन के साथ मलते हुए नृत्य करते रहो.

तब अपने गांव रिक्वासी से मकोट तक पूरा पैदल का रास्ता हुआ करता था. पैदल चलते चलते मुझे भी प्यास लगती थी, तो मैं भी कभी जिद्द करके पानी पी लेता और फिर जो होता था वह आज भी नहीं भूला हूं. तब इजा कहती थी- मल पैलियै कै कि य ठंड पाणिंल तिकें ठन लागी जालि, तू य पाणि कैं न पी, तू मानन निछे. मतलब- मैंने तुझे इस बर्फीले पानी को पीने के लिए पहले ही मना किया, कि इस ठंडे पानी को एकदम पीने से तुझे जुखाम हो जायेगा इसलिए तू यह पानी मत पी और एक तू है कि मानता ही नहीं. मां तो मां हुई, मां से अधिक ममतामयी कौन है इस जगत में.

नौहले से तीन खेत ऊपर मकोट (कालीगांव-सिलोर) के घर शुरू हो जाते हैं, पुराने तिबारीघर को आधुनिक सीमेंट और कंक्रीट से निर्मित देखा, तो पुरानी हस्तकला से संजोए काष्ठ कलाकृति से निर्मित तीन दरवाजों की तिबारी (तीन दरवाजों वाला मकान) का दृश्य आखों के सामने प्रकट हो गया. जिसका स्वरूप आज बिल्कुल बदल चुका है. बचपन में इसी तिबारी में मामाजी बैठे रहते थे और साथ में छुट्टियों में घर आए फौजी सूबेदार भाई के साथ पूरा दिन इसी तिबारी में बीत जाता था. अब न मामा जी रहे और न हीं पुरानी वह तिबारी रही. स्वादिष्ट बेडु रोटी के साथ कटोरा भर के घी देने वाली पूज्यनीय मामीजी भी स्वर्ग सिधार गई, लेकिन मकोट पहुंचते ही स्मृतिपटल पर पूरानी यादें फिर से लौट आई. वह पुराने चौखटों पर अद्भुत नक्कासी के तीन दरवाजे की तिबारी की याद आज भी ताजा है. तिबारी के एक दरवाजे से बाहर निकलकर तीसरे दरवाजे से अंदर घुस जाना, लुका छुपी का खेल, मकोट में मामा-मामी, ममेरे भाई का प्यार दुलार, मन में आज भी मकोट पहुंचते ही बचपन की सारी पुरानी यादें ताजा हो गईं और मुझे स्वयं में ऐसा आभास हो रहा है जैसे थोड़ी देर के लिए मेरा बचपन फिर से लौट आया हो.

मकोट की पुरानी चहल-पहल अब सिमट सी गई है. तिबारी के अलावा एक कतार में बने पांच खनों वाले मकान में पूरानी नक्काशी वाले चौखट, मलखन, तलखन, चाख वाले घरों की हालत भी ठीक नहीं है, जिनमें से दो खन तो पूरी तरह टूट गए हैं. तिबारी का ढांचा भी पूरी तरह बदल गया. आज वहां पहुंचने का मकसद था कि मकोट के लोगों से मिला जाय. वहां पहुंचकर विचार बना कि गांव के बड़े बुजुर्गों को मिला जाय और गांव के मन्दिर, महाकाली, देवीथान, कुल देवता थान, करगेत का नौला और करगेत बद्रीनाथ मन्दिर के दर्शन किए जाएं, जिससे मेरी बचपन की यादें एकदम ताजा हो जाएं.
(Silor Shiv Mandir Anand Dhyani)

मकोट कालीगांव में दो नौले हैं एक का वर्णन मेरे बचपन की मीठी यादों के साथ पहले हो चुका है. दूसरा नौला ठीक नर्मदेश्वर महादेव मन्दिर के नीचे थोड़ी दूरी पर है जो झाड़ियों के बीच में है और मुख्य रास्ते से थोड़ा हटकर है. ये दोनों नौलों की वाह्य आकृति में अब काफी बदलाव हो गया है लेकिन जलकुंड में ज्यादा छेड़छाड़ नहीं हुई है.

ये दोनों नौले के जलकुंड प्राचीन विशेष पत्थरों से निर्मित हैं. लम्बे-लम्बे शिलानुमा गोल और चपट्टे पत्थरों से नौले के पानी के कुण्ड बने हैं. जिन पत्थरों, शिलाओं से ये नौले निर्मित हैं वह शिलाएं कहीं आस पास नजर नहीं आते हैं. मन में कुछ नवीन हलचल सी हुई कि शायद इन्हीं शिलाओं के कारण इस स्थान का नाम सिलोर पड़ा होगा? कुछ लोग यह भी कहते हैं कि इस जगह घाम (धूप) कम समय तक रहती है, इसलिए इसे सिलोर या सिलोड़ कहते हैं. लेकिन यह कथन इस नामकरण के लिए मुझे उपयुक्त नहीं लगता. नौले की विशेष शिलायें, साथ में शिव का स्थान होने से लगता है कि इन्हीं शिलाओं के आधार पर इस स्थान का नामकरण हुआ होगा “सिलोर”.

