आज सुबह-2 फोन पर जो ख़बर मिली उसे सुन कर हम खुशी से फूले न समाये. फोन एक बहुत बड़े पत्रकार-लेखक-विचारक का था, जिन्हें हम अपना गुरु मानते हैं और प्रेम से ‘दादा’ कहते हैं.
यदि किसी व्यक्ति को नाराज़ किये बिना, उसकी नकल करनी हो, उसकी रचनायें चुरानी हों, तो उसे अपना गुरु मान लेना चाहिये. बस फिर जिस कार्य के लिये वे दूसरों को कोर्ट में घसीटते होंगे, उसी कार्य के लिये आपको शाबासी देंगे.
आप पूछोगे- कैसा लिखा है दादा? तो वे- नालायक, चोर, मेरा चुरा कर लिखा है – ऐसा कुछ नहीं बोलेंगे. वे कुछ देर मौन रहेंगे फिर भारी मन से कहेंगे- बहुत अच्छा, बहुत ‘मौलिक’ लिखा है. भले ही, भीतर ही भीतर, क्रोध में अपने दाँत घिस कर आधे कर लें.
तो दादा ने कहा, ‘एक प्रतिष्ठित पत्रिका के लिये व्यंग्य की आवश्यकता है. कल शाम तक लिख कर दे सकते हो?’
यह सुन कर हमारा धड़कता दिल कुछ और धड़क गया. हमने तुरन्त उनको आश्वस्त किया ,और व्यंग्य लिखने के लिये क़लम लेकर बैठ गये. परन्तु यह क्या? दिमाग़ में कोई विचार ही नहीं आ रहा था. अचानक मस्तिष्क में बने इस निर्वात से मैं अचम्भित था.
जितना सोचने की कोशिश करें, उतना ही विचार शून्य होते जायें. फिर अपने दिमाग की हालत देख कर सोचा, चलो शून्यवाद पर ही कुछ लिखा जाय. पर शून्यवाद भी निरा शून्य ही ठहरा. नथिंग कम्स आउट ऑफ नथिंग. अंडे से अंडा ही निकलता है. तो क्या लिखें?
पूरा ज़ोर लगा दिया. कुछ और निकलने को हो गया, पर व्यंग्य न निकला. फिर सोचा की व्यंग्य के लिये विषय की खोज की जाय. और विषय हमें ठीक नज़रों के सामने नज़र आ गया.
तो व्यंग्य की प्रेरणा लेने हम उस गर्भगृह में आ पहुंचे जहाँ हम प्रतिदिन आठ से दस अर्जियां लगाते हैं. जिनमें से एक-आध कभी-2 पूरी भी हो जाया करती है. कम से कम व्यंग्य के विषय में इस स्थान ने कभी निराश नहीं किया.
ऑफिस के इस गर्भगृह में कुर्सी रूपी शेषनाग पर बॉस स्थापित थे. बाहर जय-विजय की तरह दो द्वारपाल तैनात थे. जिनका कार्य गर्भगृह की ओर जाने वाले मार्ग पर बैरियर गिरा कर टोल टैक्स वसूलना था. उनको देखते ही हम अपने अंदर, सनकादि ऋषियों जैसे, तप-ब्रह्मचर्य के बल की कमी को अनुभव करने लगे. क्योंकि उनको दिये गये हमारे सभी श्राप ‘मिसफायर’ कर जाते थे.
हम उनके द्वारा प्रवेश द्वार पर की जाने वाली पूछ-ताछ की तैयारी कर ही रहे थे कि तभी दोनों ने खटाक से सैल्यूट मारा, और सटाक से दरवाज़ा खोल दिया. एक क्षण को तो यकीन ही नहीं हुआ. पर गर्भगृह के भीतर, कुछ इससे भी अधिक अविश्वसनीय होने वाला था.
बॉस हमें देखते ही मुस्कुराये और बोले-‘आइये-आइये प्रिय! कृपया बैठिये! जल पियेंगे? घर पर सब कैसे हैं?’
बॉस के इस व्यवहार से हम अचानक बैकफुट पर आ गये. फिर हमने दाँव चलते हुए ‘वो’ कहा, जिसे कहते ही व्यंग्य का निर्माण हो जाता है.
हमने अपनी पूरी ताक़त लगाई और बोला, ‘बॉस हमें दस दिन की छुट्टी चाहिये!…’दस’ दिन की!’
