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शान्ति बुआ की अन्तिम यात्रा

-चन्द्रकला

सालों बाद शान्ति बुआ को ट्रेन में देखा तो मन के भीतर दुख का एहसास गहरा गया. उसके कमजोर शरीर को देखकर साफ समझ आ रहा था किसी गम्भीर बीमारी से ग्रसित है. लेकिन इतने के बाद भी बुआ के सफेद बालों के बीच सिन्दूर की लाली मौजूद थी. बुआ के भाई ने कुछ देर बात करने के बाद बताया था कि उनकी दोनों किडनी खराब हो चुकी हैं. बुआ बेसुध पड़ी थी इसलिए उससे कोई बात नहीं ही हो पाई. अपनी बर्थ पर आकर मैं भले ही लेट गयी लेकिन बुआ का पूरा जीवन ही चलचित्र की भांति आंखों के सामने घूमने लगा. (Story by Chandrkala)

शान्ति बुआ के तीन बड़े भाई थे, एक दीदी, जो 14 साल की उम्र ब्याह दी गई थी. सबसे छोटी हुई बुआ. बड़े दो भाई काम की तलाश में बहुत पहले ही बम्बई चले गये थे, लेकिन छोटा भाई बुआ के ब्याह के समय घर पर ही था. कुछ दिन बाद वह भी चला गया. पहाड़ से नीचे उतरकर ही कुछ काम मिल पाता है, पहाड़ में रहकर पूरा जीवन को चलाने का सहारा कहां मिल पाता है. उनकी दीदी की तरह ही बुआ की ईजा ने कम उम्र में ही शान्ति बुआ को भी ब्याह दिया.

बुआ के बाबू मन्दिर के पुजारी थे. पूजा.पाठ से जितना मिलाए मन्दिर का जो चढ़ावा हुआए उसी से गृहस्थी चलती थी. अधिकतर खेत उपराऊँ ही थे, उनमें कुछ खास नहीं होता था. लेकिन फिर भी पण्डित जी ने अपनी सामर्थ्य के हिसाब से दो पहाड़ी पार के गांव में बुआ का भी लगन कर दिया था.  दूल्हा लखनऊ में किसी सेठ की दुकान में मुंशीगिरी का काम करता थाए परिवार पालने लायक कमा ही लेता था. गांव वाले बताते थे कि बुआ के सौरास में खेती-बाड़ी अच्छी है और लिन्टर वाला मकान है, इतना तो उन दिनों बहुत माना जाता था पहाड़ में. 15 साल की थी बुआ, जब ब्याह दी गयी थी.

ऐसा नहीं था कि खेत के काम में कच्ची थी वह. माँ के साथ सब काम किया था उसने होश सम्हालते ही. लेकिन 15 साल की ही तो थीए घर-गृहस्थी की समझ और दुनियादारी की अक्ल तो धीरे-धीरे ही आती है. शादी के बाद बुआ दुर्कूण करने आयी थी तो चेहरे पर खुशी नहीं दिखी थी बुआ के. हां सजी-धजी, माथे की लाल बिन्दी, सीधी मांग में भरे गहरे सिन्दूर, चूड़ियों से भरे हाथ, गुलाबी साड़ी के ऊपर रंगवाली पिछौडे़ से ढकी खूबसूरत दिख रही थी बुआ और उसका दूल्हा भी अच्छा ही लग रहा था. रात को सत्यनारायण की कथा हुई, अगले दिन वह पति के साथ ससुराल को चली गयी. आमतौर पर दुर्कूण के बाद खुशी-खुशी ही जाती हैं लड़कियां सौरास को, लेकिन शान्ति बुआ सौरास जाते वक्त बहुत रोई थी उस दिन.

अभी उनकी की शादी को कुछ ही दिन हुए थे, हम खेतों में घास काट रहे थे. तभी देखा कि बुआ कन्धे में एक छोटा सा झोला लटकाये, दौड़-दौड़ कर उकाव चढ़ रही है. बिखरे बाल और अस्त-व्यस्त कपड़ों में इस तरह उनका आना कुछ अजीब लगा हमें. एक-दूसरे को देखते हुए कुछ बोलते उससे पहले ही हिरुली चाची बड़बड़ाने लगी चेलियो जरूर कोई बात हुई होगी, नहीं तो शान्ती अकेली क्यों आती. हम भी खेतों को फांद कर पहुंच गये थे रास्ते में, हमें देखकर दूर से ही बुआ इतना तेज़ रोई कि पहाड़ से टकराकर आवाज़ वापस आ गयी थी. हम बच्चे थे तब, हमें कुछ समझ में नहीं आया लेकिन आज समझ आता है.

