सभी की अपनी चुनौतियां है और सभी के अपने संघर्ष. पर कुछ संघर्ष विरले होते हैं. कठिनतम से भी कठिन.
पिछले कुछ समय में पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविज़न, मोबाइल पर अनेक लोगों के साक्षात्कार या उनके जीवनवृत्त पढ़कर पूर्णतः आश्वस्त हो चुका हूँ कि एक लंबे समय तक हम जिसे संघर्ष समझते रहे, वह दरअसल संघर्ष है ही नहीं. वास्तविक संघर्ष कुछ और ही है. सर्वाधिक कठोर संघर्ष कुछ ख़ास लोगों के हिस्से में आया है. हालाँकि मेरे हिस्से में भी थोड़ा-बहुत संघर्ष आया है.
अभी कल की ही बात है आलू-टमाटर की सब्ज़ी बनी थी. विवाहित पुरुष के लिये सब्ज़ी हमेशा ‘अच्छी’ ही बनती है. उस अच्छी सब्ज़ी में नमक डालने के लिये जैसे ही नमकदानी को उल्टा किया, पूरा नमक धप्प से सब्ज़ी के अंदर. कुशलता से ऊपर का सूखा नमक रोटी की सहायता से बटोरा और वापस डाला. बाकी का बचा सब्ज़ी में मिला दिया. माँ देखती तो कहती ,’अब ये सब्ज़ी तू खायेगा?’ पत्नी ने देखा तो कहा,’ अब ये सब्ज़ी कौन खायेगा?’
पहले मामले में सब्ज़ी कुत्ता खाता, दूसरे मामले में हमने खायी. बात एक ही है. और ये क्या है; इससे भी बड़े-बड़े संघर्ष आते है व्यक्ति के जीवन में.
स्नान करने गये. स्नानागार का दरवाज़ा बंद किया. पहनने के क्रम में कपड़े खूंटी पर टाँगे. बाद वाला पहले. पहले शर्ट टांगी. फिर पैंट. फिर बनियान. उसके ऊपर चड्डी. खूंटी थोड़ी छोटी थी. चड्डी नीचे गिरी और गीली हो गई. आ गया संघर्ष! पर इतना ही काफ़ी नहीं था.
कोई सजग पाठक होता तो पूछता कि भैया कपड़े तो टाँगे, पर तौलिया कहाँ है? पर आप लोग भी लेखक की तरह लापरवाह हैं. हम तौलिया भूल गये!
ये बात केवल एक विवाहित पुरुष ही समझ सकता है कि नहाते वक्त पत्नी से तौलिया मांगना कितना बड़ा संघर्ष है. ये भारत के विश्व बैंक से उधार माँगने जैसा मामला है.
तौलिया बाहर भूल कर नहाने गया शख़्स, जब पत्नी से तौलिया माँगता है तो उसे तौलिया के साथ जीवन में अनुशासन के महत्व का भाषण निःशुल्क प्राप्त होता है. और केवल तौलिया प्राप्त हो जाने भर से संघर्ष समाप्त नहीं होता है.
तौलिया को दरवाज़े से अंदर भी लेना होता है, इस तरह से कि ‘कुछ’ दिखने न पाये. इस कला में केवल वो ही प्रवीण हो सकता है जिसने गाँव में ‘करने’ के बाद, दरवाज़े में हल्की सी जगह बना, मग्गा बाहर सरका कर पानी लिया हो.
ये सब जीवन के सँघर्ष ही हैं, पर कुछ छोटे. बड़े संघर्ष बड़े होते हैं. हमारी ही तरह आप भी पता नहीं किन कामों को सँघर्ष समझने का मुग़ालता पाले रहते हैं.
कल पी. साईनाथ किसानों के संघर्ष की बात कर रहे थे. अब बताइये किसानों के जीवन में भला क्या संघर्ष? क्या आपने कभी किसी किसान को कहते सुना है कि मेरे जीवन में बड़ा संघर्ष है? किसान कहेगा -खाद नहीं मिल रही, आढ़तिये परेशान करते हैं, फसल को पाला मार गया. पर ये सब तो उनका काम है. इसमें क्या ख़ास है. ये तो किसान का रोज़ का जीवन है. हज़ारों साल से वो यही कर रहा है. गम्भीर संघर्ष कुछ अलग तरह का होता है.
दिल्ली में रहने वाले हमारे एक मित्र ने अपने संघर्ष की ऐसी घटना सुनाई, जिसे सुन कर आपका दिल दहल जाय. उसने बताया -‘यू वोंट बिलीव, जब मैं दिल्ली आया तो आठ महीने, पूरे आठ महीने, कूलर चला कर रहा. क्योंकि मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं ए.सी. खरीद सकूं.’
