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वनवासियों की व्यथा : बेदखली

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अनुसूचित जनजातियां व घुमंतु वनवासी प्रकृति के साथ अनुकूल-समायोजन कर विकट दुरुह परिस्थितियों में पुश्त-दर-पुश्त वनों से अपना जीवन यापन करते रहे. सीमित अपवादों को छोड़ दें तो उन्होंने अपने प्राकृतिक परिवेश, भूमि की धारक क्षमता और अवलम्बन क्षेत्र को सुरक्षित रखा. स्वामी माधवाशीष व जैक्सन का अनुभवसिद्ध अध्ययन स्पष्ट करता है कि जनसंख्या के बढने से दैनिक खाद्यान आवश्यकता भी बढ़ी. जिससे भूमि की धारक क्षमता कमजोर हुई और चारे व ईधन के साथ वन उपज के अधिक दोहन से अवलंबन क्षेत्र संकुचित हुआ. समर्थ लोग रोजगार-व्यवसाय-कामधंधों की खोज में प्रवास कर गये. अपनी जड़ों से कटने का सिलसिला शुरु हुआ तो वन क्षेत्रों को दुधारु गाय समझने की सोच भी फली-फूली. वनवासियों के वनों पर दखल को लेकर सरकारी संस्थाओं और वन विभाग के साथ कुकुरमुत्तों की तरह उग आए देशी विदेशी गैर-सरकारी संगठनों ने अपने संसाधनों की बन्दर बांट से अनेक गोष्ठियों व वर्कशाप व विज्ञापनतंत्र की चकाचौंध में रची बसी कई रपटें प्रस्तुत कर डाली. इनमें से अधिकांश सरकारी नीतियों का पिष्टपेषण करती थी व वन को कच्चे माल की तरह प्रयोग करने वाले उद्योगपति-बिचौलियों-ठेकेदारों का हितलाभ ही इनका ईष्ट बना रहा. वनवासियों की समस्याओं को सही समाधान की ओर ले जाने वाले सूत्र मात्र उन सामान्य संघर्षशील जुझारू लोगों के पास थे जो अपनी जमीन, वन और हक़ के प्रति संवेदनशील थे. जन समूह में उनकी पैठ थी अतः स्वतः स्फूर्त आन्दोलन हुये सरकार का दमन चक्र चला और मूल समस्या के प्रति उदासीन रह वह पुलिस और सेना की मदद से हर उबाल को ठंडा करने की कोशिश करती रही. पर व्यापक जन दबाव में सरकारी तंत्र को सक्रिय होना ही पड़ा. आनन-फानन में बनी कमेटियों-योजनाओं, परियोजनाओं और इनवायरमेंट-सेन्सस्टविटी अध्यनों की बाढ आ गयी. पर्यावरण संबंधी नियम कानून बने और इनके अधकचरे क्रियान्वयन से भूमि संरक्षण व अपरदन की घटनाएं भी बढ़ी. विकास के हर दशक में स्वयं को स्वयंभू बना ली संस्थाओं के वन मठाधिपतियों व आपसी समूह बनाकर कपट संधि करने वाले पर्यावरणविदों का बोलबाला बना रहा. सरकार और वनमाफिया के साथ ये लोग हर स्तर पर सुविधा, समझौता, अवसर व तटस्थता के चौराहे पर गलबहियां करते रहे. भले ही ब्रिटिश भारत हो या आजादी के बाद का हिंदुस्तान यह सिलसिला जारी रहा. वन प्रदेशों की स्थानीय व आंचलिक विशेषताओं, उनकी दुर्गमता, उनकी विशिष्ट पहचान, देश के मुख्य स्थलों से दूरी, स्थानीय परम्पराओं व लोक विश्वासों की अपरिचितता के साथ आदिवासी-वनवासी से भावनात्मक दूरी के कारण सबकुछ सुलटा लेने का दंभ ही चारागाह-बुग्यालों को नष्ट कर गया. पशु पालक, घुमंतु-बंजारे-गुजर उखड़ गये. संकट के समय समाज में एक दूसरे का साथ देने वाली और निभाने वाली जो परम्परायें थी अब वह विकास की रेलमपेल में खत्म होती दिखाई दी.