अमूमन कार्यालयों में बॉस से छुट्टी माँगना और बॉस की किडनी माँगना एक बराबर है. और दस दिन की छुट्टी माँगने का अर्थ है कि आप बॉस की एक नहीं, दोनों किडनी माँग रहे हैं. और साथ में बॉस की आश्चर्य से फ़टी आँखे निःशुल्क.
बॉस ने संयत स्वर में कहा–‘अवश्य लीजिये, लाइये, मैं आवेदन स्वीकृत कर दूं!’
यह चाल तो उल्टी पड़ी. हमने सकपकाते हुए झूठ बोला कि आवेदन टेबल पर छूट गया है. हमारे लिये ये स्वीकार करना असम्भव था कि हम ऑफिस के इस गर्भगृह से व्यंग्य का कोई विचार लिये बिना निकल जायें.
अब हमने आखिरी दांव चला, ‘बॉस! हमारा एरियर नहीं बना है और इंक्रीमेंट भी नहीं लगे हैं…’
‘अच्छा!’ बॉस ने तत्काल घँटी बजा कर बड़े बाबू को बुलाया और हुक्म दिया, ‘आज ही साहब(?) का एरियर बना कर प्रस्तुत किया जाय और अवकाश स्वीकृति का पत्र जारी हो!’
व्यंग्य का कोई भी विषय न मिलते देख हमने बॉस से आखिरी सवाल किया,‘ बॉस आपकी तबियत तो ठीक है?’
बॉस ने कहा, ‘आई एम परफेक्टली आल राइट.’
बॉस के कक्ष से खाली हाथ निकल कर हम बड़े बाबू के कमरे में आ गये.
बड़े बाबू यानी बाबूजी. अपने कृत्यों से साहित्यकारों और स्क्रिप्ट राइटर्स के लेखन की अखण्ड प्रेरणा का स्त्रोत- बाबूजी. आज एक और याचक लेखक उनके दर पर था.
हमने कहा-‘बाबूजी वो हमारे इंक्रीमेंट,एरियर के लिये साहब…’
बाबूजी बीच में ही बोल पड़े-‘बैठिये श्रीमान! मैं अभी बिल बनाता हूँ.‘ पुनः बोले, ‘आप शायद भूल रहे हैं, साहब ने आपकी छुट्टी का आदेश भी बनाने को बोला है. मैं वह भी बना देता हूँ.’
बाबू जी का यह व्यवहार किसी सदमे से कम नहीं था.पर मैंने भी अपने उद्देश्य पर डटे रहना उचित समझा.
बात आगे बढ़ाते हुए बाबूजी से पूछा,‘और बाबूजी किसी को निपटाया की नहीं?’
इस देश में बहादुरी के किस्से सुनाने के मामले में फौजियों का नम्बर दूसरा है. पहले नम्बर पर आज भी क्लर्क विद्यमान हैं. तो बाबूजी के पास भी उनकी बहादुरी के तमाम किस्से थे कि उन्होंने किस अधिकारी को कैसे लपेटा, किसको ठंडा किया, किसकी गर्मी निकाली, कौन उनके चरणों मे लोट गया आदि-आदि. बाबूजी ठीक-ठीक संख्या में बता सकते थे कि वे कितने अधिकारियों को अपने ‘नीचे’ से निकाल चुके हैं.
बाबूजी बोले, ‘नहीं-नहीं श्रीमान जी, कैसी बात करते हैं? मैं वरिष्ठ अधिकारियों का बहुत सम्मान करता हूँ.’
बाजी उल्टी पड़ती देख मैंने वो ब्रह्मास्त्र चलाया जो आदिकाल से कभी निष्फल नहीं गया. स्वयं कौटिल्य ने कहा है कि इससे बचना असम्भव है.
मैंने कहा ,’बाबूजी वो एरियर के लिये कुछ सेवा-ऐवा करनी हो तो…’ .
बाबूजी एकदम चौंक पड़े, ‘कैसी बात करते हैं श्रीमान? शासन हमें वेतन देता है हर कार्य के लिये. श्रीमान आपका बिल बना दिया है. कल तक आपके खाते में पैसे पहुँच जायेंगे. और आपका अवकाश भी स्वीकृत हो गया है.’
मैंने बाबूजी से पूछा-‘बाबूजी आपकी तबियत तो ठीक है?’
बाबूजी ने कहा-‘आई एम परफेक्टली ऑल राइट श्रीमान.’
आज का दिन अविश्वसनीय जा रहा था. कुछ चकित, कुछ अचम्भित और कुछ स्तम्भित सा, मैं कार्यालय के बाहर खड़ा हो गया. सड़क पर दो आदमी लड़ रहे थे. दो साँड़ प्रेम से जा रहे थे. दो कुत्ते रोटी बाँट कर खा रहे थे.