ये होता है संघर्ष! संघर्ष वह है जब वातानुकूलित प्रथम श्रेणी में चलने वाले को वातानुकूलित द्वितीय श्रेणी में चलना पड़े. अभी एक मंत्री जी की सादगी के बारे में समाचार पत्र में पढ़ा कि वे हवाई जहाज़ में, बिज़निस क्लास की बजाय, इकोनॉमी क्लास से सफर करते हैं. मेरा दिल उनके प्रति श्रद्धा से भर गया. सादगी का ऐसा उदाहरण विरल है. मैंने अपने गाँव के मित्र बाले बाल्मीकि को बताया-‘देखो! एक मंत्री जी हैं जो फ्लाइट में इकोनॉमी क्लास में चलते हैं. कुछ सीखो उनसे! हमेशा रोते रहते हो.’ बाले ने कहा -‘तो ठीक है हमउ आज सैं इकनॉमी में चलैंगे.’ ऐसे संघर्षों को जानने में ही लोगों की रुचि होती है. ये ही वास्तविक संघर्ष हैं.
अब कोई कहे कि मजदूरों का संघर्ष क्यों नहीं छापते अख़बार वाले? तो ये तो आरोप ही झूठा है. अब मजदूर का काम ही है मजदूरी करना. झुग्गी में रहना. बीमारियां लेकर भटकना. किसान की ही तरह आप किसी मजदूर से पूछें तो वो यही कहेगा कि राशन नहीं मिल रहा, दवाई नहीं मिल रही, मजदूरी कम है. आपने सुना कभी किसी मजदूर ने कहा हो कि मेरी ज़िंदगी में बहुत संघर्ष है?
कल अख़बार में एक नवोदित अभिनेत्री का साक्षात्कार छपा. अपने संघर्ष के बारे में उस अभिनेत्री ने बताया- ‘ बॉलीवुड में बहुट स्ट्रगल करना परता है, मैं एक स्टूडियो से दूसरा स्टूडियो जाती थी, अपना पोर्टफोलियो लेे कर. शुरू में तो लोकल ट्रेन में भी ट्रेवल किया.’
यह पढ़ कर मेरी आँखें भर आईं. एक कोमलांगी के मुम्बई की जालिम लोकल में सफर करने की बात सुन कर भला किसकी आँखें नहीं भर आएंगी! नवोदित अभिनेत्री के इस संघर्ष की महत्ता को समाचार पत्र ने पहचाना और छापा. हमने भी इसका महत्व समझा और पढ़ा.
अब बहुत से युवा, जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, इस मुग़ालते में रहते हैं कि वे संघर्ष कर रहे हैं. दिल्ली-प्रयाग के दड़बों में रहने, बदबूदार टिफिन से खाना खाने और रेल के डिब्बों के पायदान पर लटक कर यात्रा करने को वे संघर्ष मान कर आत्ममुग्ध हो जाते हैं. पर ये कोई संघर्ष नहीं है. ये तो इस देश के युवाओं के जीवन की सामान्य परिस्थितियां हैं.
संघर्ष तो नेताजी के उस भावी सांसद बेटे का है जिसने बताया कि कैम्ब्रिज में पढ़ाई के दौरान पापा ने मेरी पॉकिट मनी बंद कर दी थी. या उस उद्योगपति के बेटे का है जिसने बहुत कम समय में अपना वजन डेढ़ सौ किलो से घटा कर सिर्फ़ एक सौ बीस किलो कर लिया.
दरअसल संघर्ष में त्याग का भाव अंतर्निहित है. जब आप अपने स्तर, पद, सुख-सुविधा में से कुछ त्याग करते हैं तभी आप संघर्षशील कहलायेंगे. अप्राप्य को पाने के लिये किये गये प्रयास में भला क्या संघर्ष? कोई धावक कहे कि मैं सौ मीटर दौड़ रहा हूँ, मुझे गोल्ड मेडल जीतना है – तो ये संघर्ष नहीं माना जा सकता.
लोग कहते हैं कि अमुक शायर, कवि ने बहुत मुफलिसी की ज़िंदगी जी. उसके जीवन में बड़ा संघर्ष था. अब ये क्या बात हुई भला? मैं पूछता हूँ उस व्यक्ति ने क्या त्याग किया? शेर-शायरी कविता लिखना तो कवि का काम है. और मुफ़लिसी में जीना उसका धर्म. इसमें क्या बड़ी बात है ?
बात तो तब होती जब वो कविता-ग़ज़ल लिखता, उसे छपवाता, स्वयं मुशायरों-कवि सम्मेलनों में जाता, अन्यों का नाम मुशायरों-कवि सम्मेलनों से कटवाता. शायरी की दम से अपनी मुफ़लिसी से बाहर आकर दिखाता. मन्त्री जी के हाथों अपने ग़ज़ल संग्रह का विमोचन करवाता. फिर सरकार से पुरस्कार प्राप्त करता और अंत में उपयुक्त समय पर उस पुरस्कार को वापस करता. हम मान जाते कि कवि ने संघर्ष किया. त्याग ही तो वास्तविक संघर्ष है.
कुछ दिन पहले मैं हॉवर्ड ज़िन द्वारा लिखा एक नाटक पढ़ रहा था जिसमें उन्होंने कार्ल मार्क्स के संघर्ष को दिखाया है. हॉवर्ड भी संघर्ष को ठीक से नहीं समझ पाए. भला क्या संघर्ष किया कार्ल मार्क्स ने?