शाम को गांव में बुआ के ससुराल से भाग आने की खूब चर्चा थी. एक औरत बोली कितना बान दूल्हा है, घर-बार भी अच्छा हैं. आजकल की लड़कियों को थोड़ा सा भी सब्र नहीं है, किसी ने कुछ कहा, बुरा मान जाती हैं. बौल करने वाली तो हुई ही शान्ति, लेकिन चिहड़ी हुई तो छोटी ही न, क्या पता सास-सौर ने क्या कहा हो फिर जिठानी और उसके बच्चे भी तो हुए घर में. दूसरी भौजी बोलीए अरे दीदी, तुम अपने दिन भूल गये, सौरास जैसा भी हो सहना तो सभी कुछ हुआ. उस उम्र में हम मैत चले गये होते तो हमारी क्या हालत होती आज. ब्याह के बाद मायके वाले कहां पूछते हैं लड़की को, जितना भी कष्ट हो, रहना तो ससुराल में ही पड़ता है. बुआ की ईजा रोते हुए काम भी करती जा रही थी और उसको गाली भी देती जा रही थी. भाई और बाबू किसी भी तरह सही बुआ को ससुराल छोड़ आने पर विचार कर रहे थे. लेकिन बुआ अन्दर खिड़की के किनारे बैठकर चुपचाप आंसू बहा रही थी, जाने क्या चल रहा था बुआ के मन में. अगले दिन बुआ को वापस ससुराल जाने के लिए मना लिया गया था. रोते-रोते बुआ ऐसे जा रही थी जैसे कोई धक्का मारकर ले जा रहा हो. उन दिनों पैदल ही जाना होता था सब जगह.

रास्ते में पड़ने वाली दुकान से भाई ने मिठाई और कुछ अन्य सामान रख लिया था अपने झोले में. ससुराल के गांव की चढ़ाई चढ़ते हुए उसने भाई से कहा, ‘दाज्यू मैं नहीं खा पाऊँगी इस घर में.’ कहना तो बहुत कुछ चाहती थी वह, लेकिन बोल नहीं पाई, मन के भाव आंसुओं में ही अटक कर रह गये उसके. भाई क्या समझता उसके मन को, वैसे वह भी बहुत बड़ा तो था नहीं. ‘कुछ दिन में सब ठीक हो जायेगाए’ कहते हुए भाई ने अपने कदम और तेज कर दिये. उसको रात तक वापस अपने घर भी तो पहुंचना था. गांव शुरू होने से पहले उसने घूंघट कर लिया. ससुराल पंहुचकर भाई ने सबके हाथ जोड़े और यह कहते हुए बैठ गया कि अभी छोटी है, नादान है, धीरे-धीरे सब समझ जायेगी. गर्दन झुकाए अपनी गठरी लेकर वह अन्दर चली गयी और जेठानी के साथ काम में लग गयी.

उसकी परेशानी घर और जंगल का काम नहीं था, इसकी तो बचपन से ही आदत हो जाती है पहाड़ की लड़कियों को. वह तो पति के शराब पीने और उसके साथ पत्नी की तरह व्यवहार न करने से परेशान थी. पति ने घर वालों के दबाव में आकर शादी तो कर ली थी, लेकिन वह अब बुआ पर लगातार मायके वापस जाने का दबाव बना रहा था. वास्तव में वह पढ़ी-लिखी शहरी बीबी चाहता था, जबकि बुआ एकदम अनपढ़ और सीधी-सादी पहाड़ी, नादान सी लड़की थी. जिठानी और सास इस पर क्या ध्यान देते उनको तो काम के लिए एक और हाथ मिल गया था. जेठजी फौजी थे, शादी के तुरन्त बाद वह बार्डर पर चले गये. ससुर जी बूढ़े थे, उनको दो समय का खाना और चाय दे दी तो वो उसी में खुश हो जाते थे. कुछ दिन रहकर बुआ का पति वापस लखनऊ चला गया था. पीछे छोड़ गया था बुआ को, जिसको अब इस आस में ससुराल में ही रहना था कि कभी तो पति अपनाएगा और सब ठीक हो जायेगा.