फोटो : मृगेश पाण्डे

प्रश्न अनुत्तरित नहीं है टाले गये हैं. तिब्बत व्यापार के समय मंडियों से माल महिनों-महिनों ढ़ोकर कैसे मुख्य शहरों तक पहुंचता था. कौन भेड़ों को हांकते चलते सैकड़ों किलो ऊन कातता-बुनता रहता था? असाध्य बीमारियों के रामबाण नुस्खों की पिटारी से जीवन स्फूर्त करने वाले आखिर थे कौन? फिर नंदादेवी अभ्यारण्य में पर्यटन पर प्रतिबंध लगा. पूरे इलाके का रोजगार छिना सबसे भारी क्षति लातावासियों की हुई. चौमासे की छानियां छीन ली गयी. धार्मिक उत्सवों के नगाड़े ढोल, दमुओं, हुड़कों की थाप कागजी फरमानों से मंद पड़ गई. देवी का खड़ग निशान तक गायब हो गया. 1982 में जनता के हकूक नष्ट कर वन विभाग और बिचौलियों का हित चिन्तन करता नंदादेवी नेशनल पार्क बना दिया गया. 1974 के दौर में जो विभाग पुलिस पीएसी के बल पर जंगल काटना चाहता था वह अब जैव-विविधता और संरक्षण की बात करने लगा. चिपको के सिपाहियों से प्रकृति संरक्षक की भूमिका छीन ली गयी. लाता, रैंणी, पैंग व तोलमा जो दो दशकों से जनविरोधी नीतियों का संरक्षण कर रहे थे उन्हीं को माफियाओं का गढ़ बनाया गया. 1982 में जनता के हक़ हकूकों का समूल नाशकर वन विभाग जंगल के संरक्षण का ठेकेदार बना. कमीशनखोरी के साथ विकास को आये पैसे की बंदरबांट शुरु हुई. नंदादेवी का कोर जोन और बाद में अस्कोट अभ्यारण्य अवैध शिकारियों और यारसा गंबू खोदने वालों का संरक्षित क्षेत्र बन गया. 1997 में जो शिकारी तोलामा के जंगल से स्थानीय निवासियों के सहयोग से पकड़े गये वह न्यायालय से छूट गये. लाता ग्रामसभा ने 31 मई 1998 की बैठक में ‘झपटो छीनो आन्दोलन’ शुरु किया. चिपको से लेकर झपटो छीनो और नंदादेवी के सामुदायिक स्वामित्व के संघर्षों में स्थानीय जनता का मूल अधिकार स्थानीय निवासियों, अनुसूचित जनजातियों और वनवासियों के साझा प्रयासों का अद्भुत तालमेल था. पर अधकचरी नीतियों और संवेदनशीलता की कमी से समस्यायें विकराल होती गयी. स्विटजरलैंड में सरकार घुमंतु किसानों से कहती है कि अपने जानवर बुग्यालों में ले जाओ और हमारे देश में बकरी व भेड़ जंगल के दुश्मन माने गये. आप किसी भी सुदूरवर्ती वनवासी प्रदेश का भ्रमण कीजिए और देखिये. पर्यटन ने उस मनोरम अरण्य प्रदेश क्या सौगात सौंपी है प्लास्टिक कूड़ा कचरा, गांठ मारकर फैंके कंडोम, शराब की बेहिसाब बोतल और टिन्ड फूड के कैन. यह सब उन हिमनदों में हो रहा रहा है जो जीवनदायनी नदियों के आदि स्त्रोत हैं. प्रश्न फिर वही कि संवेदनाओं की जिस पूंजी के सहारे वनवासी और अनसूचित जनजाति व घुमन्तुओं का समाज बड़े संकट पार कर लेता था क्या हम उस पूंजी को बचा पायेंगे? सरकारें जो काम नहीं कर पायी वह काम समाज के प्रति संवेदनशील भावुक और नवप्रवर्तन का जोखिम उठाये कुछ व्यक्तियों, समूहों, संगठनों व स्वयंसेवी संगठनों ने कर दिखाया. सरकारें आदिम शैली में रह रहे निवासियों और वहां के पर्यावरण व पारिस्थितिकी के बिगाड़ के लिए आम तौर पर निर्धनों को दोषी बनाकर कुछ विकासोन्मुख योजनाओं की फ़ाइल मोटी करती गई. पर स्थानीय जन यह जानते हैं कि जो भी विकार उत्पन्न हुये हैं उनके मूल में सम्पदा ख़ासकर वन व खनिज संसाधनों का अतिदोहन है. चिपको आन्दोलन, झपटो-छिनो संघर्ष, सैरंध्री घाटी पन बिजली योजना के खिलाफ केरल साहित्य परिषद द्वारा संचालित आन्दोलन, मिट्टी बचाओ आन्दोलन, बीज बचाओ आन्दोलन, भूपालपट्टनम व इंचमपली बांधों के खिलाफ अभियानों ने देशभर में ऐसा वातावरण तो बनाया ही कि कोई गलत योजना अब चुपचाप तो लागू करना संभव नहीं. केरल में अलतपड्डी वनवासी क्षेत्र में जमीन के प्रयोग कणिवन वासियों के वनों के साथ ही वामनपुरम सिचाई परियोजना से बेघर होने वाले हजारों वनवासियों के वन और उपजाऊ खेतों के डूबने के खतरों के खिलाफ व्यापक जन प्रतिरोध जागा. सैरंध्रीवन के पास एक वनवासी इलाका मुख्यतः वन संवर्धन, जल-ग्रहण क्षेत्र की रक्षा ईधन वृक्षों के रोपण, देशी अनाज, सब्जी व पेड़ों की देशी किस्मों के काम में जुटा था सरकार की एकतरफा विकास नीतियों का उसने प्रबल विरोध किया. 1983 में ही मुचकुंद वन को बचाने का आन्दोलन पंचायत के प्रमुखों के सहयोग स्कूलों में प्रकृति संग व शिक्षकों के सहयोग से सामुदायिक केंद्र बनाने की शुरुआत कर गया.

