शमशेर सिंह बिष्ट ठेठ पहाड़ी थे. उत्तराखंड के पहाड़ी ग्राम्य जीवन का एक खुरदुरा, ठोस और स्थिर व्यक्तित्व. जल, जंगल और ज़मीन को किसी नारे या मुहावरे की तरह नहीं बल्कि एक प्रखर सच्चाई की तरह जीता हुआ. शमशेर सिंह बिष्ट इसलिए भी याद आते रहेंगे कि उन्होंने पहाड़ के जनसंघर्षों के बीच खुद को जिस तरह खपाया और लंबी बीमारी से अशक्त हो जाने से पहले तक जिस तरह सक्रियतावादी बने रहे, वह दुर्लभ है. यह उनकी संघर्ष चेतना ही नहीं उनकी जिजीविषा और पहाड़ के प्रति उनके अटूट लगाव का भी प्रमाण है. कुछ वर्ष पूर्व हिमालय दिवस पर उनकी एक टिप्पणी पढ़िये : संपादक
(Shamsher Singh Bisht on Himalayn Day)
‘‘आज हिमाल तुमन कैं धत्यूंछ, जागो-जागो हो मेरा लाल’’ यह गीत गिरदा ने 28 नवम्बर 1977 को पहली बार नैनीताल में गाया था, जब वहां शैले हॉल में चल रही जंगलों की नीलामी का आन्दोलनकारियों द्वारा विरोध किया जा रहा था. मूलतः यह कुमाउनी कवि गौरीदत्त पांडे ‘गौर्दा’ की 1926 में लिखी ‘वृक्षन को विलाप’ कविता है, जिसमें एक वृक्ष मनुष्य से निवेदन करता है कि वह मनुष्य को इतना कुछ देकर उस पर उपकार कर रहा है, अतः मनुष्य भी उस पर अत्याचार न करे.
वन आंदोलन और नशा नहीं रोजगार दो आदि तमाम आंदोलनों में गिर्दा द्वारा लगातार इसे संशोधित किए जाने और इसमें नये-नये छन्द जोड़ कर सड़कों पर गाये जाने से यह सम्पूर्ण हिमालयी समाज का आत्मनिवेदन बन गया. 1994 में जब राज्य आंदोलन अपने चरम पर था, उत्तराखंड की जनता अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती हुई अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिये एक छोटे से राज्य की माँग कर रही थी. तब आंदोलन की वास्तविक जानकारी देने के लिए ‘नैनीताल समाचार’ के द्वारा चलाये गये ‘सांध्यकालीन उत्तराखण्ड बुलेटिन’ का यह शीर्षक गीत बना. पूरे उत्तराखण्ड की आकांक्षाओं को इसने सांस्कृतिक अभिव्यक्ति दी.
इसके मुखड़े का आशय है कि आज हिमालय तुम्हें जगा रहा है कि मेरे लाड़लों जागो, मेरी नीलामी मत होने दो, मेरा हलाल मत होने दो. यह मूलतः संघर्ष का गीत है, जिसमें सर्वशक्तिमान हिमालय प्रमाद में पड़ी अपनी संतानों को झकझोर रहा है. यहाँ कहीं पर हिमालय गिड़गिड़ाता नहीं दिखता है, वह कमजोर नहीं पड़ता. याद रखने की बात है कि उत्तराखण्ड में चले विभिन्न जनान्दोलनों को सांस्कृतिक अभिव्यक्ति देने वाले गीतों में हमेशा संघर्ष का स्वर प्रमुख रहा है. इनमें कहीं भी हिमालय को बचाने के लिये गिड़गिड़ाहट का भाव कहीं नहीं दिखाई देता.
(Shamsher Singh Bisht on Himalayn Day)
अब लगता है कि एक कुचक्र शुरू हो गया है और जनान्दोलनों को पीछे धकेलने के लिये ‘हिमालय बचाओ’ का नारा आगे आ गया है. 9 सितम्बर 2009 को उत्पन्न हुआ यह शब्द अप्रत्यक्ष रूप में सरकारी घोषणा जैसा लगता है. उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन मूलतः उत्तराखण्ड के दस पहाड़ी जनपदों का रहा. इस आन्दोलन का आधार क्षेत्र भी पहाड़ी ही रहा है.