सिलोर के ये दोनों नौले अवश्य कत्यूरी कालीन नौले हैं. क्योंकि नज़दीक हिनौला बाजार से थोड़ी दूरी पर “धामध्य”, ‘धामध्यौ’ नाम से एक जगह है. यह भी कत्यूरी राजा धामदेव के नाम और घर का एक साथ उच्चारण करते हुऐ कुमाऊंनी बोली का एक शब्द बन जाता है. धाम + ध्य = धामदेव का घर. पहाड़ कुमाऊँ में घर का पर्यायवाची शब्द “ध्य” और ‘ध्यौ’ होता है. यहां पर पानी भी है. यहां पर प्राचीन काल से धारे के रुप में पानी है. कुछ वर्षों पहले तक यहां पर नौले या धारे के अवशेष भी थे. उस जगह को आज भी “धामध्य” या “धामध्यौ” के नाम से ही जाना जाता है. साथ में हिनौला बाजार में झूले के बगल में धामदेव देवता का मंदिर है. जिसमें धामदेव देवता अपने घोड़े पर सवार हैं. एक हाथ में ढाल और एक हाथ में तलवार लिए हैं. धामदेव भी सूर्यवंशी कत्यूर राजा थे. मान्यता ही नहीं सत्य है कि इन्हीं देवता को यह हिनौला भी चढ़ाया गया है. धामदेव देवता और हिनौला की विस्तृत जानकारी के लिऐ आप मेरे पिछले लेख को पढ़ सकते हैं. जिसका लिंक नीचे दिया जा रहा है-

मेरा मकोट कालीगांव का नाम कालीगांव क्यूं पड़ा इसके पीछे भी ठोस प्रमाण ढूंढने की ज़रूरत है. मां पार्वती का एक रूप काली भी है. महाकाली को पहाड़ में “काईका” शब्द के उच्चारण से पुकारा जाता है और कालीगांव का ‘काईगौं’ या “काईगुं” नाम से कुमाऊनी बोली में उच्चारण किया जाता है. ‘काईगौं’ या ‘काईगुं’ को पृथक किया जाए तो काईगौं का कुमाऊनी संधि विच्छेद काई+गौं , काई= काली और गौं = गांव होता है.
(Silor Shiv Mandir Anand Dhyani)

देवभूमि के इस गांव के नामकरण को रक्तबीज के वध के कालखण्ड से भी जोड़ा जा सकता है. जब वरदानी दानव रक्तबीज के अत्याचार से सभी देवता परेशान हो गए थे तो वे महादेव के पास रक्तबीज का विनाश कैसे हो ? समाधान के लिऐ पहुंचे. लेकिन रक्तबीज को वरदान था कि उसकी मृत्यु सिर्फ जननी (स्त्री) के हाथों ही संभव है. जगतजननी माता पार्वती को रक्तबीज का वध करने के लिए काली का रौद्र रुप धारण करना पड़ा. जब रक्तबीज को काली मां द्वारा मारने का घटनाक्रम देवभूमि में चला होगा, तो हो सकता है कि इस क्षेत्र का भी इससे कुछ संबध अवश्य रहा हो. माता पार्वती अपना रौद्र रुप धारण कर काली बनी तो रक्तबीज का वध करती है और काली मां का रौद्र रूप इतना विकराल हो जाता है कि वह स्वयं को भूल जाती है. यहां तक कि भगवान शिव की छाती पर अपना पैर रख देती हैं. हमारे ग्रंथों में महाकाली को महाकाल का नारीकृत रूप भी माना जाता है और शिव ही काली का रूप धारण करते हैं.

सिलोर, कालीगांव का कत्यूरी कालीन नौला

नौहले की विशेष शिलाएं भी इस बात की सत्यता की ओर इशारा करती है कि नौहले की प्राचीन शिलाएं भी शिव रुप में ही हैं, क्यूंकि इस तरह के पत्थर यहां आस पास और कहीं नज़र नहीं आते हैं. जैसा मैंने पहले भी कहा है. जहां-जहां इस तरह की शिलाएं हैं वहां शिव स्वयं विराजमान हैं. इस तरह की शिलाओं को पहाडी बोली में ‘ल्वड’ कहते हैं और ‘ल्वड’ को प्राचीन से ही समस्त पृथ्वीलोक में शिवलिंग का प्रतीक माना गया है. शिव भी है और काली भी. शिला ‘ल्वड’ से शिव, शिलाओं ‘शिला’ से सिलोर और काली से कालीगांव ‘काईगौं’ या ‘काईगुं’ आज का नवीनतम ज्ञान का विषय रहा और मकोट की याद का दिन. साथ में गांव के बड़े बुजुर्ग लोगों से मिलना हुआ जिनकी मदद से यह नवीन ज्ञान का लघु लेख संभव हो पाया.