फोटो : मृगेश पाण्डे

वनभूमि और संरक्षित अभ्यारण्यों में मानवीय दखल की समस्या लम्बे समय से विवादास्पद रही है. इनमें से अधिकांश जातियां तो ऐसी हैं जो वनवासी समूह के तौर पर ही जानी जाती हैं और तथाकथित रूढ़िवादी परंपरागत तरीके से जीवन यापन कर रही हैं. इनमें से कब किस जनजाति, कबीले या समूह के साथ कौन सा नियम विधान लागू हुआ जिससे उन्हें वहां रहने का अधिकार मिला यह भी व्यापक चर्चा का विषय है. शासकीय उपेक्षा से पीड़ित पूर्वोत्तर के आदिवासी समूह दोहरे शोषण व मानसिक उत्पीड़न के शिकार बने जब आजादी के बाद क्रिश्चियन मिशनरी उनके इलाकों में पहुंच धर्मांतरण का चारा फेंकने लगी. उत्तरपूर्व क्षेत्र में खासी लुशाईक व नागा समूहों में भारी संख्या में ईसाई धर्म को अपनाया गया. खाड़ी के देशों से भी धर्मांतरण हेतु पूंजी आई. इन सबके साथ शोषण और विस्थापन की भूलभुलैया में उलझे उत्तरपूर्वी व मध्य क्षेत्र के आदिवासियों ने सशस्त्र संघर्ष ऐलान किया और नकसली लहर का सूत्रपात हुआ. माओवाद भी फला-फूला.

फोटो : मृगेश पाण्डे

13 दिसम्बर 2005 को अनुसूचित जनजाति (वन अधिकारों को मान्यता) विधेयक 2005 सामने आया. इससे अनुसूचित जनजाति व अन्य पारंपरिक वनवासी वन अधिकारों को मान्यता कानून 2006 का नाम दिया गया. इसे 18 दिसम्बर 2006 को संसद ने पारित किया. 29 दिसम्बर को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद यह वनों की देखरेख करने के लिए उसके निहितार्थ और साथ ही औपनिवेशिक व तदन्तर आदिवासियों व वनवासियों के साथ हुए अन्याय को समाप्त करने के महत्वपूर्ण प्रावधान करता था. इसमें साफ़ कहा गया कि सरकार वन पारिस्थितिकी प्रणाली को सबल बनाने के लिए वनवासियों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील है. आदिवासियों के अधिकार व पर्यावरण के पक्षों को रेखांकित करते हुए इस कानून को महत्वपूर्ण माना गया. 1 जनवरी 2008 को यह कानून अधिसूचित कर दिया गया.

फोटो : मृगेश पाण्डे

यह बात भी सच है कि 1976 तक संविधान में पर्यावरण की सुरक्षा का जिक्र तक न था तभी 42वें संसोधन के अंतर्गत पर्यावरण संबंधी मुद्दों को शामिल किया गया. राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों में अनुच्छेद 48 अ जोड़ा गया व कहा गया की राज्य देश की प्राकृतिक पारिस्थितिकी और वनों व वन्य जीवों की सुरक्षा तथा विकास के उपाय करेगा. संविधान में पहली बार दर मौलिक कर्तव्यों के अध्याय अनुच्छेद 51 अ (जी) में कहा गया ‘ वनों, झीलों, नदियों व वन्य जीवन की सुरक्षा व विकास और सभी जीवों के प्रति सहानुभूति हरेक नागरिक का कर्तव्य होगा.’ इस कानून में वनवासियों व ग्राम सभाओं को जैव विविधता तथा सांस्कृतिक बहुलता संबंधी सामुदायिक वन संपदा के संरक्षण, संवर्धन व प्रबंधन के साथ की सभी जिम्मेदारियां सौंपी गई.

(जारी)

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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  • पहाड़ो की बर्बादी ,जंगल की बर्बादी , जंगलों में रहने वालों की बर्बादी । कुल मिलाकर देश की बर्बादी।

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