दिन बीतने के साथ ही उसके चेहरे पर उदासी स्थाई रहने लगी, सब यही सोचते कि मैत की या फिर पति की याद आती होगी. तभी तो साथ की औरतें उसे समझातीं और वह सुनती, ‘हम औरतों को तो कष्ट सहने की आदत डालनी ही पड़ती है शान्ति, पति तो परदेशी ही होते हैं. पहले-पहले निसास लगता है, धीरे-धीरे आदत पड़ जाती है. इसी के सहारे तो पहाड़ का पहाड़ सा जीवन अपने कन्धों पर ढोते गुजारना होता है हम पहाड़ की औरतों को.’ अपनी परेशानी किसी बताने के बजाय शान्ति ने खुद को खेतए जंगल और जानवरों के काम में झोंक दिया था. कई बार ससुर बेटे को लिख चुके थे कि घर आकर ब्वारी को अपने साथ ले जायेए लेकिन पीताम्बर का इस मामले में कोई आशाजनक उत्तर नहीं आता था.

धीरे-धीरे चार साल बीत गये, इस दौरान एक-दो बार पीताम्बर घर आया भी तो उसके व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया. बाद के दिनों में तो लगभग बन्द सा ही हो गया था उसका घर आना. बेटे के घर ना आने पर घर वाले परेशान तो रहते लेकिन उनको भी काम प्यारा था, बहू के बरबाद होते जीवन के बारे में वे सोचते भी तो क्या? जब पति ही मतलब नहीं रखता तो किसी अन्य से क्या उम्मीद की जा सकती थी.

कुछ समय बाद जेठ जी जिठानी और अपने बच्चों को अपने साथ ले गये उसके बाद से तो ससुराल के सारे कामों का बोझ बुआ पर ही आ गया. बस एक बार ही दो दिन के लिए मैत आई थी वह अपने भाइयों की शादी में. उसके बाद से न मैत वालों ने बुलाया और ना ससुराल वालों ने ही भेजा. हाँ, चैत के महीने में भिटौली में एक गुड़ की भेली और धोती जरूर किसी न किसी के हाथ हर साल आती रही थी, यही मैत की कुशलबात और खुशी थी उसके लिए.

वह जंगल में घास-लकड़ी लेने जाती तो अपने दुख को गीतों में पिरो कर डांडों-कांडों को सुनाती. देवदार और बांज के पेड़ों को छू कर बहती सरसराती हवा उसको दिलासा देती और पक्षी उसके सुरों में अपने सुर मिलाते. अब तो उसकी साथिन घसियारिनें उसके दुःख को समझने लगी थीं. लेकिन पति की बेरूखी, ससुराल की दुत्कार और मायके वालों के तिरस्कार को तो वे कम नहीं कर सकती थीं. कभी खूब चहकने वाली बुआ अब भीतर से चुप हो गई थी. उसकी रुलाई तभी फूटती जब किसी लड़की का ब्याह होता या फिर कोई बहू अपने मैत से खुश होकर आती.

एक साल दीपावली में पीताम्बर घर आया तो इतने साल बाद भी उसकी निगाहें उम्मीद से उठी थीं पति की ओर. माँ के कपड़ों के साथ उसके लिए भी एक धोती लाया था. धोती देखकर तो बुआ को लगने लगा कि अब पति का व्यवहार बदल जायेगा. लेकिन रात को घर में जो हुआ, उसने वर्षों से पाली उम्मीद को एक पल में खतम कर दिया. ससुर जी और पति दोनों बैठकी में बातचीत कर रहे थे, पहले तो स्वर धीमा था लेकिन धीरे-धीरे आवाज में तेजी आने लगी. अचानक ससुर जी की ऊंची आवाज़ चूल्हे तक सुनाई दी और पीताम्बर बिना कुछ बोले घर से निकलकर चचेरे भाई के घर चला गया.

सास ने बाहर आकर ससुर जी से पूछा कि क्या हो गया पीताम्बर पर क्यों चिल्ला रहे हो, कहां चला गया वह? तो ससुर जी ने बताया कि पीताम्बर ने लखनऊ में शादी कर रखी है, अब वह अपने बीबी-बच्चों को घर में लाना चाहता है. और यह भी कि वह ब्वारी से कोई मतलब नहीं रखना चाहता. देहली के अन्दर बैठी बुआ के कानों में जब यह शब्द पड़े तो गरम तरल की तरह वह उसके कलेजे में बहने लगे. रात को पीताम्बर घर नहीं आया, बुआ ने सास-ससुर को खाना खिलाया और खुद वह चूल्हे में राख होती लकड़ियों को ताकती रही थी देर तक.

