प्रिय अभिषेक

राग गधईया बिलावल, बहुत बड़ा ख़्याल

फिर वही! क्या स्वतंत्रता का अधिकार बस नाम के लिये दिया गया है संविधान में? शुरू किया नहीं कि टोका-टाकी चालू. बात वही, जो हर बार कही जाती है.

श्रीमतीजी फोन पर दीपचन्दी ताल लगा कर कुछ रियाज़ कर रही थीं. मैंने सोचा कि बेचारी अकेली रियाज़ कर रही हैं, मैं कुछ सहयोग कर दूँ. लगे गले (हाथ) मेरा भी रियाज़ हो जायेगा. यहीं से वह विवाद शुरू हुआ जिसने देश के इतिहास को लगभग बदल दिया होता.

पहली गलती थी पत्नी को बेचारा समझना, और दूसरी थी ऐसा समझ कर उनका सहयोग करना.

कुछ सैकिंड के डुएट के बाद ही उन्होंने आरोप लगा दिया कि तुम्हारे चक्कर में मैं अपना सुर भूल जा रही हूँ.

मैंने कहा, “मुझे लगता है आप मेरी गायन की प्रतिभा से आतंकित हैं. और अगर आप मेरे चक्कर में अपना सुर भूल रहीं है तो इसका अर्थ है कि आपकी एकाग्रता कमज़ोर है.”

वे बोलीं- “प्रतिभा तो आपकी निःसन्देह आतंकित करने वाली है. इतना बेसुरा होना सामान्य बात नहीं है. और मैं ही क्या, बच्चे भी कान बंद किये बैठे हैं, पड़ोसी अभी-अभी ताला लगा कर भागा है, कुत्ता पलंग के नीचे घुस गया है, छिपकलियाँ छत से टपक रही हैं, सब आतंकित हो उठे हैं.” 

“जिसे आप बेसुरा कहती हैं, उसे मैं सुधार की संभावना कहता हूँ. मेरे अंदर सुधार की संभावना है.” यह कह कर मैंने पुनः रियाज़ प्रारम्भ कर दिया. इस बार तार सप्तक में उठाया.

मेरा तार सप्तक सुनते ही वे ऐसे उठ गईं जैसे कोई शरीफ़ आदमी लुच्चों की महफ़िल से उठ जाता है. मैंने अपना अभ्यास जारी रखा. मैं भारतीय शास्त्रीय संगीत को नवीन ऊंचाइयों पर ले जाने के लिये प्रतिबद्ध था, पर जमाने को शायद ये मंजूर नहीं था. वे फिर माथा पीटती हुई आ गईं कि सम तो पहचानो कम से कम, कहीं से भी चालू हो जाते हो.

“सम?” मैंने शून्य में देखते हुए कहा, “ज़िंदगी में इतनी विषमताएँ देखी हैं कि अब केवल विषम ही ध्यान रहता है, सम नहीं.”

“सम नहीं पहचान सकते, तो मत गाओ.”

ये सुन कर मुझे क्रोध आ गया, “तुम ऐशोआराम की ज़िंदगी जीने वालों क्या जानो! तुम लोगों को तो सब सम ही सम दिखाई देता है. तुम लोग सम पर उठाते हो, सम पर छोड़ते हो, पर हमने विषमताएँ देखीं हैं. हमें अल्लाह ने वो तौफ़ीक़ अता की है कि हम विषम से उठा कर विषम पर पटकें. इतना आसान नहीं है ऐसा करना.”

“सही कहा- पटकें. सुर के विषय में आपके लिये पटकना  ही सर्वथा उचित शब्द है. देखो, मैं आसान शब्दों में समझाती हूँ- तुम बेसुरे हो.” श्रीमती जी ने जानलेवा हमला कर दिया.