‘हिमालय बचाओ’ शब्द से यदि उत्तराखण्ड राज्य का संघर्ष अभिव्यक्त होता तो यह अपने आप में गलत नहीं होता. उत्तर प्रदेश से उत्तराखण्ड के अलग होने का कारण हिमालय क्षेत्र की उपेक्षा ही रहा. उस जमाने में कहा जाता था कि लखनऊ की बनी हुई टोपी जबरदस्ती उत्तराखण्ड को पहनाने की कोशिश की जा रही है. मगर उत्तर प्रदेश में शासन करने वाले प्रमुख राष्ट्रीय दल, कांग्रेस व भाजपा ही पृथक उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद यहाँ भी शासकों के रूप में स्थापित हो गये. फर्क सिर्फ यह पड़ा कि जिस तरह की नीतियाँ पहले लखनऊ से संचालित होती थीं, वही वाली नीतियाँ पिछले सोलह वर्षों से देहरादून से संचालित होने लगी हैं.
उत्तराखण्ड में चले प्रमुख जन आंदोलनों में जिनकी भूमिका उत्तराखण्ड विरोधी या कहें कि हिमालय विरोध की रही, वे ही सत्ता को चलाने वाले बन गए. आज उत्तराखण्ड ‘उत्तराखण्ड’ न रह कर ‘ठेकेदार खण्ड’ बन गया है. यहां के 90 प्रतिशत जनप्रतिनिधि ठेकेदारी के धंधे में लिप्त हैं. हिमालय की प्राकृतिक संपदा, चाहे वह जंगल हों, खनिज, पानी या फिर नैसर्गिक सौन्दर्य, की जबरदस्त लूट मची हुई है. यह लूट करने वाले हमेशा कानून से ऊपर रहते हैं. राजनीतिक प्रभाव से जन प्रतिनिधि स्वयं अपनी और अपने समर्थक ठेकेदारों की नौकरशाहों के गिरोह में जबरदस्त पकड़ बनाए हुए हैं. पुलिस-प्रशासन पंगु बना हुआ है. वह लूट को देखते हुए भी अनदेखा करता है. हालात इतने चिन्ताजनक हैं कि अल्मोड़ा शहर के अंदर ही देवदार के पेड़ खुलेआम काट दिए जाते हैं लेकिन काटने वाले प्रभावशाली लोगों की पहुँच प्रशासन, पुलिस व न्यायपालिका तक होने के कारण मामला पूर्णतः दबा दिया जाता है.
(Shamsher Singh Bisht on Himalayn Day)
अल्मोड़ा में ही ‘गोविंद बल्लभ पंत पर्यावरण संस्थान’ स्थापित है. यह भारत का प्रमुख पर्यावरण संस्थान है. पर्यावरण के नाम पर इस संस्थान पर अरबों रुपया व्यय होता है. देश-विदेश के मेहमान यहाँ आते हैं. नामी गिरामी वैज्ञानिक मंचों से भाषण देते रहते हैं. इस संस्थान के 100 मीटर नीचे से कोसी नदी बहती है. लेकिन वर्ष 2008 में इस कोसी नदी में जब ‘नदी बचाओ आंदोलन’ आरम्भ किया गया, तो इस संस्थान का लेशमात्र योग भी उस आंदोलन को नहीं मिला था. इस संस्थान के पास ही कोसी नदी पर अल्मोड़ा नगर के लिये 34 करोड़ रुपये की एक पेयजल परियोजना बनाई गई. मगर परियोजना के बनते ही अल्मोड़ा नगर का पेयजल संकट बढ़ गया. बरसात में कई-कई दिनों तक शहर में पानी नहीं आया, लोग गंदा पानी पीने के लिए मजबूर हो गए. लेकिन इस पर्यावरण संस्थान ने अपने आँख, कान व मुँह गांधी जी के बन्दरों की तरह बन्द रखे. ‘बुरा न देखो, न सुनो, न बोलो’ की नीति पर चलते हुए यह संस्थान चलता रहा.
इसने जरा भी कोशिश यह जानने की नहीं की कि इस परियोजना में खामी क्या है, उसे कैसे सुधारा जाये. जो पर्यावरण संस्थान अपने बगल की नदी को नहीं बचा सकता, वह समग्र हिमालय का पर्यावरण क्या बचायेगा ? फिर ‘हिमालय बचाओ’ का औचित्य क्या रह जाता है ?
सन् 1976 में, जब इस पर्यावरण संस्थान की स्थापना भी नहीं हुई थी, उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी ने इसी क्षेत्र में एक सघन वृक्षारोपण किया था. लेकिन जब पर्यावरण संस्थान की स्थापना हुई तो किसी को यह भी नहीं सूझा कि यहाँ प्राकृतिक झाड़ियों से घेराबन्दी की जा सकती है. इसके बजाय सीमेंट की चार करोड़ की दीवार बना दी गई. क्या यही हिमालय बचाओ है?