सुबह पीताम्बर झोला उठाने घर आया तो माँ ने उससे पूछा, ‘तू चाहता क्या है? आखिर इस लड़की का जीवन क्यों बरबाद कर रहा है.’ तब बिदकते हुए पीताम्बर बोलाए ‘मैंने तो उसी समय मना किया था शादी करने को, तुम दोनों ने और भाई ने मिलकर जबरदस्ती की मेरे साथ. अब मैं इस गंवार और अनपढ़ से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता, इसको यहां रखो या मैत भेजो ये तुम्हारी मरजी.’ ‘तब तेरी जुबान कहां गई थी, क्यों दुल्हा बना? तभी मुंह खोल लेता तो ये नौबत तो नहीं आती, आखिर ब्वारी की क्या गलती, तूने तो इसके साथ ही हमें भी कहीं का नहीं छोड़ा.’ पिता कातर स्वर में बोले. लेकिन बेटा उनकी बात को अनसुना करके सीधे निकल गया.

शान्ति अनपढ़, गंवार ही सही लेकिन इतना तो वह भी समझती ही थी कि किसी से जबरदस्ती नहीं की जा सकती. लेकिन उसका जीवन? अभी वह इस सच को समझ पाती कि उसका पति हमेशा के लिए जा चुका है, तब तक सास के चिल्लाने की आवाज आ गई, ‘थोड़ा भी ख्याल होता पति का तो अभी तक खाना बना देती, बिना खाये गया मेरा बेटा. अब यहीं खड़ी रहेगी कि खरक जाकर दूध निकालेगी और जानवरों को जंगल लगाकर आयेगी?’ सास ने बेटे का सारा गुस्सा ब्वारी पर निकाल दिया.

पति का साथ मिल जायेगा इस आस के सहारे सब दुःख.तकलीफ सहती रही थी वह आज तक, लेकिन आज पहली बार वह खुद को अपमानित महसूस कर रही थी. सर झुकाए अन्दर से दूध की बाल्टी और चैकर की पतीली सिर पर रखकर, आँखों के आंसू पलकों में थामे वह खरक की ओर चल दी. खरक और घर की दूरी आज बहुत लम्बी हो गई थी, लग रहा था कि जीवन का फैसला करने का वक्त आ चुका है. खरक पहुंचकर उसने गाय का दूध निकाला, जंगल के लिए जानवर खोले, गोबर साफ किया. दूध की बाल्टी उठाकर पड़ोस की लक्ष्मी भौजी के पास देने गई यह कहते हुए कि जानवरों को जंगल भेज कर आती हूँ. भौजी को कौन सा फुरसत थी बुआ के मुंह को देखने की, उसने भी गोठ से गोबर निकालते हुए दूध की बाल्टी दीवार पर रखने को कह दिया.

गांव के जानवर अभी पहाड़ की चोटी से उतरे नहीं थे, इसलिए उसने तेज़ कदम बढ़ाकर अपने जानवरों को उस झुण्ड से मिला दिया. अन्तिम जानवर के पयों की पहाड़ी पार करने तक वह उनको देखती रही. फिर देवदार के पेड़ के नीचे इत्मीनान से बैठ गई, ऐसा लग रहा था जैसे आज उसको वापस जाने की कोई चिन्ता ही नहीं है. उंची पहाड़ी पर बैठकर नीचे बहती रामगंगा की आवाज उसके मन के तूफान को बढ़ा रही थी. अब उसके सामने दो ही रास्ते थे या तो सीधे नदी में समा जाये या मैत वापस जाये. तीसरा कोई रास्ता उसे नहीं सूझ रहा था. कल शाम से ही वह भूखी-प्यासी थी, सूरज पहाड़ी से ढलकने को तैयार था और अब गला भी सूखने लगा था. अन्ततः उसके कदम, धीमी गति से मैत की ओर बढ़ गये.