मेरा एक मित्र हरियाणा से है. उसने एक बार ऐसी बात कही जिसने मेरा जीवन बदल दिया. यूँ ही किसी महफ़िल में हाथ में जाम लिये वह खड़ा हुआ और पूरे आत्मविश्वास से बोला- गाणा तो हम भी बढ़िया गा लेत्ते हैं, बस थोड़ा ऊँच्चा-निच्चा नहीं हो पात्ता. यह सुन कर मेरी आँखों में आँसू आ गये. लगा जैसे हृदय में वर्षों से मौजूद कोई गांठ बिना चीरे के निकाल दी गई हो. इस बात ने मेरे जीवन में वैसा ही काम किया जैसा स्वतंत्रता संग्राम में इंकलाब जिंदाबाद के नारे ने किया था. वह दिन है और आज का दिन; मैंने गायकी के क्षेत्र में फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. (भले ही साथ वाले मेरा गाना सुन कर उल्टे पांव भाग पीछे भाग लें.

मैं क्रोध में बिस्तर पर खड़ा हुआ और गरजा, “वाह, सदा वक्रोक्ति का प्रयोग करने वाले आज प्रत्यक्ष आरोप लगा रहे हैं. हम बेसुरों को स्नानागार में कैद कर देने वाले सुरीले बुर्जुआ लोगों, देखना एक दिन हम स्नानागार के  कुंडी-किवाड़ तोड़ कर आज़ाद हो जायेंगे और बाहर आकर खुल कर गायेंगे, और सुनने वाले खुल कर सुनेंगे. तुम चंद मुट्ठी भर सुरीले लोगों की हम बेसुरों के आगे बिसात ही क्या है? तुम अपने अच्छे सुरों से हमें सदा दबाते आये हो, पर अब और नहीं.”

“अच्छा? लोग बेसुरों को सुनेंगे, ऐसी क्रांति भी होगी? बेसुरों को तो खुद बेसुरे ही नहीं सुनेंगे.” वे हँसते हुए बोलीं.

“हाँ, हम करेंगे ऐसी क्रांति. और हमें तो क्रांति की भी ज़रूरत नहीं है, बस चुनाव करवाने हैं. जिस दिन संगीत में लोकतंत्र आ गया, उस दिन बेसुरे, सुर वालों को सत्ता से बाहर कर देंगे. अरे तुमसे अच्छी तो मेरी बेटी है.”

मीमांसा एक दिन मेरे पास आई और कहा- पापा, मैं आपकी एक बात को लेकर बहुत ‛रिसपैक्ट’ करती हूँ. मैंने पूछा- क्या? तो बोली- आप कितना भी बेसुरा गाओ, पर आप कभी भी हिम्मत नहीं हारते. हमेशा ट्राई करते रहते हो. मैंने कहा- बेटा, हम संगीत की दुनिया के सर्वहारा हैं. हम हिम्मत नहीं हारते.

“तुम सम पर रहने की बात करती हो,” मैं पुनः पत्नी की ओर मुखातिब हुआ, “तुम सम-सम्वादी वाले बुर्जुआ लोग क्या जानो हमें जिंदगी में कितने विषम-विवादी लोग मिले. तुमने सुर देखे, और हमने एक से एक असुर. हमें ज़िंदगी के हर मोड़ पर विषम परिस्थितियाँ और विवादी लोग ही मिले. जब तुम घर पर सुख-सुविधाओं के बीच वादी-सम्वादी सुरों में रियाज़ कर रहे थे, तब हम घर से बाहर विवादी असुरों से टकरा रहे थे.”

“तुम्हारे तर्क बहुत प्रभावी हैं. इन्होंने मुझे बहुत प्रभावित किया है.” श्रीमतीजी बोलीं. शायद उनका हृदयपरिवर्तन हो गया था. “इन तर्कों को सुनने के बाद में इतना तो कह ही सकती हूँ कि तुम निःसन्देह बेसुरे हो. और तुम्हें बिल्कुल भी गाने की ‛परमीशन’ नहीं मिलनी चाहिये.”