मार्क्स आठ-दस कहानी संग्रह छपवाते, दो-तीन एनजीओ बनाते, दो इतिहास की किताब लिखते. फिर तीन कविता संग्रह. फिर दो ठो किताबें अर्थशास्त्र की भी लिख देते. फिर दस-बारह विदेश यात्रायें करते. फिर उन मुल्कों के कवियों की पच्चीस-तीस कविताओं के अनुवाद करते. फिर उनमें से कुछ अपने नाम से छपवा लेते. फिर लगता कि कुछ संघर्ष किया उन्होंने.
फ्रांस की सरकार ने निकाला, तो जनाब इंग्लैंड पहुँच गये. ये क्या बात हुई भला? ये तो सुविधाभोगी होने वाली बात हुई. संघर्ष तो तब होता जब वहीं रह कर सरकार से मामला जमाते. फ्रेंच साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बनते. पेरिस में एक सरकारी मकान अलॉट करवा लेते. ज़ार को धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्र समर्थक बताते. फ्रेंच-रूस फ़्रेण्डशिप क्लब बनाते. कभी-कभी चैम्प ऐलिसी पर नुक्कड़ नाटक करते. कुछ मोमबत्तियां जला देते.
और अगर ये भी नहीं हो पा रहा था तो हॉवर्ड ज़िन को बताना चाहिये था कि कार्ल मार्क्स कौन से ब्राह्मण थे. नम्बूदरी, कि सरयूपारी. हम मान जाते उनके संघर्ष को.
जवानी में जब एनसीआरटी की पुस्तक में पढ़ा कि ईएमएस नम्बूदीपाद सर्वोच्च ब्राह्मण जाति से थे तो मन में बहुत रोष हुआ कि आख़िर हम उन बातों का उल्लेख पुस्तकों में क्यों कर रहे हैं जिन्हें भूलकर आगे बढ़ना है. कहना न होगा कि तब हमें संघर्ष का वास्तविक अर्थ नहीं पता था.
वास्तव में भारत में वामपंथ की शोभा ब्राह्मणों से ही है. जनवादी संघर्ष का असली ग्लैमर द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, अय्यर, चटर्जी, बनर्जी, मुखर्जियों से ही आता है. इनसे ही संघर्ष के विचार को वो ‘फैंटेसी टच’ मिलता है जो कहानियों को सिंड्रेला- सिंदबाद, अलीबाबा-अलादीन से मिलता होगा.
आज हमें भले ही ये पता हो, या न हो कि ईएमएस नम्बूदरीपाद का राष्ट्र के लिये क्या योगदान है, ये अवश्य पता है कि वो सर्वोच्च ब्राह्मण जाति से थे. कदाचित यही उनका सबसे बड़ा संघर्ष था. वैसे संघर्ष के इस मामले में ब्राह्मणों में भी कुछ विप्र बंधुओ का विशेष स्थान है.
वर्तमान समय में वामपंथ के लिये सर्वाधिक संघर्ष भारद्वाज गोत्र के लोग कर रहे हैं. जब भी इतिहास भौतिकवादी विचार के लिये संघर्ष करने वालों का उल्लेख करेगा उसमें भारद्वाज ऋषि के वंशजों का नाम पहले स्थान पर आयेगा. ये बात अलग है कि अभी विचारकों का इस पर ध्यान नहीं गया है.
भौतिकवादी विचारकों में भी धर्मशास्त्रियों की तरह अपने विचार को प्राचीन से प्राचीन घोषित करने की प्रच्छन्न इच्छा विद्यमान रहती है. कबीर को पहला वामपंथी घोषित करने की ये श्रंखला, चार्वाक को पहला वामपंथी घोषित करने तक जाती है. परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है.
वास्तविकता में पहले वामपंथी भारद्वाज ऋषि थे. यदि आप जेनेटिक्स को मानते हैं तो मेरी बात से इंकार नहीं कर सकते. भारद्वाज गोत्र में जनवादी-प्रगतिशील विचारों हेतु संघर्ष के लिये विशेष आकर्षण रहता है. यदि वाम पार्टियां वास्तव में क्रांति को लेकर गम्भीर हैं तो उन्हें तत्काल भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मणों को पोलित ब्यूरो में नियुक्त करना चाहिये.
इतनी सारी बातों को लिखने का आशय यह है कि अब आप सब आत्ममुग्धता की स्थिति से बाहर आइये. स्वनिर्मित परिभाषा से स्वयं को संघर्षशील मानने से कुछ नहीं होगा. हर वक़्त आम आदमी होने का प्रलाप कि- हाय हम कितना परेशान रहते हैं देखो! हाय सड़क नहीं बनी, हाय स्कूल की फीस कितना बढ़ गई, हाय कितनी महंगाई है- इस हाय-हाय को कोई सुनने वाला नहीं है.
जब बड़े आदमी बन जायें, हवाई जहाज़ में चलने लगें, घर मे ऐसी लगा जाय, कुछ चुनाव वग़ैरह जीत लें, एक-आध साहित्य का पुरस्कार पा लें तब आपके संघर्ष पर विचार किया जायेगा. अभी नहीं.
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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