9 सितम्बर को उत्तराखण्ड सरकार द्वारा ‘हिमालय बचाओ’ का जबरदस्त प्रचार किया गया. स्कूलों में रैलियां निकाली गईं. जगह-जगह सामूहिक रूप से ‘हिमालय बचाने’ की शपथ ली गई. लेकिन ‘हिमालय बचाओ’ क्या है?
क्या यह किसी महान व्यक्ति का नाम है या कोई ऐतिहासिक स्थल है, जिसे बचाने की हम शपथ ले रहे हैं ? ध्यान दें कि शपथ लेने वाले वे हैं, जो इस हिमालय को वास्तव में नष्ट कर रहे हैं. अभी हाल में डी.एम.एम.सी. ने रिपोर्ट दी कि डीडीहाट के बस्तड़ी गाँव में हुई दुर्घटना, जिसमें 23 लोगों की अकाल मृत्यु हुई, का कारण भूमि प्रबन्धन का न होना था. 30 डिग्री की ढलान पर सड़क निर्माण किया जा रहा है. याद रहे कि एक कि.मी. सड़क के निर्माण में हजारों घन मीटर मिट्टी बह कर चली जाती है और आजकल तो पूरे उत्तराखण्ड में जे.सी.बी. मशीनें अनियंत्रित ढंग से पहाड़ों को खोद रही हैं. ये सब विकास के नाम पर हो रहा है. उस हिमालय में हो रहा है जिसकी उम्र सबसे कम है, जो सब से कमजोर है.
(Shamsher Singh Bisht on Himalayn Day)
उत्तराखण्ड में इस वक्त तीन हजार चार सौ पच्चीस मेगावाट उत्पादन करने वाली विद्युत परियोजनायें स्थापित हैं. इसके अलावा 12 हजार दो सौ पैंतीस मेगावाट के 95 प्रोजेक्ट विभिन्न चरणों में स्थापित होने जा रहे हैं. एन.टी.पी.सी. और एन.एच.पी.सी. जैसे सार्वजनिक उपक्रम सात हजार तीन सौ दो मेवावाट की पच्चीस परियोजनाएँ बना रहे हैं. निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ भी दो सौ अठारह मेगावाट की अड़तीस परियोजनाओं पर काम कर रही हैं. इन परियोजनाओं के लिए भयानक सुरंगें बनाई गईं और अभी भी बनाई जा रही हैं. इन सब कारणों से उत्तराखण्ड को सन् 1893, 1894, 1977, 2010 और 2013 में भारी तबाही का सामना करना पड़ा.
पिछले कुछ सालों में बाढ़ ने उत्तराखण्ड के आम जन को ही नहीं, इन विद्युत परियोजनाओं को भी तबाह कर दिया. इस आपदा में काली गंगा प्रथम, सोबका, पचैती, असी गंगा प्रथम, गोरी गंगोरी, परियोजनाओं का अस्तित्व ही समाप्त हो गया. प्रोजेक्ट, मशीनें सब बह गए. पावर हाउसों को नुकसान हुआ, सुरंगों में कई किमी. तक मलबा भर गया. मद महेश्वर में काली गंगा प्रथम, काली गंगा द्वितीय और मद्महेश्वर परियोजना को काफी हानि हुई. सोन प्रयाग में भी छोटी परियोजनाएं समाप्त हो गई. तपोवन विष्णुगाड़ परियोजना मलबे में धंस गयी.
उत्तराखण्ड में पिछले तीस वर्षो से बादल फटने की घटनायें आम हो गई हैं. केदारनाथ के नीचे फाटा और सिंगोली, भटवाड़ी विद्युत परियोजना में बीस किलोमीटर सुरंग खोदी जा रही थी. सारा मलबा मन्दाकिनी में डाला गया. अलकनंदा में बन रही जल विद्युत परियोजना बनाने से श्रीनगर में भी जबरदस्त तबाही मची. उत्तराखण्ड का एक सुन्दर नगर श्रीनगर इसी कारण श्रीहीन हो गया. टिहरी, पिथौरागढ़ आदि का भी हाल यही है. ‘हिमालय बचाओ’ का नारा देने वाले क्या मानते हैं कि सिर्फ शपथ लेने भर से हिमालय भी तबाही रुक जाएगी ?