कोई डेढ़ लाखवीं बार हम झगड़े में उसी स्थान पर खड़े थे जहाँ से शुरू हुए थे. पर वो दम्पत्ति ही क्या जो हार मान लें. प्रत्येक लड़ाई प्रतिष्ठा की लड़ाई है. प्रत्येक युद्ध विश्वयुद्ध है.

मैं भी आज वक्तृत्व कला के चरमोत्कर्ष पर था. फिर मैंने जोश की मात्रा बढ़ाई, “परमीशन? हम तो विवादी में गायेंगे, विषम से उठायेंगे और विषम पर ही छोड़ेंगे. हम तो गायेंगे अपना गधईया बिलावल. बोलो क्या कर लोगे? संविधान में जितने अधिकार सुर वालों को हैं, उतने ही बेसुरों को भी. तुम संगीतद्रोही लोग हो. देखना एक दिन पूरा देश हमारे साथ गधईया बिलावल गायेगा.”

“पूरा देश? पूरा देश तुम्हारे साथ क्यों गायेगा? सब अच्छा गायन सुनना चाहते हैं. और कम से कम ये तुम्हारा गधईया बिलावल तो कोई नहीं गाने वाला.”

वे ज़ोर से हँसी जिससे मेरा अहम बिलबिला उठा. पर मुझे बिलबिलाने पर नहीं, बिलावल पर ध्यान केंद्रित करना था. मैंने कहा, “तुम्हें गलतफहमी है. तुम लोगों को कोई नहीं सुनना चाहता. सब हमें सुनना चाहते हैं. न मानो तो पूछ लो सबसे.”

“अच्छा, ये तो गजब हो गया. लोग बेसुरों को सुनना चाहते हैं- ये तो नई बात सुनी.”

“हाँ, अगर लोगों को चुनना होगा तो वे बेसुरों को ही चुनेंगें.” मैंने कहा.

“तो लोगों से पूछ क्यों नहीं लेते?”

“हाँ सही है. अब लोगों को ही फैसला करने दो. हो जाने दो चुनाव. देखें कौन जीतता है.”

अधिसूचना जारी कर दी गई. मैंने कर्कश समाज पार्टी (कसपा) की स्थापना की और रैलियाँ शुरू कर दी. “साथियों, कर्कश समाज पार्टी का गठन बेसुरा बिरादरी के हितों की रक्षा के लिये किया गया है,” मैंने कहा. फिर नारा दिया, “दुनिया के सारे बेसुरों एक हो जाओ. हमारी बिरादरी कब तक उपेक्षित रहेगी? इन सुरवालों ने हमारी आवाज़ को हमेशा दबाया है. मैं कहना चाहता हूँ हम बेसुरे भले ही हैं, हम बेजुबान नहीं है.” धीरे-धीरे मेरी सभाओं में बेसुरों की भीड़ बढ़ने लगी.

इधर श्रीमतीजी, जो थोड़े से उपलब्ध थे, उन सुरवालों के साथ घर-घर जाकर समझातीं कि हमें अच्छे सुरों की रक्षा करनी है. ये हमारी धरोहर हैं. संगीत को जातिवाद, पंथवाद से दूर रखना होगा.

उधर मैंने अपना प्रचार और आक्रामक कर दिया, “हम बेसुरे लोग अगर एक हो जायें तो हमें सरकार बनाने से कोई नहीं रोक सकता. हमारी अपनी सरकार. बेसुरों की सरकार.”

गधे जैसे रैंकने वाले, घोड़े जैसे हिनहिनाने वाले, मेढ़क जैसे टर्राने वाले, हर तरह के लोग मेरी रैली में आने लगे. बेसुरों का अद्भुत चिड़ियाघर बन गई थीं मेरी रैलियाँ.