शाम को मैत पहुंची तो ईजा-बाबू ने उसके आने पर खूब खरी-खोटी सुनाई. ईजा वापस जाने के लिए कह रही थी. लेकिन अब वह लड़की नहीं 21 साल की औरत थी, जो ससुराल के अपमान और दुःख को न झेलने का फैसला करके हमेशा के लिए मैत रहने आई थी. सालों से मन में दबा ज्वालामुखी फूट पड़ा, ‘तुमने पहले ही बिना सोचे समझे मुझे उस आदमी से ब्याह दिया जो पहले ही ब्याहता था. अब मैं वापस वहां नहीं जाऊंगी. नौकरानी बनकर रहना है तो तुम लोगों के पास ही रहूंगी, नहीं रखना चाहते हो तो अभी जाकर नदी में फाव लगा लेती हूँ सबको शान्ति हो जायेगी.’ दोनों बेटी का ऐसा रूप देखकर चुप हो गये. पिता को तो बेटी के पहली बार ससुराल से भाग कर आने पर ही लग गया था कि बिना देखे-भाले जल्दबाजी में लड़की की शादी करके उन्होंने गलती कर दी है. मां भी तो बेटी के दुख को समझती थी, लेकिन दुःख को छुपाना जानती थी वह.

शान्ति के भाइयों को उसके ससुराल से वापस आने की जानकारी मिली तो उन्होंने नाराज़गी जताई. लेकिन पिता अब जबरदस्ती नहीं करना चाहते थे. वैसे भी तीनों ब्वारियां लड़कों के साथ चली गयी थीं, लड़की यहां रहकर कम से कम उनकी सेवा तो करेगी. यही सोच कर उन्होंने बुआ को कुछ न कहने में ही भलाई समझी. उनके बाबू बीमार तो थे ही, बुआ के दुःख ने उनको ऐसा जकड़ा कि वे उस दुःख से उबर ही नहीं पाये और चल बसे. तीनों भाई परिवार सहित आये थे पिता की क्रियाकर्म पर, लेकिन बुआ को सारे घर का काम सम्हालते देखा तो किसी के कुछ कहने की हिम्मत नहीं रही. दिन भर काम करते हुए वह थकती तो थी लेकिन कभी किसी को जताती नहीं थी. उसको लेकर घर के भीतर चल रही कानाफूसी पर भी वह ध्यान नही नहीं देती थी. तेरवहीं के बाद धीरे-धीरे भाई और सभी रिश्तेदार वापस चले गये और घर में बच गई थी बुआ और उसकी ईजा. समय चलता रहा आमा ने बुढ़ापे और बीमारियों में कदम रखा और उनकी आंखों की रोशनी बहुत कम हो गई. अब घर-बाहर, जंगल, खेत, डंगर सभी का काम शान्ति के ही हिस्से आ गया.

पहाड़ में चौमास के झड़ पड़े हों तो, खेतों में घास की कमी नहीं होती लेकिन उसको काटकर लाना आसान नहीं होता है, बांज के जंगल में, पैरों में कद्या लग जाये तो फिर पूरे ह्यून भर रहती है. उस पर बर्फ पड़ जाये तो जिन्दगी और भी कठिन हो जाती है पहाड़ों पर. घास के लिए जंगल जाना और जानवरों का गोबर निकालना ही पड़ता है. कुछ दिनों के लिए पर्यटक या प्रवासी बनकर पहाड़ आने वालों को बर्फ से ढकी चोटियां, यहां की आबोहवा और यहां का जीवन भले ही स्वर्ग के समान लगता हो. कैमरे की नजर से, सर या पीठ पर घास ढोती सरल और खूबसूरत औरतों और पहाड़ की सुन्दरता चित्रों में भले ही मोहक लगती हो. लेकिन यहां की कठिन परिस्थितियां और दूर से दिखने वाली इस खूबसूरती के बीच रहने वालों के जीवन के कितने बदसूरत पहलू हैं. वह पहाड़ की गरीब बूढ़ी, विधवा और परित्यक्ता औरतों के जीवन से समझा जा सकता है.

बुआ सुबह नहाने-धोने के बाद मांग में सिन्दूर भरना कभी नहीं भूलती थी. हाथ की लाल चूड़ियां और मंगलसूत्र के मनके कम नहीं हुए बुआ के और ना ही माथे की बिन्दी ही कभी छोटी हुई उसकी. वह उस रीत को आगे बढ़ाती रही कि जब तक पति जिन्दा है, कहीं भी हो, कैसा भी हो उसकी दीर्घायु के लिए पत्नी को सजना होता है. आज जिन्दगी के अंतिम पड़ाव में भी वह अपने नियम को भूली नहीं है.

