पिछले कुछ सप्ताह से उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में लगातार बारिश, भूस्खलन व बादल फटने की वजह से तमाम तरह के नुक़सान व यात्रियों के फँसे होने की खबर आप तक पहुँच रही होगी. केदारनाथ से लेकर बद्रीनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री जाने के रास्तों में भूस्खलन के कारण जगह-जगह रास्ते बंद हैं. खासकर केदारनाथ में फँसे यात्रियों को एसडीआरएफ व एनडीआरएफ की देख-रेख में हैलीकाप्टर व परिवर्तित मार्गों से होते हुए सुरक्षित स्थानों तक पहुँचाने की लगातार कोशिश की जा रही है. हजारों यात्रियों को अब तक निकाला जा चुका है और जो फँसे हुए हैं उन्हें निकालने की कोशिशें लगातार जारी हैं.
(Sensitive Himalayas and Tourism)
पिछले कुछ वर्षों में अतिवृष्टि, बादलों का फटना, लगातार भूस्खलन होना सामान्य सा होता जा रहा है. क्या वाक़ई यह सब सामान्य है? जी नहीं! यह बिल्कुल असामान्य स्थिति है. और इस असामान्य स्थिति का एक बड़ा कारण है ग्लोबल वार्मिंग. जिस तरह से कार्बन उत्सर्जन के कारण पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है उसका सबसे बुरा असर हिमालय और उसके ईको सिस्टम पर पड़ रहा है. हिमालय से निकलने वाली नदियों से ही देश भर की प्यास बुझती है. सोचिये यदि पृथ्वी का तापमान लगातार यूँ ही बढ़ता रहा और ग्लेशियर लगातार यूँ ही पीछे की तरफ़ खिसकते रहे तो एक दिन ऐसा आएगा कि ग्लेशियर बचेंगे ही नहीं और देश भर में पानी के लिए हाहाकार मच जाएगा.
दुनिया भर की पर्वत श्रृंखलाओं में हिमालय सबसे युवा पर्वत है जो आज भी ऊपर की तरफ़ उठ रहा है. यह भूगर्भीय तौर से बहुत ही भुरभुरा और नाज़ुक है जिस कारण यदा कदा प्राकृतिक आपदाओं का आना लाजमी है. उत्तराखंड का हिमालयी क्षेत्र भूकंप के जोन 5 में आने के कारण बहुत ही संवेदनशील है जिस वजह से इस क्षेत्र में हो रहे विकास को लेकर लगातार बहस होती रहती है.
हिमालयी क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं का आना कोई नईं बात नहीं है लेकिन मानवजनित हस्तक्षेप के कारण आपदाओं की तीव्रता का बढ़ना एक बड़ी बहस को जन्म देता है. हिमालयी क्षेत्रों में बड़े बाँधों का निर्माण, चौड़ी सड़कों के लिए पेड़ों का कटान, नदियों के ठीक किनारे होटलों का निर्माण, अवैधानिक खनन और पर्यटकों की भीड़ का लगातार बढ़ना कुछ ऐसे कारण हैं जिस वजह से आपदाओं की तीव्रता बढ़ जाती है और जान-माल का अधिक नुक़सान होता है. 1990 के बाद से हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन 50 से 60 प्रतिशत तक बढ़ा है जिसका सही से मैनेजमेंट न होने के कारण हिमालय को बहुत सी पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.
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एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 1991 से लेकर 2015 तक मानवजनित गतिविधियों के कारण हिमालय का तापमान लगभग 0.87 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है. वाडिया इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार हिमालय में ब्लैक कार्बन के बढ़ने के कारण स्नो-लाइन लगातार पीछे की तरफ़ खिसकती जा रही है जिस कारण भविष्य में जल संकट पैदा होने की प्रबल संभावना है.
नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 2025 तक भारतीय हिमालयी क्षेत्र में लगभग 25 करोड़ पर्यटकों के पहुँचने की संभावना है. जहाँ यह संख्या 2011 में लगभग 1 करोड़ थी वहीं 2025 में हिमालय को 25 करोड़ पर्यटकों का भार वहन करना होगा. हम जानते हैं कि हिमालयी राज्यों की जीडीपी में एक बड़ा हिस्सा पर्यटन का है और पर्यटन को बढ़ावा देना राज्यों की आवश्यकता भी है. लेकिन पर्यटकों की भीड़ को नियंत्रित करना और मैनेज करना राज्यों के लिए चुनौती भी है. इसके लिए गंतव्यों की वहन क्षमता का मूल्यांकन करना बेहद ज़रूरी है. केदारनाथ जैसे गंतव्य अतिसंवेदनशील और भूगर्भीय रूप से नाज़ुक स्थान पर स्थित हैं जहाँ एक समय पर हजारों तीर्थ यात्रियों का जमा होना उसकी वहन क्षमता से काफ़ी ऊपर है जो भविष्य में नए ख़तरों को जन्म दे सकता है. हिमालयी क्षेत्र में किसी भी तरह का निर्माण किये जाने से पूर्व उस क्षेत्र का पर्यावरण प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment) व सामाजिक प्रभाव आकलन (Social Impact Assessment) किया जाना बेहद ज़रूरी है. साथ ही मानव जनित गतिविधियों से केदारनाथ जैसे हैरिटेज पर पड़ने वाले प्रभाव के लिए Heritage Impact Assessment का किया जाना भी आवश्यक है. इकोलॉजी और इकोनॉमी के बीच सुसंगतता के बिना हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन के विकास के कोई मायने नहीं हैं.
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जीआईएस और जीयो टैगिंग जैसी तकनीक का इस्तेमाल कई मामलों में नुक़सान से बचने में सहायक हो सकता है. राज्य सरकारें अपने स्तर पर तमाम तरीक़े की कोशिशें करती रहती हैं लेकिन सब कुछ सरकारें ही कर लें यह भी संभव नहीं है इसलिए एक यात्री के तौर पर हमें भी अपने कर्तव्यों को समझना होगा. केदारनाथ जैसे गंतव्य में “फ़र्स्ट डे-फ़र्स्ट मी” (First Day-First Me) वाली होड़ से बचना चाहिये. एक ही सीजन में 3-4 बार जाने का रिकॉर्ड बनाने की प्रतियोगिता से दूर रहना चाहिये. गंतव्य की संवेदनशीलता को दिमाग में रखकर यात्रा करनी चाहिये. पर्यावरण और पारिस्थितिकी को यथावत बनाने में पूर्ण योगदान देना चाहिये. नियम क़ानूनों का पालन करना चाहिये. तब जाकर हम कहीं एक अच्छा पर्यटक बन पाएँगे व हिमालय को बचाए रखने में अपना योगदान दे पाएँगे.
नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.
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