मैंने अपना प्रचार जारी रखा, “ये खुद को सुर वाला कहते हैं. ये आवाज़ को साध लेते हैं तो हमारा उपहास करते हैं. मैं आपसे कहता हूँ भाइयों-बहनों, और कोई सुर दिया हो, या न दिया हो, भगवान ने एक सुर तो सबको दिया है- नाक का सुर.” जनता उत्तेजित होकर नारे लगाने लगी. फिर मैं नाक के सुर में गरजा, “थोड़ा बहुत सुर ऊपर-नीचे चलता है जी.” बेसुरों ने जम कर तालियां बजाईं. मैंने नाक के सुर में अपना वक्तव्य जारी रखा. “जरा मुझे एक बात बताइये! ये सुर वालों को गायक बनाया किसने? हमने-आपने. अगर हम इनके गाने न सुनते तो ये गायक होते क्या, होते क्या? मैं कहता हूँ कि अगर हम लोग एक दूसरे के गाने सुनने लगें, एक दूसरे के गाने डाऊनलोड करने लगें तो रॉयल्टी से ही हम लोग लाखों कमा सकते हैं. इन सुर वालों और इनके तामझाम की कोई ज़रूरत है क्या फिर? आप बताइये कोई ज़रूरत है क्या? ये हारमोनियम, तबला, सितार, तानपुरा, पखावज, इन पर कितना खर्चा होता है. अगर ये सब बेच दें, तो एक-एक बेसुरे को पन्द्रह-पन्द्रह हजार मिलेंगे.” जनता प्रिय प्रिय के नारे लगा रही थी. “हमारे नगर अध्यक्ष वैसाख सिंह जी ने मांग की है कि बेसुर बाबा की मजार सालों से उपेक्षित पड़ी है, उसका उद्धार हो. मैं वादा करता हूँ अगर हम बेसुरों की सरकार बनी तो दस करोड़ की लागत से बेसुर बाबा की भव्य मजार बनवाई जायेगी.”

शाम को श्रीमतीजी बोलीं, “ये बेसुर बाबा कब पैदा हो गये? आज तक तो इनका नाम नहीं सुना कभी. आज अचानक से इनका मजार भी बन गया?”

“बेसुर बाबा बहुत पुराने सूफी संत हैं. ज़रूरी नहीं कि आपको सब बातें मालूम हों. तीन सौ साल जिये थे. बेसुरों का उपेक्षित इतिहास नामक किताब में उनका उल्लेख भी आता है. सुरीली बिरादरी ने उनकी घोर उपेक्षा की है. पर अब और नहीं. जय बेसुर बाबा!”

“सीधे कहो न. मैं जानती हूँ चुनाव आते ही बहुत से लोग पैदा होते हैं और बहुत से लोग मरते हैं. ये तुम्हारे बाबा भी उन्हीं में से एक हैं.”

“जय बेसुर बाबा!” यह कह कर मैं, बिना उत्तर दिये, रैली के लिये निकल गया. रैलियों में भीड़ बढ़ती जा रही थी. एक से एक अद्भुत बेसुरे गायक मेरी रैली में आते. उनमें से कुछ ऐसी आवाज़ निकालते थे जैसे संगमरमर के फर्श पर लोहे की कुर्सी खिसकाई जा रही हो. कुछ की आवाज़ ऐसी थी जैसे नल आने वाले हों. प्रभु ने किसी का गला रेगमाल से घिस कर भेजा था, तो किसी के गले में रन्दा चलाया था. किसी की आवाज़ इतनी पतली थी कि कान के पर्दे भेदती हुई बाहर निकल जाये, तो किसी की इतनी मोटी कि कान पर थप्पड़ की तरह बजे. कोई उठाता मोहम्मद रफी की तरह था और गिराता रबड़ वाले भोंपू की तरह था, तो कोई ऊँचाई पर येशुदास की तरह होता था, और नीचे के सुर में डबल स्ट्रोक इंजन की तरह घरघराता. किसी को एक ही सुर में पूरा गाना गाने में महारत हासिल थी, तो कोई तो कोई पहले सुर में ही सातों सुर का प्रदर्शन कर सकता था. कोई गाना गाते समय यूँ आँख, नाक, कान मींचता था जैसे खुद के सुर सहन न कर पा रहा हो, तो कोई यूँ आँखें फाड़ कर गाता था मानो अपने इतने बेसुरे होने पर यकीन न हो रहा हो. कोई यूँ हिलता मानो मिर्गी आ गई हो, तो कोई यूँ मुँह-हाथ चलाता जैसे लकवा लग गया हो.