कुछ भी ऐसा नही था जो मुझे व्यंग्य लिखने के लिये प्रेरित करे. मेरे मन में सवाल चल रहा था कि क्या मैं गुरुदेव की पत्रिका के लिये व्यंग्य लिख पाऊँगा ,या उन्हें निराश करूँगा? तभी सामने चौराहे पर वो मन्दिर नज़र आ गया, जहाँ मैं लगभग रोज़ जाता था. मेरे दिमाग़ में यकायक कौंधा – पंडी जी!
पंडी जी वो कील थे जिस पर हरिशंकर परसाई से लेकर हरिमोहन झा तक, सभी ने व्यंग्य लटकाये थे. मुझे आशा थी कि यहाँ कुछ व्यंग्य का विषय अवश्य मिलेगा. मैं तुरंत मन्दिर पहुँच गया.
आज मन्दिर बिलकुल साफ-सुथरा था. इतना चकाचक की यकीन नहीं हुआ.
मन्दिर, चरित्र और राजनीति को स्वच्छ रखने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है. एक बार को तो गलतफ़हमी हो गई कि कहीं ये कोई दूसरी जगह तो नहीं. ख़ैर!!
अहाते में भक्तगण बैठे थे और पंडीजी का प्रवचन चालू था. वे मुझे देख कर कुछ देर ठिठके, परन्तु अपना उद्बोधन चालू रखा.
‘फिर भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम्प्राप्य वस्तु है ,जो स्वर्ग से बढ़ कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है- ऐसा कहते हैं, वे अविवेकी हैं. उनकी बुद्धि परमात्मा में निश्चयात्मक नहीं है.’
ये सुनकर मैं अचानक चौंक गया, ‘अरे ये क्या कह रहे हैं पंडीजी? फिर वो जाप,अनुष्ठान, फूल बंगला, छप्पन भोग… और आपकी दक्षिणा?’
पंडीजी मुस्कुराये और बोले , ‘नहीं भैया जी! कहाँ का जाप, कैसी दक्षिणा, कैसा चढ़ावा? नवें अध्याय में प्रभु कहते हैं –
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति.
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः…
यदि कोई प्रेम तथा भक्ति से मुझे पत्र, पुष्प, फल तथा जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ. समझे भैया जी! भगवान भाव के भूखे हैं.’
‘पंडीजी आपकी तबियत तो ठीक है?’
‘आई एम परफेक्टली ऑल राइट भैया जी!’
ऐसा लगता था जैसे सारी कायनात मुझे व्यंग्य लिखने से रोकना चाहती है, और पंडीजी भी उस साजिश में सम्मलित हैं. मन्दिर में घण्टा बजा कर, हम बाहर निकल आऐ. फिर से दिमाग़ दौड़ाया तो अचानक याद – वामी दादा!
चांदेश्वर सिंह तारकनाथ. जिन्हें प्यार से हम लोग उनके घोर वामपंथी विचारों के कारण वामी दादा बुलाते थे. पंडी जी की तरह ही वामी दादा भी अपने धर्म के पक्के थे. परन्तु आज का दिन जिस तरह से गुज़र रहा था उससे मन में भय था कि कहीं वामी दादा भी निराश न कर दें.
हम पहुँचे तो वामी दादा अपनी किताबों के बीच बैठे थे. बोले-‘आओ प्रिय बैठो!’ थोड़ी देर तक हाल-चाल लेने के बाद हमने अपना प्रयास आरंभ करते हुए पहला प्रश्न पूछा.
‘और दादा वो आपके आयरन रेड का कोई नया उपन्यास आया क्या?’
‘आयन रैंड को मरे पैंतीस साल से ज़्यादा हो गये समझे!’ वामी दादा ने कुछ तल्ख़ हो कर कहा.
‘ओह!’ मेरा पहला दाँव ही गलत पड़ा. अब संभल कर बात आगे बढ़ानी थी .
‘वो जापानी क्या नाम बताया था आपने, कुछ ‘नाकामी’ जैसा, उनका कोई उपन्यास आया?’
‘मज़ाक बनाते हो!’- वामी दादा अचानक भड़क गये- ‘मुराकामी का मज़ाक बनाते हो!’
‘ओह सॉरी! नाम याद नहीं रहा दादा,’ मैं सहम गया.
इस दूसरी गड़बड़ के बाद मैंने और अधिक सावधानी से कदम उठाने का निश्चय किया. सोचा थोड़ी गम्भीर बात की जाऐ जिससे दादा का मूड सही हो.