आमा और बुआ के जीवन में शहर से आये भाइयों के परिवार का प्रवेश जितनी तेजी से होता, उतनी ही तेजी से पहाड़ की आउटिंग का मजा़ लेकर जाना भी हो जाता. कभी-कभी मनिआर्डर आ जाता था उनका, जिससे कि माँ-बेटी का खर्चा चल जाता था. गांव की औरतें आमा और बुआ की वक्त जरूरत मदद करती थीं और व्रत-त्यौहारों में बुआ को नेग देकर सम्मान भी करतीं. अक्सर माँ-बेटी में अबोला हो जाता था तो तब महीनों सिर्फ दीये की रोशनी घर में इन्सान के होने का आभास देती. ऐसे समय में मेहमानों के आने पर ही वहां बोल सुनाई पड़ते थे. तब आमा खुश होकर अपने धुएं और धूल से चीकट हो गए बक्से में से मिश्री, पुरानी बाल मिठाई, टूटे बिस्कुट के टुकडे़, टॉफी के अवशेष ढूंढकर हर किसी को खाने को देती. भले ही उसको यह पता ही नहीं होता कि उसके बक्से में क्या-क्या रखा है. जिन्दगी चलती रही और एक दिन आमा का बूढ़ा शरीर भी बुआ का साथ छोड़ गया और बुआ अकेली हो गयी. चार बकरियां, एक गाय और बछिया ही बुआ के साथी थे, जिनसे वह अपने मन की बातें कर पाती थी. गांव से दूर पड़ने वाले के खेत बांज न रहें, इसलिए दूसरे परिवारों को दे दिये. उन खेतों में जो भी उग जाता थाए उसका कुछ अंश बुआ को भी दे देते थे. लेकिन बुआ की जिन्दगी के कष्ट खतम नहीं हुए थे. शरीर में होने वाले दर्द में लगातार दुकान से हरे पत्ते की दवा खाने से बुआ की किडनी खराब हो गई थी.

बुआ की बीमारी और उनके भाई के दिल्ली ले जाने की खबर तो पता लग गई थी, लेकिन बुआ को इस हाल में देखूंगी सोचा नहीं था. सुबह रामनगर स्टेशन में साथ ही उतरे थे हम तीनों. बुआ ने जब देखा तो प्यार से सर पर हाथ फेर दिया था, कुछ बोली नहीं थी वह. हम तीनों रेल से उतरकर बस अड्डे तक ऑटो से चले गये, यहां से पहाड़ के लिए बस पकड़नी थी. बस लगी नहीं थी इसलिए बुआ को ढाबे की बेंच में लेटाकर उनके भाई बाहर को निकल गए. उनके गालों पर लुढ़क आये आंसुओं को देखकर मैं अपने आंसू भी नहीं रोक पायी. यह सोचकर कि उस औरत का क्या जीवन है जिसके जीवन की डोर हमेशा आदमी के हाथों में होती है.

अचानकर बुआ बड़बड़ाने लगी थी, उसके शब्द मुश्किल से निकल पा रहे थे, ‘बेटी गांव वापस जाने से तो अच्छा होता यहीं प्राण छूट जाते.’ अभी बुआ की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि तीन-चार आदमी ढाबे के अन्दर आ गए. जाने क्यों ये चेहरे जाने-पहचाने से लगेए बुआ भी शायद उनको पहचान रही थी. लेकिन रात भर रेल में नींद नहीं आने से उसकी आंखें बन्द हो रही थी या फिर उनको देखना नहीं चाहती थी. ‘देख बैणी कौन आया तुझे लेने?’ कहते हुए उनके भाई बुआ के पास आ खड़े हुए. चौंकते हुए उसने आंखें खोली, मुझे भी विश्वास नहीं हो रहा था कि आखिर यह आदमी यहां क्या कर रहा है. तभी एक जीप वहां आकर खड़ी हुई और ड्राइवर आवाज लगाने लगाए ‘पीताम्बर दा! अभी कितनी देर है? बुआ कभी अपने पति को देख रही थी, कभी भाई को.

