अपने पितरों के प्रति श्रद्धा का पर्व है श्राद्ध. श्राद्धम वा पितृयज्ञ: स्यात (कात्यायन स्मृति) अर्थात पितृयज्ञ का नाम ही श्राद्ध है. प्राणी स्थूल देह है और जीव चेतन और सूक्ष्म .कोषात्मक विश्लेषण के अनुसार यह शरीर अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय पांच प्रकार का है. स्थूल पंचमहाभूतों से संयुक्त होकर जीव का प्रकट होना ही “जन्म” है. और इन सब से वियुक्त होकर परलोक गमन ही “मृत्यु ” है. शास्त्रों का कथन है कि प्राणी स्थूल देह को छोड़कर जब जीवात्मा पृथक होता है तब भी वह स्थूल पंचमहाभूत और स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोड़कर शेष सत्रह तत्वों से बने सूक्ष्म शरीर से संबद्ध रहता है
देह का यह आवागमन और जीवात्मा से संबंधित विवेचनाएं अपने गूढ़ रहस्यों के साथ आज भी जारी हैं.
लौकिक मान्यताओं की बात करें तो हम श्राद्ध पक्ष को बड़ी ही आस्था के साथ मनाते हैं. वस्तुतः श्राद्ध श्रद्धा का ही अक्षरार्थ है. प्रश्न उठता है कि क्या जो भी पूजा, अर्चन श्रद्धा के साथ किया जाए उसे क्या श्राद्ध कहना उचित होगा. एक पुत्र अपने माता-पिता और गुरुजनों की सेवा भी श्रद्धा पूर्वक करता है तो क्या उसका नाम भी श्राद्ध होगा? मंतव्य भले ही भक्ति भावना हो श्रद्धा हो, आस्था हो लेकिन वास्तव में बहुत से शब्द अभिधार्थ के अनुसार व्यापक होते हुए भी लाक्षणिक रूप से प्रयुक्त किए जाते हैं. श्राद्ध शब्द को भी उसी अभिप्राय से लेना चाहिए.
यह पितृविद्या वैदिक विधान है जो प्राचीन वैदिक विद्याओं में अन्यतम है. पाश्चात्य विद्वान भी भारतीय ग्रंथों में पितृविद्या से प्रभावित होकर नवीन अनुभवों के साथ ऐसी विद्याओं के अन्वेषण में लगातार प्रयत्नशील है.
इसलिए इस श्राद्ध पर्व को अपने पितरों के प्रति आस्था के रूप में देखा जाना चाहिए. यह एक स्मृति पर्व भी है अपने पितरों के पक्ष में.
कवि पार्थसारथि डबराल के शब्दों में-
यहां रेशमी बन्ध तन बांध पाये
मगर आज तक वे न, मन बांध पाये.
मृतक देह तो अर्थियां बांध सकती
मगर प्राण को कब कफन बांध पाये.
प्रबोध उनियाल पत्रकार व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.
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