हम जब छात्र थे, तब पोस्टर लगाया करते थे कि ‘हिमालय को मई-जून में ही नहीं जनवरी-फरवरी की कड़ाके भी ठंड में भी देखो.’ हम कहते थे कि हिमालय की स्वच्छ, सफेद, श्रृंखलाओं को ही न देखें, उसके नीचे रहने वाले जिन दो लाख अस्सी हजार छः सौ पन्द्रह घरों में ताले लगे हैं, उन्हें भी देखें. राज्य बनने के बाद तो बत्तीस लाख और लोगों ने पहाड़ छोड़ दिया है. पलायन की दर सन् 2000 से 2010 के बीच छत्तीस प्रतिशत बढ़ गई है. हिमालय क्षेत्र में एक दशक पहले जहाँ पन्द्रह से बीस हजार की आबादी थी, आज घट कर वह दो सौ पचास रह गई है. मिलम गाँव में कभी पाँच सौ परिवार रहते थे. आज सिर्फ दो परिवार रह गए है. सन् 2013 की आपदा के बाद पलायन और बढ़़ा है. आपदा से प्रभावित छः सौ पचास गाँवों के पुनर्वास के लिए कोई पहल नहीं हुई.
(Shamsher Singh Bisht on Himalayn Day)
उत्तराखण्ड में आज जी.डी.पी. 27.22 से घटकर 9.39 पर आ गई है. प्रदेश के कुछ स्थानों में ऐसी स्थिति है कि बच्चों को दस किलोमीटर दूर प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने के लिए जाना पड़ता है. 2,040 प्राथमिक विद्यालय इसलिए बन्द होने की स्थिति में है कि वहाँ दस से कम बच्चे पढ़ते हैं. यही हाल स्वास्थ्य का भी है. पिथौरागढ़ का ही उदाहरण काफी है. जिस जनपद में पचहत्तर डाक्टर होने चाहिए वहाँ बाइस हैं. विशेषज्ञ चिकित्सकों में से सिर्फ अड़चालीस में से आठ ही है. महिला चिकित्सकों में सिर्फ इक्कीस में से नौ पद ही है. यहां की छः लाख की आबादी में सिर्फ बाईस चिकित्सकों के भरोसे चल रहा है. उत्तरकाशी में उन्नीस वर्ष पूर्व से हास्पिटल की बिल्डिंग बनी हुई है. लेकिन आज तक उसमें कोई डाक्टर नहीं आया. लगभग सभी पहाड़ी जनपदों के हाल ऐसे ही है. हिमालय बचाने वाले अधिकांश डाक्टर देहरादून, हरिद्वार व उधमसिंह नगर में ही केन्द्रित हो गए हैं.
‘हिमालय बचाओ’ से ऐसा लगता है कि हिमालय बचाओ कह दिया, तो हिमालय बच जाएगा. हिमालय बचाओ का नारा देने वाली उत्तराखण्ड की सरकार ने बच्चों को यह बताने की कोई कोशिश नहीं की आप अपने स्कूल, कालेज, शहर, गाँव, गांव के जंगल, जल स्रोत, खनिज सम्पदा तथा प्राकृतिक सम्पदा को बचा लेते हैं तो हिमालय खुद ब खुद बच जायेगा. मगर यह समझाने से हिमालय बचाओ की जो चेतना यदि विकसित होगी तो उसका कुठाराघात तो राजनीतिज्ञों, नेताओं, नौकरशाहों, माफियाओं, कम्पनियों व तकनीशियनों पर ही होना है, क्योंकि इन लोगों का तो अस्तित्व ही प्राकृतिक सम्पदा को लूट कर हिमालय को बर्बाद करना है. इसीलिए ऐसे लोग इस बात से बचते रहते हैं कि हिमालय का वास्तविक अर्थ लोगों की समझ में आये और हिमालय बचाओ की शपथ का ढकोसला कर हिमालय के रहनुमा बन जाते हैं.
(Shamsher Singh Bisht on Himalayn Day)
यह लेख नैनीताल समाचार से साभार लिया गया है.
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बिल्कुल सही बात! बिना पर्यावरण और संसाधनों की रक्षा किए, आखिर हिमालय कैसे बच सकता है? शमशेर जी के जाने से हिमालय का एक सैनिक और कम हो गया है। इसलिए मौका बन गया है। तो लूटो, दोनों हाथों से लूटो।
हिमालय बचाओ की शुरुआत आम लोगों की भागीदारी के बाद नीतिगत नियंत्रण लगाकर करनी होगी। नीति नियंताओं की नियत साफ न होना एक बड़ी वजह है किसी आंदोलन के दम तोड़ देने की।