लग रहा था कि भाई और पति के बीच यहां आने से पहले ही बातचीत हो गई होगी, जिसकी जानकारी बुआ को नहीं दी गई. मुझे भी अब समझ आ रहा था कि बीमारी की इस हालत में दिल्ली से बुआ को वापस गांव क्यों लाया गया. बुआ के तीनों भाई अच्छा कमाते थे, चाहते तो उसका ईलाज करवा सकते थे. पीताम्बर के समय पर आ जाने से बुआ के भाई का चेहर में सुकून साफ दिख रहा था. वह यहां से वापस जाने की तैयारी में आया था. बुआ को उठाते हुए उसने कहा, ‘देख बैणी, इतने साल में ही सही अब तुझे पीताम्बर लेने आया है इसीलिए तुझे इसके साथ भेज रहा हूँ. अब गांव में अकेले रहना तेरे बस का नहीं है. इसके बच्चे तेरी सेवा करेंगे और तेरा ख्याल रखेंगे.’ बुआ को भाई के इस तरह वापस ले आने से पहले से ही दुखी थी, लेकिन मरते समय उस आदमी को सौंप देगा, जिसके कारण उसकी जिन्दगी बरबाद हुई उसने सोचा नहीं था. भाई का अपनी जिम्मेदारी से बचना तो बुआ को समझ ही आ रहा था, अब यह भी समझ आ गया कि पति को भाई ने ही बुलाया है. जीते जी जिस आदमी ने एक बार भी बुआ की तरफ मुंह उठाकर नहीं देखा, अब वह इस बेजान शरीर को ले जाने क्यों आया होगा भला? मेरा दिमाग घूम गया.

सारा जीवन बुआ ने अपनी ईजा-बाबू की देखभाल में लगायाए रात देखा न दिन इनकी ही तो घर-कुड़ी सम्हाली ठहरी, खेतों को हरा-भरा रखा और उसकी कीमत भाइयों ने यह दी कि दुत्कार और अपमान देने वाले आदमी को ही उसको सौंप दिया. बुआ तो पहले ही सोच रही थी कि यहीं प्राण-पखेरू उड़ जाते तो उसका जन्म सफल हो जाता, शायद उसको एहसास हो गया हो? लेकिन औरत की इच्छा कब पूरी हुई जो आज होती. बुआ के असहाय शरीर को देखकर मुझे रोना आ गया, बुआ अब चाहकर भी प्रतिकार नहीं कर सकती थी. भाई और पीताम्बर ने सहारा देकर बुआ को जीप में बैठा दिया. भाई के आंखों की नमी को बुआ भी महसूस कर रही थी लेकिन आहत मन का विरोध वह दबा नहीं पाई और अपना मुंह फेर लिया. मैंने भी बुआ के साथ ही गांव तक जाने का फैसला किया.

सौरास के दरवाजे तक गाड़ी चली गई थी अब बुआ के. पीताम्बर गाड़ी से उतारकर बुआ को देहली के भीतर ले आया. बुआ के आंसू रुक ही नहीं रहे थे. ये पीड़ा के थे या तसल्ली के, कहा नहीं जा सकता था. चाख में ही उसके लिए बिस्तर लगा दिया गया था. इधर मैं अपने घर को चली गई उधर बेसुध बुआ की स्मृति में अतीत के दृश्य बनने-बिगड़ने लगे और वह अचेत हो गयी. गांव के लोग बुआ को देखने आ रहे थे, लेकिन वे बेखबर थी. बुआ के उम्र की अधिकांश औरतें आईं, सभी के जवानी के दिनों के सुख-दुख ताजा हो गए थे शायद बुआ को देखकर. मुश्किल से चार दिन और बच पाई थी बुआए लेकिन इन चार दिनों में ही पति. सौत और उसके बच्चों ने भरपूर सेवा की उसकी. पांचवें दिन रात को सोई तो फिर सुबह उठी ही नहीं बुआ. पीताम्बर के साथ ही पूरे परिवार और बिरादरी ने सुकून की सांस ली थी. आखिर उसके क्रियाकर्म की तैयारी करने के लिए परिवार सहित सभी गांव वाले जुट गए.