वे सब मेरी ओर ही मुँह फाड़ कर देख रहे थे. मैंने उनको देखा और कहा, “कितने तेजस्वी लोग हैं हमारे पास. एक से एक बेसुरे. साथियों, जरा मुझे एक बात बताइये. जब हम मन ही मन कोई गाना गाते हैं तो सुरीला होता है कि नहीं, होता है कि नहीं?” सब ने एक साथ कहा- हाँ, होता है. “मसला केवल उस गाने के गले से बाहर आने पर होता है. होता है कि नहीं, होता है कि नहीं?” सब ने फिर मेरी हाँ में हाँ मिलाई. “तो मन ही मन हम भी सुरीले हैं.” जनता पागलों की तरह नारे लगाने लगी- प्रिय, प्रिय, प्रिय.

चुनाव में कसपा भारी बहुमत से विजयी हुई. सुसपा (सुरीला समाज पार्टी) की सभी सीटों पर जमानत जब्त हो गई. बेसुरों की अपनी सरकार का गठन हुआ. मुझे प्रधानमंत्री चुना गया.

पहली कैबिनेट में प्रस्ताव पारित हुआ कि कोई भी संगीत कम्पनी बेसुरों के गाने रिकॉर्ड करने से इंकार नहीं कर सकती. साथ ही अपने चैनल पर सभी बेसुरों के गाने चलायेंगे. सुर में गाने पर ‛गीएसटी’ आरोपित कर दिया गया. जिसे सामान्य बोलचाल में गजिया कहा जाने लगा.

दूसरी कैबिनेट में फैसला हुआ कि सभी वाद्ययंत्र बेच दिये जाएँ. संगीतद्रोह अधिनियम को कैबिनेट में मंजूरी मिल गई. साथ ही बेसुर सुरक्षा कानून (बेसुका) भी लागू कर दिया गया. सुरीले लोगों की पहचान कर उन्हें सरकार से बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा. सुर की बात करने वालों पर संगीतद्रोह के मुक़दमे कर दिये गये. सब कुछ बहुत बढ़िया चलने लगा.

तीसरी बैठक में सेंट्रल ब्यूरो ऑफ सुर इंवेस्टिगेशन (केंद्रीय सुर जांच ब्यूरो- सीबीसुआई) का गठन किया गया. जिसने अनेक जगह छापे मार कर मृदंग, हारमोनियम, खड़ताल, मजीरे जैसे अनेक विस्फोटक पदार्थ बरामद किये. इसी बैठक में सुरीले पाये जाने के आरोप में अनेक सुरीले पत्रकार, सुरीले अर्थशास्त्री, सुरीले सलाहकार, सुरीले अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया गया.

ये चौथी कैबिनेट की घटना है. सभी मंत्री बैठे थे. मैंने गृहमंत्री दादुर लाल से कहा, “यार दादुर लाल जी कोई गाना तो सुनाओ!” दादुर जी अपनी प्रकृति के अनुरूप, पार्टी लाइन पर चलते हुए गीत शुरू करते ही सुर के राजमार्ग से उतर गये. कभी उन्होंने अपनी आवाज़ को कच्ची ढलानों पर उतारा, कभी किसी खरंजे पर उछाला. कभी उनकी आवाज़ यूँ हो जाती जैसे स्पीडब्रेकरों की किसी लम्बी श्रंखला से गुजर रही हो. वे पूर्ण बेसुरत्व को प्राप्त कर चुके थे. गाना समाप्त कर वे हाँफते हुए कुत्ते की तरह जीभ लपलपाने लगे.