एक आदर्श वामपंथी को तीन चीजों से बहुत प्यार होता है – कार्ल मार्क्स, चेग्वारा और सिंगल मॉल्ट.
‘दादा कोई नया माल आया क्या – ग्लेंफिडिख़, ग्लेंमुरेन्जी?’ मैंने बात आगे बढ़ाई.
कमाल की बात ये थी कि ये दोनों नाम मुझे ठीक-2 याद थे. दादा चुप रहे.
‘अच्छा वो सिगार तो दिखाइये – मोंटे क्रिस्टो नम्बर वन!’
पुनः कमाल. ये नाम भी मुझे अच्छे से याद रहा. जिसे आज तक राइनोसौरस और हिप्पोपोटैमस की स्पेलिंग याद नहीं हुई, उसे ग्लेंफिडिख़, ग्लेंमुरेन्जी और मोंटेक्रिस्टो जैसे नाम अच्छे से याद हैं. ये मन पतनशील होता है और याद्दाश्त व्याभिचारी. इस मन को कंधे पर बिठा कर ऊपर चढ़ाना पड़ता है और याद्दाश्त को अच्छी-2 ईश्वर-मोक्ष की बात याद करानी पड़ती है. वरना क्या कारण है की बचपन में देखा-सुना ‘टिप-टिप बरसा पानी’ गीत याद्दाश्त में बिल्कुल स्पष्ट अंकित है. और हाल के स्नातक के विषय तक याद नहीं.
वामी दादा की आँखों में ये सब नाम सुन कर चमक आ जाती थी. परन्तु इस बार उन्होंने शांत मन से सारी बातें सुनी और शांत मन से कहा – ‘अब मैंने ये सब छोड़ दिया है.’
इसमें कोई शक़ नहीं था की वामी दादा सच बोल रहे हैं. अब यहाँ भी आखिरी दाँव खेलने की बारी थी. तो मैंने दादा से उनकी रिसर्च के बारे में सवाल करना उचित समझा.
‘दादा आप वो जो कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के अट्ठारह बिस्वा और बीस बिस्वा गोत्रों में व्याप्त असमानताओं पर रिसर्च कर रहे थे, उसका क्या हुआ? आपने कहा था दोनों पृथक वर्ग हैं.’
वामी दादा ने कहा, ‘बोला न, अब ये सब छोड़ दिया है ! सुनाई नहीं देता? अब मजदूरों-किसानों की समस्याओं पर ध्यान दे रहा हूँ.’
हम वामी दादा को प्रणाम कर उनकी क्रेमलिन से बाहर निकल आये. व्यंग्य की प्रेरणा तलाशने का ये प्रयास भी विफल रहा. अब एक आखिरी आशा थे नेताजी.
साहित्यकारों, कवियों, लेखकों, व्यंग्यकारों के लिये राजनीतिज्ञ एक तरह के टैडी बियर होते हैं. जिन्हें घूँसे मारो, जिनके ऊपर बैठ जाओ, लटका कर घूमो, तोड़ो-मरोड़ो और जब उनसे अनुदान चाहिये हो तो उन्हें सीने से लगा कर, चिपका कर सो जाओ. दो लोग झगड़ें, दो जाति झगड़ें, दो धर्म झगड़ें अथवा दो देश. हमारा मानना है कि ये सब सियासत करवाती है.
ग़नीमत है कि नेताओं को वोट चाहिये, तो वे सब सह लेते हैं. वरना नेताजी जी यदि पलट कर पूछ लें कि जब सियासत यह सब करवा रही होती है, तब तुम्हारी अक्ल क्या घास चरने चली जाती है? – तो लेने के देने पड़ जायें.
हम भी अपने टैडी बियर विधायक जी के बंगले पर पहुँच गये. आश्चर्यजनक रूप से आज विधायक जी के बंगले से उनके युवराज के जन्मदिन की बधाई वाले सारे पोस्टर नदारद थे. घण्टी बजाई तो नौकर की बजाय भाभी जी ने दरवाज़ा खोला.
मैंने पूछा,’भाईसाहब कहाँ हैं?’
‘भाईसाहब क्षेत्र में गये हैंगे. कै रहे हते कि अब छै दिना मईं रा करूँगा. केबल सन्डे को आऊँगा,’ भाभी जी ने बताया.
‘अरे! हमसे तो कहा था कि आज शाम को बैठेंगे.’
‘अब बैठबो हू बंद कद्दओ है. कै रए हते – माता की भक्ती करूँगा.’
