हिंदी के कथाकारों में शेखर जोशी बड़ा नाम हैं. आपसी संबंध, आंचलिकता और पर्वतीय जीवन से सरोबार उनकी कहानियां दुनियाभर में पसंद की जाती हैं. अल्मोड़ा के ओलिया गांव में जन्में शेखर जोशी की कहानियों में पहाड़ के अनुभव और अनुभूतियों को भीतर तक महसूस किया जा सकता है. दाज्यू, बदबू, कोसी का घटवार, मेंटल, नौरंगी बीमार है जैसी कालजयी कहानियां लिखने वाले शेखर जोशी का आज जन्म दिन है. पढ़िये आज उनकी कहानी ‘किस्सागो’ का एक अंश : संपादक
(Shekhar Joshi Story Kissago)
बहादुर का किस्सा सबसे अधिक रोमांचक होता था. कंधे पर कंबल और बसूला रखकर वह सुबह ही खा-पीकर घर से निकल पड़ता. वह मटधार की रेंज में चीड़ के पेड़ों से लीसा निकालने के लिए तने को छीलकर टिन की पत्ती लगाने का काम जंगलात विभाग से लिया करता था.
मटधार की पूरी रेंज घने जंगल की थी. वहाँ दिन में भी अँधेरा रहता था. कांकड़ और घुरड़ का शिकार करने कभी-कभार कोई शिकारी उधर भले ही चला जाए लेकिन सामान्य रूप से चरवाहे भी अपने ढोरों को लेकर उधर नहीं जाते थे. वैशाख-जेठ में जब नज़दीक की पहाड़ियों में घास खत्म हो जाती तभी वे लोग इधर का रुख करते.
बहादुर को मालूम रहता कि जंगल के किस फाट में बाघ अपना डेरा जमाए है और किस फाट में पत्तियों की फिसलन उन दिनों ज़्यादा हो रही है. अगले दिन की योजना बनाने के उद्देश्य से ग्वालों द्वारा पूछे जाने पर बहादुर को मौक़ा मिल जाता –
पल्ली फाट में कल डुडाट-फुफाट कर रहा था. लेकिन उसकी आवाज मुझे थोड़ा फ़र्क लगी. लगता है, अब वे छोटेवाले भी जवान हो गए हैं. वही होगा, जिसे मैंने पकड़ा था.
तुमने पकड़ा था? बाघिन ने तुम्हें चीरा नहीं?
(Shekhar Joshi Story Kissago)
चीर देती तो यहाँ बैठा होता? अरे, वह कहीं शिकार की तलाश में गई होगी. वे दो-तीन बिल्ली के-से बच्चे पाथर पर पसरे थे. मैं उधर से गुजरा तो मेरी नजर पड़ी. मैं और नज़दीक गया. न हिले, न डुले. मैंने सोचा एक को उठाकर घर ले चलूँ, बच्चे खेलेंगे. मैंने एक को गोदी में उठा लिया और तेजी से घर को ओर लौट पड़ा. बड़े पाथर तक आ गया था, तभी पीछे से उसकी माँ का डुडाट सुनाई दिया. बच्चों ने बता दिया होगा या उसके कलेजे ने जान लिया होगा. माँ तो माँ होती है-जैसा मानुख वैसा पशु. सूंघते-ढूंघते आ गई.
मैं झटपट काफल के पेड़ पर चढ़ गया. बच्चे को मैंने छोड़ा नहीं, काँख में दबाकर ही ऊपर चढ़ गया था. वह आकर ऐन पेड़ के नीचे खड़ी हो गई. फिर गुस्से में गरजने लगी. उसने मुझे ऊपर देख लिया होगा. ले छलाँग पर छलाँग मारने लगी. मैं और ऊपर चढ़ गया. फिर क्या करता! शाम हो रही थी. मैंने दोनों हाथों से पकड़कर उसे बच्चा दिखलाया और कहा –
ले ईजा, ले जा अपने पोथिल को. और भक्क से नीचे गिरा दिया. वाह रे माया! उसने लप्प से लपककर बच्चे को रोक लिया और थोड़ी देर तक उसे चाटती-पलासती रही. फिर मुँह में दबाकर वापस जंगल की ओर चली गई. जब ऊपर डाँडे से उसकी डुडाट फिर सुनाई दी तो मैं पेड़ से उतरा और घर लौट आया. डाँडे पर पहुँचकर वह अपने दोनों बच्चों को बुला रही होगी.
(Shekhar Joshi Story Kissago)
बुबु का सिर थोड़ा-थोड़ा हिलता – फिर कभी नहीं दिखी वह बाघिन?
दिखी क्यों नहीं, छिड़ से पानी पीकर जा रही थी. मैं पल्ली धार में छिलान कर रहा था. मैंने उसे देखा, उसने मुझे देखा. मैंने कहा-जा ईजा, जा! तेरे पोथिल भुकान होंगे. मुझे क्या गौस दिखा रही है? मैं तो उसे लाड कर रहा था. जैसा तेरा पोथिल वैसे मेरे पोथिल. चार दिन उसके साथ खेलते, उसे दूध-घी खिलाते, फिर मैं यहीं छोड़ जाता. गाय-बकरियों के बीच बाघ की औलाद को रखकर मुझे अपना गोठ तो नहीं उजाड़ना था.
बुबु थोड़ा-सा सिर उठाकर हाथ की लकड़ी से ठीठों को सरकाने लगते.
(Shekhar Joshi Story Kissago)
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