“दादुर भाई, हालाँकि आप पूरी तरह पार्टी लाइन पर चले, पर यार एक-आध सुर तो सही लगा देते.” मैंने कहा.

“कैसी बात करते हैं? क्या आप संगीतद्रोही हो गये हैं? आपको सुर की बात नहीं करनी चाहिये.”

“अरे, कभी-कभी तो सुरीला सुनने की इच्छा हो सकती है. अपनी पार्टी में कोई तो होगा सुर वाला?”

“पार्टी में कोई नहीं है जो सुर में हो, और विपक्ष समाप्त किया जा चुका है.”

“गा नहीं सकते, तो कुछ बजा ही दो. सितार, सारंगी कुछ.”

“आप भूल रहे हैं, दूसरी कैबिनेट में ही सभी वाद्ययंत्र बेचने का फैसला हो गया था.”

“क्या सारे बेच दिये? एक-आध सुरीला आदमी और एक-आध वाद्ययंत्र बचा के रखना चाहिये.”

“अगर आप कहें तो फोड़ानी सेठ से सरकार किराये पर ले सकती है.” वित्त मंत्री लांगूल सिंह ने कहा.

“फोड़ानी सेठ तो वही है जिसे हमने ये वाद्ययंत्र बेचे थे. मतलब जिसको बेचे थे अब उसी से वापस किराये पर लें? अबे तू पागल है क्या लांगूल?”

“अबे पागल मैं क्यों हूँ, तुम हो पागल. जब देखो अपना गधईया बिलावल सुनाता रहेगा. तुम सुर वालों से मिल गये हो. अपना इस्तीफा दो अभी.”

“साले सब बेच दिया, अब तेरी तोंद पर बजाऊँ तबला?”

“तूने बिकवाया, मैं तेरे पोंद पर बजाऊँ पखावज?”

मुझे क्रोध आ गया. “मैं गधईया बिलावल सुनाता हूँ, तू भी तो मेंढकी मल्हार सुनाता है.”

“मुझे बीच में मत घसीटो.” दादुर लाल ने कहा.

“अबे दादुर! नाम दादुर, स्वर झींगुर का, एक-आध गायक तो बचा के रखता बख़त-जरूरत के लिये.” मैंने कहा.

“तू ही तो पीछे पड़ा था, सबको हटाओ. अब सुन कुतिया कानड़ा.”

“साले दादुर, मुझसे बदतमीजी से बात करता है. ये ले मेरा मुक्का मालकौंस.”

“तूने मुझे मुक्का मारा! ये ले रैहपट रंजनी.” दादुर ने फिर लांगूल की ओर देखा, “देख क्या रहा है, तू भी जमा एक लात ललित.”

“साले तुम दोनों मंत्री एक होकर मुझे मार रहे हो?” मैंने चारों ओर देखा एक पतली छड़ी रखी थी. “अब तुम लो मेरा संटी सारंग.” मैं संटी लेकर पिल पड़ा.

वे दोनों एक साथ बोले, “अब तू देख हमारा मारखानीतोड़ी.”

हम तीनों आपस मे गुत्थमगुत्था हो गये. हमारा मल्ल मल्हार चालू हो गया.

“उठो, उठो, उठो,! क्या सोते में हाथ-पैर चला रहे हो.” श्रीमतीजी ने कहा, “कल तो बहस करते-करते ही सो गये.”

“ये नीचे से शोर कैसा आ रहा है?” नीचे से आती झगड़े की आवाज़ों को सुनकर मैंने कहा.

“कुछ हिन्दू-मुस्लिम मिल कर गधईया बिलावल गा रहे हैं.” उन्होंने बताया और कमरे से चली गईं.

प्रिय अभिषेक

मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.

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