जिस तरह हमारी नज़र में देश की बरबादी का कारण विधायक जी थे, उसी तरह भाभी की नज़र में विधायक जी की बरबादी का कारण हम थे. और जिस तरह से भाभी जी हमारा रास्ता रोक कर खड़ी थीं, यह बात और पुष्ट होती थी.
हम लौटने लगे तो भाभी जी बोलीं – ‘जे और कै गये हते कि प्रिय आएँ तौ बोल दियो – आई एम आल्लाईट.
यह कह कर भाभी जी ने कपाट बंद कर लिये. व्यंग्य खोजने के इस व्यायाम से शरीर थक कर चूर हो चुका था. पूरा दिन इसी में व्यतीत हुआ. अब घर पहुँचने की बारी थी.
घर के दरवाज़े पर याद आया कि श्रीमती जी ने दूध की थैली लाने को बोला था, जिसे मैं हमेशा की तरह भूल गया था. और दूध की थैली का तो मुझे याद था की मैं भूल आया हूँ; बाकी क्या-2 भूला हूँ, ये घर के अंदर याद कराया जाने वाला था. अब इस हेतु भी रणनीति बनानी थी.
इस सम्बंध में पति कई तरह की रणनीति अपनाते हैं. कुछ किसी साक्षात्कार की तरह सवालों के जवाब तैयार करते हैं. कुछ सीधे क्षमा माँगने का मार्ग अपनाते हैं. मैंने पूर्वजों द्वारा सदियों से प्रयोग हो रहा शास्त्रीय तरीका अपनाने का निश्चय किया.
इस शास्त्रीय तरीके में एक आदर्श पति अपने कानों को अपने शरीर से पृथक मान लेता है. सम्भवतः सार्त्र ने दुरास्था(बैड फेथ) का विचार भी इसी से लिया था. किसी दिन सिमोन ने उन्हें किसी बात पर हड़काया होगा और उन्होंने आपने कान शरीर से पृथक मान लिये होंगे.
तो हमने भी अपने भवितव्य का विचार करते हुए अपने कानों को अपने शरीर से ‘डिटैच’ कर लिया, अर्थात उनका प्लग निकाल दिया.
श्रीमती जी ने मुस्कुरा कर स्वागत किया, हमारे हाथ से बैग लेकर रखा और दोनों कंधे पकड़ कर सोफे पर बैठाया. फिर वो ठंडा पानी लेकर आईं. माहौल को माक़ूल देख कर मैंने फिर से कान के तार शरीर से जोड़ लिये.
फिर श्रीमती जी बोलीं, ‘आपको दूध की थैली लाने को बोला था और साथ में … ‘
घबरा कर मैं फिर से अपने कानों का प्लग निकालने ही जा रहा था कि वो आगे बोलीं, ‘ मुझे पता था आप थक गये होंगे. फिर ऑफिस का तनाव भी रहता है. इसलिये मैं खुद जाकर दूध, पालक, हींग की डिब्बी सब ले आई.’
फिर वो पास में आकर बैठी और धीरे से बोली- आज आपका फोन पूरे दिन बंद रहा. दादा का फोन आया था, बहुत परेशान लग रहे थे. आप उनसे बात कर लीजिये.’
मैंने श्रीमती जी से पूछा , ‘आपकी तबियत तो ठीक है?’
उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया ,’आई एम परफेक्टली ऑल राइट.’
मैंने श्रीमतीजी को बताया कि मेरा फोन सुबह से खराब था. फिर उनके फोन से दादा को फोन लगाया.
उधर से दादा चीखते हुए बोले, ‘यार तुम कहाँ हो, सुबह से फोन बंद है? वो कल शाम नहीं, आज शाम तक तुम्हारा लेख चाहिये था. तुम्हारे ऑफिस भी फोन लगा कर बोला था कि जैसे ही आयें, मेरी बात करा दीजियेगा. तुम्हारा खड़ूस क्लर्क पूछ रहा था तो मैंने बताया भी था कि तुम व्यंग्य लिखते हो और आज शाम तक एक व्यंग्य अर्जेंट चाहिये. पुजारी जी, वामी दादा, नेताजी, जहाँ-2 तुम जाते हो, सब जगह बहू से फोन लगवाकर कहलवाया था कि जैसे ही आयें, तो मेरी बात करा देना. व्यंग्य अर्जेंट चाहिये. अब बैठो! अगले अंक में देखेंगे.’
फोन काटते ही श्रीमतीजी आँखों में आँखें डाल कर, प्यार से बोलीं ,’सुना है आप व्यंग्य लिखने लगे हो?’
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मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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