नौले में शिव तो पहले से ही प्रकाशमान हैं लेकिन यह छोटा सा मंदिर लगभग पचास साल पहले पण्डित लोकमणि बालोदी जी की प्रेरणा से श्री शंकरदत्त घिल्डियाल जी ने बनवाया था. इस मंदिर में नर्मदेश्वर महादेव, नेमीसारण से लाया गया अंगुष्टक लिंग प्रकाशमान है जिसमें चंद्राकार सफेद प्राकृतिक निशान है. गांव के सबसे ऊपर दुर्गा मां का मन्दिर है जो स्वयं महाकाली का रूप है. महाकाली यहां साक्षात प्रकाशमान है.
(Silor Shiv Mandir Anand Dhyani)

नज़दीक गांव करगेत का नौला भी इन्हीं शिलाओं से निर्मित है. कालीगांव और करगेत दोनों की ग्राम पंचायत एक ही है. कालीगांव में ब्राह्मण परिवार रहते हैं जिनमें घिल्डियाल, सत्यवली, मौलेखी, ध्यानी लोग रहते हैं. करगेत में करगेती, ध्यानी, जोशी, घनश्याला, काला, झुन्याल लोग रहते हैं. झुन्याल अब अपने नाम के आगे शर्मा लिखते हैं. इनके अलावा कुछ अन्य बिरादरी के परिवार भी करगेत गांव में निवास करते हैं.

यहां चन्द वंश के राजाओं का भी रहना हुआ, इतिहास इसका गवाह है. करगेत गांव का बद्रीनाथ मंदिर उन्हीं के द्वारा निर्मित है जिसे चन्द वंश के पचासवें राजा बाज बहादुर चन्द ने सोलहवीं शताब्दी में बनवाया था. यह मंदिर आज भी हमारी प्राचीन धरोहरों के रूप में विद्यमान और प्रकाशमान है. जो क्षेत्र के अन्य भव्य मंदिरों से एकदम अलग है. इस मंदिर के पुजारी करगेत गांव के ध्यानी लोग हैं. पुराने श्रीबद्रीनाथ मंदिर का कुछ ही साल पहले सौंद्रीयकरण हुआ है.

मंदिर का सौंदर्यीकरण कराने वाले सभी सुझाव कर्ताओं, विद्वतजनों की सराहना करनी होगी कि उन्होंने सोच समझकर इस मन्दिर की पुरानी नक्काशी को बिल्कुल भी नुकसान नहीं होने दिया, जो भविष्य में आने वाली पीढ़ी के लिए भी एक उदाहरण पेश करता है कि प्राचीन धरोहरों का स्वरूप ठीक उसी तरह रखा जाए जिससे हमारी पुरातन संस्कृति के अवशेष बचे रहें. क्षेत्र में बहुत सारे प्राचीन मंदिर, नौले दिखाई देते हैं जिनका आधुनिक समाज ने जीर्णोधार, सौंद्रीयकरण तो काबिले तारीफ किया है, लेकिन दुखद कि हम अपनी प्राचीन संस्कृति से निर्मित मंदिर, नौले, घरों की पुरानी बेजोड़ शिल्पकला, मनमोहक कलाकृति से निर्मित धरोहरों को बचाने में विफल हो रहे हैं.

आज समाज में प्राचीन धरोहरों के सौंद्रीयकरण करने की होड़ सी चल पड़ी है, जिससे प्राचीन धरोहरों को नुकसान हो रहा है. यहां तक कि कहीं कहीं तो उनके अवशेष तक दिखाई नहीं देते हैं, जो चिंताजनक है. पूर्वजों ने जिस स्थान को जो नाम दिया था, उसके पीछे कुछ न कुछ सत्य घटना अवश्य है. उन्होंने इन घटनाओं का जिक्र अपने ज्ञान के अनुरूप पीढ़ी दर पीढ़ी कहानियों, दंतकथा के माध्यम से आगे बढ़ाया है. हमें जिन स्थानों के नाम पूर्वजों द्वारा विरासत में मिले, उसी के अनुरूप आज भी उन स्थानों को उसी नाम से हम पुकारते हैं, लेकिन इन धरोहर रूपी देव स्थलों के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व से आधुनिक पीढ़ी कम परिचित है, या यूं कहें कि दिन प्रतिदिन इन्हें भूलती जा रही है. जिससे हमारी प्राचीन सभ्यता के प्रतीक चिन्ह और उनके प्राचीन महत्त्व के साथ संस्कृति को भी धीरे-धीरे नुकसान हो रहा है.
(Silor Shiv Mandir Anand Dhyani)

-आनन्द ध्यानी

मूल रूप से सल्ट, अल्मोड़ा के रहने वाले आनन्द ध्यानी वर्तमान में दिल्ली में रहते हैं. आनन्द ध्यानी से उनकी ईमेल आईडी anandbdhyani.author@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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