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अन्तिम यात्रा के लिए बुआ को सुहागिन की तरह तैयार किया गया. पीताम्बर के बड़े लड़के को अग्नि देने और कोड़े पर बिठाने के लिए शहर से बुला लिया गया. मुझे जानकारी मिल गई थी कि बुआ के भाइयों और पीताम्बर के बीच बातचीत के बाद ही बुआ के ससुराल भेजने का निर्णय हुआ था. पीताम्बर बुआ को बीमारी की इस हालात में वापस घर लाने के लिए इस डर से तैयार हुआ था कि मरने के बाद परिवार के किसी सदस्य को बुआ की अतृप्त आत्मा कोई नुकसान न पहुंचाए. आज भी पहाड़ों में यह मान्यता है कि यदि पूरे विधि-विधान से घर से निकाली या दुत्कार दी गई महिलाओं का क्रियाकर्म नहीं किया जाता है तो वह भूत या आत्मा बनकर पूरे परिवार को पीढ़ियों तक परेशान करती रहती हैं. बुआ के शहरी भाइयों ने मिलकर पहाड़ की झूठी रूढ़ियों का जो दांव फेंका था वह सही जगह लग गया था. शान्ति बुआ ने अपनी पूरी जिन्दगी मायके के खेत और गांवों को आबाद करने में गुजार दी इस आस से कि यहां उसको मरने के बाद एक मुटठी जमीन नसीब हो जायेगी. लेकिन पितृसत्ता जो न कराये वह कम है.

बुआ ने पूरी जिन्दगी जो अपमान और दुख सहे क्या मृत्यु के समय किए गए आडम्बरों से उसकी भरपाई की जा सकती है? बुआ अकेली नहीं है पहाड़ों में कितनी ही ऐसी औरतें रहती हैं, जिनके एकाकीपन और उनके दुख को जाने बिना पहाड़ की कठिनाइयों का समझा नहीं जा सकता है. कितनी औरतों के हिस्से ऐसे कष्ट आते हैं. जब दुःखों से पार पाना मुश्किल हो जाता है तो कोई नदी में कूद जाती है तो कोई फांसी लगाकर अपना जीवन खत्म कर लेती है, कितनी माई बनकर सांसारिक जीवन का ही त्याग कर देती हैं तो कितनी ही ससुराल व मायके वालों की प्रताड़नाओं और उपेक्षाओं से तिल-तिल कर मरने को मजबूर होती हैं. लेकिन जीते जी उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता है. जब किसी परिवार पर विपदा आती है तब इन बहुओं और लड़कियों को अतृप्त आत्मा की याद सभी को आ जाती है. जगरिये-डंगरिये नचाये जाते हैं और मरने के बाद इनके लिए वह सभी कुछ करने और देने को लिए परिवार वाले तैयार हो जाते हैं जिसके लिए वे जीते जी तड़पती रहती हैं.

लेकिन क्या कभी कोई यह समझ पायेगा कि जीवन भर जिस बुआ ने इतने कष्ट सहे, तब कभी किसी को परेशान करने के बजाय वह खुशी ही देती रही. मरने के बाद भला कैसे किसी का अहित कर सकती है? 

लोकभाषा के शब्दों के अर्थ

दुर्कूण : ब्याह के बाद पहली बार लड़की का पति के साथ मायके आना
उकाव् : चढ़ाई
चैलियों : लड़कियों
बान : सुन्दर
बौल : मेहनत
चिहड़ी : प्यार से कमजो़र लड़की के लिए सम्बोधन
निसास : उदास होना, विरह
भिटौली : साल में एक बार ब्याहता लड़की को दिया जाने वाला नेग
खरख : घर से दूर, अधिक जानवरों को रखने का बाड़ा
गोठ : पहाड़ी घरों का निचला हिस्सा; जानवरों का बाड़ा
ईजा-बाबू : माता-पिता
फ़ाव : कूदना
चौमास : बरसात का मौसम
कद्या : लगातार पानी में रहने पर पैरों की अगुंलियों के मध्य होने वाले घाव
ह्यून : सर्दी का मौसम
चाख : बैठकी
कोड़े : अन्तिम क्रिया कर्म का एक अनुष्ठान

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन करने वाली चन्द्रकला उत्तराखंड के विभिन्न आन्दोलनों में भी सक्रिय हैं.
संपर्क : chandra.dehradun@gmail.com +91-7830491584

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Sudhir Kumar

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  • ,दिल को छू लेने वाली मर्मान्तक कहानी। कथाकार प्रेमचंद की तरह का लेखन।मर्मस्पर्शी चित्रण। धन्यवाद।

  • लेखिका को हार्दिक शुभकामनाएं,पहाड़ की अबला नारी की विडंबना का सजीव चित्रण किया है।

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अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

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पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago